कृष्ण ने कहा अर्जुन तुम पापी नहीं, प्रिय भक्त हो
(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि।। 35।।
प्रश्न-यहाँ ‘यत्’ पद किसका वाचक है? उसको जानना क्या है? तथा ‘फिर इस प्रकार के मोह को नहीं प्राप्त होगा’ इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-यहाँ ‘यत्’ पद पूर्व श्लोक में वर्णित ज्ञानी महापुरुषों द्वारा उपदिष्ट तत्त्व ज्ञान का वाचक है और उस उपदेश के अनुसार परमात्मा के स्वरूप को भलीभाँति प्रत्यक्ष कर लेना ही उस ज्ञान को जानना है। तथा ‘फिर इस प्रकार के मोह को नहीं प्राप्त होगा’ इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि इस समय तुम जिस प्रकार मोह के वश होकर शोक में निमग्न हो रहे हो; महापुरुषों द्वारा उपदिष्ट ज्ञान के अनुसार परमात्मा का साक्षात् कर लेने के बाद पुनः तुम इस प्रकार के मोह को नहीं प्राप्त होओगे। क्योंकि जैसे रात्रि के समय सब जगह फैला हुआ अन्धकार सूर्योदय होने के बाद नहीं रह सकता, उसी प्रकार परमात्मा के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान हो जाने के बाद ‘मैं कौन हूँ? संसार क्या है? माया क्या है, ब्रह्म क्या है? इत्यादि कुछ भी जानना शेष नहीं रहता। फलतः शरीर को आत्मा समझकर उससे सम्बन्ध रखने वाले प्राणियों में और पदार्थों में ममता, करना, शरीर की उत्पत्ति-विनाश से आत्मा का जन्म-मरण समझकर उन सबके संयोग-वियोग में सुखी-दुखी होना तथा अन्य किसी भी निमित्त से राग-द्वेष और हर्ष-शोक करना आदि मोहजनित विकार जरा भी नहीं हो सकते। लौकिक सूर्य तो उदय होकर अस्त भी होता है और उसके अस्त होने पर फिर अन्धकार हो जाता है; परन्तु यह ज्ञान सूर्य एक बार उदय होने पर फिर कभी अस्त होता ही नहीं। परमात्मा का यह तत्त्व ज्ञान नित्य और अचल है, इसका कभी अभाव नहीं होता; इस कारण परमात्मा का तत्त्वज्ञान होने के बाद फिर मोह की उत्पत्ति हो ही नहीं सकती! श्रुति कहती है-
यसिमन् सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानतः।
तत्र को मोहः कः शेाक एकत्वमनुपश्यतः।।
अर्थात् जिस समय तत्त्वज्ञान को प्राप्त हुए पुरुष के लिये समस्त प्राणी आत्मस्वरूप ही हो जाते हैं, उस समय उस एकत्वदर्शी पुरुष को कौन-सा शोक और कौन-सा मोह हो सकता है? अर्थात् कुछ भी नहीं हो सकता।
प्रश्न-ज्ञान के द्वारा सम्पूर्ण भूतों को निःशेष भाव से आत्मा के अन्तर्गत देखना क्या है?
उत्तर-महापुरुषों से परमात्मा के तत्त्व ज्ञान का उपदेश पाकर आत्मा को सर्वव्यापी, अनन्त स्वरूप समझना तथा समस्त प्राणियों में भेद-बुद्धि का अभाव होकर सर्वत्र आत्मभाव हो जाना-अर्थात् जैसे स्वप्न से जगा हुआ मनुष्य स्वप्न के जगत् को अपने अन्तर्गत स्मृति मात्र देखता है, वास्तव में अपने से भिन्न अन्य किसी की सत्ता नहीं देखता, उसी प्रकार समस्त जगत् को अपने से अभिन्न और अपने अन्तर्गत समझना सम्पूर्ण भूतों को निःशेषता से आत्मा के अन्तर्गत देखना है। इस प्रकार आत्म ज्ञान होने के साथ ही मनुष्य के शोक और मोह का सर्वथा अभाव हो जाता है।
प्रश्न-इस प्रकार आत्मदर्शन हो जाने के बाद सम्पूर्ण भूतों को सच्चिदानन्दधन परमात्मा में देखना क्या है?
