काम व क्रोध के वेग को रोकें

काम व क्रोध के वेग को रोकें

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

केनोपनिषद् में कहा है-

इह चेदवेदीय सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्ठिः।

अर्थात ‘यदि इस मनुष्य शरीर में ही भगवान् को जान लिया तो अच्छी बात है, यदि इस शरीर में न जाना तो बड़ी भारी हानि है।’

प्रश्न-‘प्राक् शरीर विमोक्षणात्’ का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-इससे यह बतलाया गया है कि शरीर नाशवान् है-इसका वियोग होना निश्चित है और यह भी पता नहीं कि यह किस क्षण में नष्ट हो जायगा; इसलिये मृत्युकाल उपस्थित होने से पहले-पहले ही काम-क्रोध पर विजय प्राप्त कर लेनी चाहिये, साथ ही साधन करके ऐसी शक्ति प्राप्त कर लेनी चाहिये जिससे कि बार-बार घोर आक्रमण करने वाले ये काम-क्रोध रूपी महान् शत्रु अपना वेग उत्पन्न करके जीवन में कभी विचलित ही न कर सकें। जैसे समुद्र में सब नदियों के जल अपने-अपने वेग सहित विलीन हो जाते हैं, वैसे ही ये काम-क्रोधादि शत्रु अपने वेग सहित विलीन होकर नष्ट ही हो जायँ-ऐसा प्रयत्न करना चाहिये।

प्रश्न-काम-क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग क्या हैं? और उन्हें सहन करने में समर्थ होना किसे कहते हैं?

उत्तर-(पुरुष के लिये) स्त्री, (स्त्री के लिये) पुरुष, (दोनों ही के लिये) पुत्र, धन, मकान या स्वर्गादि जो कुछ भी देखे-सुने हुए मन और इन्द्रियों के विषय हैं, उनमें आसक्ति हो जाने के कारण उनको प्राप्त करने की जो इच्छा होती है, उसका नाम ‘काम’ है और उसके कारण अन्तःकरण में होने वाले नाना प्रकार के संकल्प-विकल्पों का जो प्रवाह है, वह काम से उत्पन्न होने वाला ‘वेग’ है। इसी प्रकार मन, बुद्धि और इन्द्रियों के प्रतिकूल विषयों की प्राप्ति होने पर अथवा इष्ट-प्राप्ति की इच्छापूर्ति में बाधा उपस्थित होने पर उस स्थिति के कारण भूत पदार्थ या जीवों के प्रति द्वेषभाव उत्पन्न होकर अन्तःकरण में जो ‘उत्तेजना’ का भाव आता है, उसका नाम ‘क्रोध’ है; और उस क्रोध के कारण होने वाले नाम प्रकार के संकल्प-विकल्पों का जो प्रवाह है, वह क्रोध से उत्पन्न होने वाला वेग है। इन वेगों को शान्तिपूर्वक सहन करने की अर्थात् इन्हें कार्यान्वित न होने देने की शक्ति प्राप्त कर लेना ही, इनको सहन करने में समर्थ होना है।

प्रश्न-यहाँ ‘युक्तः’ विशेषण किसके लिये दिया गया है?

उत्तर-बार-बार आक्रमण करके भी काम-क्रोधादि शत्रु जिसको विचलित नहीं कर सकते-इस प्रकार जो काम-क्रोध के वेग को सहन करने में समर्थ है, उस मन-इन्द्रियों को वश में रखने वाले सांख्य योग के साधक पुरुष के लिये ही ‘युक्तः’ विशेषण दिया गया है?

प्रश्न-ऐसे पुरुष को ‘सुखी’ कहने का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-संसार में सभी मनुष्य सुख चाहते हैं, परन्तु वास्तविक सुख क्या है और कैसे मिलता है, इस बात को न जानने के कारण वे भ्रम से भोगों में ही सुख समझ बैठते हैं, उन्हीं की कामना करते हैं और उन्हीं को प्राप्त करने की चेष्टा करते हैं। उसमें बाधा आने पर वे क्रोध के वश हो जाते हैं। परन्तु नियम यह है कि काम-क्रोध के वश में रहने वाला मनुष्य कदापि सुखी नहीं हो सकता। जो कामना के वश है, वह स्त्री-पुत्र और धनमानादि की प्राप्ति के लिये और जो क्रोध के वश है वह दूसरों का अनिष्ट करने के लिये भाँति-भाँति के अनर्थों में और पापों में प्रवृत्त होता है। परिणाम में वह इस लोक में रोग, शोक, अपमान, अपयश, आकुलता, भय, अशान्ति, उद्वेग और नाना प्रकार के तापों को तथा परलोक में नरक और पशु-पक्षी,, कृमि-कीटादि योनियों में भाँति-भाँति के क्लेशों को प्राप्त होता है। इस प्रकार वह सुख न पाकर सदा दुःख ही पाता है परन्तु जिन पुरुषों ने भोगों को दुःख के हेतु और क्षणभंगुर समझकर काम-क्रोधादि शत्रुओं पर भलीभाँति विजय प्राप्त कर ली है और जो उनके पंजे से पूर्णरूपेण छूट गये हैं, वे सदा सुखी ही रहते हैं। इसी अभिप्राय से ऐसे पुरुष को ‘सुखी’ कहा गया है।