उत्तर-सम्पूर्ण भूतों को सच्चिदानन्दधन परमात्मा में देखना पूर्वोक्त आत्मदर्शन रूप स्थिति का फल है; इसी को परम पद की प्राप्ति, निर्वाण-ब्रह्म की प्राप्ति और परमात्मा में प्रविष्ट हो जाना भी कहते हैं। इस स्थिति को प्राप्त हुए पुरुष का अहंभाव सर्वथा नष्ट हो जाता है; उस समय उस योगी की परमात्मा से पृथक् सत्ता नहीं रहती, केवल एक सच्चिदानन्दधन ब्रह्म ही रह जाता है। उसका समस्त भूतों को परमात्मा में स्थित देखना भी शास्त्र दृष्टि से कहने मात्र को ही है; क्योंकि उसके लिये द्रष्टा और दृश्य का भेद ही नहीं रहता, तब कौन देखता है और किसको देखता है? यह स्थिति वाणी से सर्वथा अतीत है, इसलिये वाणी से इसका केवल संकेत मात्र किया जाता है, लोक दृष्टि में उस ज्ञानी के जो मन, बुद्धि और शरीर आदि रहते हैं, उनके भावों को लेकर ही ऐसा कहा जाता है कि वह समस्त प्राणियों को सच्चिदानन्दधन ब्रह्म में देखता है; क्योंकि वस्तुतः उसकी बुद्धि में सम्पूर्ण जगत् जल में बरफ, आकाश में बादल और स्वर्ण में आभूषणों की भाँति ब्रह्म रूप ही हो जाता है, कोई भी पदार्थ या प्राणी ब्रह्म से भिन्न नहीं रह जाता। छठे अध्याय के सत्ताईसवें श्लोक में जो योगी का ‘ब्रह्मभूत’ हो जाना तथा उन्नीसवें श्लोक में योगायुक्तात्मा और सर्वत्र समदर्शी योगी का जो सब भूतों को आत्मा में स्थित देखना और सब भूतों में आत्मा को स्थित देखना बतलाया गया है, वह तो यहाँ ‘द्रक्ष्यसि’ आत्मनि’ से बतलायी हुई पहली स्थिति है और उस अध्याय के अट्ठाइसवें श्लोक में जो ब्रह्म संस्पर्श रूप अत्यन्त सुख की प्राप्ति बतलायी गयी है, वह यहाँ ‘अथो मयि’ से बतलायी हुई उस पहली स्थिति की फलरूपा दूसरी स्थिति है। अठारहवें अध्याय में भी भगवान् ने ज्ञान योग के वर्णन में चैवनवें श्लोक में योगी का ब्रह्मभूत होना बतलाया है और पचपनवें में ज्ञान रूप पराभक्ति के द्वारा उसका परमात्मा में प्रविष्ट होना बतलाया है। वही बात यहाँ दिखलायी गयी है।
अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः।
सर्वं ज्ञानपल्वेनैव वृजिनं संतष्यिसि।। 36।।
प्रश्न-इस श्लोक में ‘चेत’ और ‘अपि’ पदों का प्रयोग करके क्या भाव दिखलाया गया है?
उत्तर-इन पदों के प्रयोग से भगवान् ने अर्जुन को यह बतलाया है कि तुम वास्तव में पापी नहीं हो, तुम तो दैवी-सम्पदाय के लक्षणों से युक्त तथा मेरे प्रिय भक्त और सखा हो; तुम्हारे अंदर पाप कैसे रह सकते हैं। परन्तु इस ज्ञान का इतना प्रभाव और माहात्म्य है कि यदि तुम अधिक-से-अधिक पाप कर्मी हो ओ तो भी तुम इस ज्ञान रूप नौका के द्वारा उन समुद्र के समान अथाह पापों से भी अनायास तर सकते हो। बड़े-से-बड़े पाप भी तुम्हें अटका नहीं सकते।
प्रश्न-जिसका अन्तःकरण शुद्ध नहीं हुआ है, ऐसा अत्यन्त पापात्मा मनुष्य तो ज्ञान का अधिकारी भी नहीं माना जा सकता; तब फिर वह ज्ञान नौका द्वारा पापों से कैसे तर जाता है?
उत्तर-‘चेत्’ और ‘अपि’-पदों का प्रयोग होने से यहाँ इस शंका की गुंजाइश नहीं है, क्योंकि भगवान् के कहने का यहाँ यह भाव है कि पापी ज्ञान का अधिकारी नहीं होता, इस कारण उसे ज्ञान रूप नौका का मिलना कठिन है पर मेरी कृपा से या महापुरुषों की दया से-किसी भी कारण से यदि उसे ज्ञान प्राप्त हो जाय तो फिर वह चाहे कितना ही बड़ा पापी क्यों न हो, उसका तत्काल ही पापों से उद्धार हो जाता हैं।
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