प्रश्न-यहाँ ‘नरः’ इस पद का प्रयोग किसलिये किया गया है?

उत्तर-सच्चा ‘नर’ वही है जो काम-क्रोधादि दुर्गुणों को जीतकर भोगों में वैराग्यवान् और उपरत होकर सच्चिदानन्दधन परमात्मा को प्राप्त कर लें। ‘नर’ शब्द वस्तुतः ऐसे ही मनुष्य का वाचक है, फिर आकार में चाहे वह स्त्री हो या पुरुष! अज्ञान विमोहित मनुष्य आसक्ति वश आपात रमणीय विषयों के प्रलोभन में फँसकर परमात्मा को भूल जाता है और काम-क्रोधादि के परायण होकर नीच पशुओं और पिशाचों की भाँति आहार, निद्रा, मैथुन और कलह में ही प्रवृत्त रहता है। वह ‘नर’ नहीं है, वह तो पशु से भी गया-बीता बिना सींग-पूँछ का अशोमन, निकम्मा और जगत् को दुःख देने वाला जन्तु विशेष है। परमात्मा को प्राप्त सच्चे ‘नर’ के गुण और आचरण को लक्ष्य बनाकर जो साधक काम-क्रोधादि शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर चुकते हैं, वे भी ‘नर’ के गुण और आचरण को लक्ष्य बनाकर जो साधक काम-क्रोधादि शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर चुकते हैं वे भी ‘नर’ ही हैं, इसी भाव से यहाँ ‘नर’ शब्द का प्रयोग किया गया है।

प्रश्न-जिसने काम-क्रोध को जीत लिया है तथा जिसे ‘युक्त’ और ‘सुखी’ कहा गया है, उस पुरुष को साधक ही क्यों मानना चाहिये? उसे सिद्धमान लिया जाय तो क्या हानि है?

उत्तर-केवल काम-क्रोध पर विजय प्राप्त कर लेने मात्र से ही कोई सिद्ध नहीं हो जाता। सिद्ध में तो काम-क्रोधादि की गन्ध भी नहीं रहती। यह बात इसी अध्याय के छब्बीसवें श्लोक में भगवान् ने कही है। फिर यहाँ उसे ‘सुखी’ ही बतलाया गया है, यदि वह ‘अक्षय सुख’ को प्राप्त करने वाला सिद्ध पुरुष होता तो उसके लिये यहाँ ‘परम सुखी’ या अन्य कोई विलक्षण विशेषण दिया जाता है। यहाँ वह उसी ‘सात्विक’ सुख का अनुभव करने वाला पुरुष है जो इक्कीसवें श्लोक के पूर्वार्द्ध के अनुसार परमात्मा के ध्यान में प्राप्त होता है। इसलिये इस श्लोक में वर्णित पुरुष को साधक ही समझना चाहिये।

योऽन्तःसुखोऽन्तरा रामस्तथान्तज्र्योतिरेव यः।

स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति।। 24।।

प्रश्न-‘अन्तःसुखः’ का क्या भाव है? 
उत्तर-यहाँ ‘अन्तः’ शब्द सम्पूर्ण जगत् के अन्तः स्थित परमात्मा का वाचक है, अन्तःकरण का नहीं। इसका यह अभिप्राय है कि जो पुरुष बाह्य विषय भोग रूप सांसारिक सुखों को स्वप्न की भाँति अनित्य समझ लेने के कारण उनको सुख नहीं मानता किन्तु इन सबके अन्तः स्थित परम आनन्द स्वरूप परमात्मा में ही ‘सुख’ मानता है, वही ‘अन्तःसुखः’ अर्थात् परमात्मा में ही सुख मानने वाला है।
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