सर्वत्र समभाव रखता है ज्ञानी

सर्वत्र समभाव रखता है ज्ञानी

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
प्रश्न-यहाँ ‘अपुनरावृत्ति को प्राप्त होना’ क्या है?
उत्तर-जिस पद को प्राप्त होकर योगी पुनः नहीं लौटता, जिसको सोलहवें श्लोक में ‘तत्परम्’ के नाम से कहा है, गीता में जिसका वर्णन कहीं ‘अक्षय सुख’, कहीं ‘निर्वाण ब्रह्म,’ कहीं, कहीं उत्तम सुख,’ कहीं ‘परम गति,’ कहीं ‘परमधाम,’ कहीं ‘अव्ययपद’ और कहीं ‘दिव्य परमपुरुष’ के नाम से आया है, उस यथार्थ ज्ञान के फलरूप परमात्मा को प्राप्त होना ही अपुनरावृत्ति को प्राप्त होना है।
विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।। 18।।
प्रश्न-यहाँ ‘पण्डिताः’ पद किन पुरुषों का वाचक है?
उत्तर-‘पण्डिताः’ यह पद त़त्त्वज्ञानी महात्मा सिद्ध पुरुषों का वाचक है।
प्रश्न-विद्या विनय सम्पन्न ब्राह्मण में तथा गौ, हाथी, कुत्ते और चाण्डाल में समदर्शन का क्या भाव है?
उत्तर-तत्त्वज्ञानी सिद्ध पुरुषों का विषम भाव सर्वथा नष्ट हो जाता है। उनकी दृष्टि में एक सच्चिदानन्दनधन परब्रह्म परमात्मा से अतिरिक्त अन्य किसी की सत्ता नहीं रहती, इसलिये उनका सर्वत्र समभाव हो जाता है। इसी बात को समझाने के लिये मनुष्यों में उत्तम-से-उत्तम श्रेष्ठ ब्राह्मण, नीच-से-नीच चाण्डाल एवं पशुओं में उत्तम गौ, मध्यम हाथी और नीच-से-नीच कुत्ते का उदाहरण देकर उनके समत्व का दिग्दर्शन कराया गया है। इन पाँचों प्राणियों के साथ व्यवहार में विषमता सभी को करनी पड़ती है। जैसे गौ का दूध सभी पीते हैं, पर कुतिया का दूध कोई भी मनुष्य नहीं पीता। वैसे ही हाथी पर सवारी की जा सकती है, कुत्ते पर नहीं की जा सकती। जो वस्तु शरीर निर्वाहार्थ पशुओं के लिये उपयोगी होती है, वह मनुष्यों के लिये नहीं हो सकती। श्रेष्ठ ब्राह्मण का पूजन-सत्कारादि करने की शास्त्रों की आज्ञा है, चाण्डाल के लिये नहीं है। अतः इनका उदाहरण देकर भगवान् ने यह बात समझायी है कि जिनमें व्यावहारिक विषमता अनिवार्य है उनमें भी ज्ञानी पुरुषों का समभाव ही रहता है। कभी किसी भी कारण से कहीं भी उनमें विषमभाव नहीं होता।
प्रश्न-क्या सर्वत्र समभाव हो जाने के कारण ज्ञानी पुरुष सबके साथ व्यवहार भी एक-सा ही करते हैं?
उत्तर-ऐसी बात नहीं है। सबके साथ एक-सा व्यवहार तो कोई कर ही नहीं सकता। शास्त्रों में बतलाये हुए न्याययुक्त व्यवहार का भेद तो सबके साथ रखना ही चाहिये। ज्ञानी पुरुषों की यह विशेषता है कि वे लोकदृष्टि से व्यवहार में यथा योग्य आवश्यक भेद रखते हैं-ब्राह्मण के साथ ब्राह्मणोचित, चाण्डाल के साथ चाण्डालोचित, इसी तरह गौ, हाथी और कुत्ते आदि के साथ यथायोग्य सद्व्यवहार करते हैं; परन्तु ऐसा करने पर भी उनका प्रेम और परमात्मभाव सब में समान ही रहता हैं।
जैसे मनुष्य अपने मस्तक, हाथ और पैर आदि अंगों के साथ भी बर्ताव में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रादि के सदृश भेद रखता है, जो काम मस्तक और मुख से लेता है, वह हाथ और पैरों से नहीं लेता। जो हाथ-पैरांे का काम है, वह सिर से नहीं लेता और सब अंगों के आदर, मान एवं शौचादि में भी भेद रखता है, तथापि उनमें आत्मभाव-अपनापन समान होने के कारण वह सभी अंगों के सुख-दुःख का अनुभव समान भाव से करता है और सारे शरीर में उसका प्रेम एक-सा ही रहता है? प्रेम और आत्मभाव की दृष्टि से कहीं विषमता नहीं रहती। वैसे ही तत्त्वज्ञानी महापुरुष की सर्वत्र ब्रह्मदृष्टि हो जाने के कारण लोकदृष्टि से व्यवहार में यथा योग्य भेद रहने पर भी उसका आत्मभाव और प्रेम सर्वत्र सम रहता है और इसीलिये, जैसे किसी भी अंगों में चोट लगने पर उसकी सम्भावना होने पर मनुष्य उसके प्रतिकार की चेष्टा करता है, वैसे ही तत्त्वज्ञानी पुरुष भी व्यवहार काल में किसी भी जीव या जीव समुदाय पर विपत्ति पड़ने पर बिना भेदभाव के उसके प्रतिकार की यथा योग्य चेष्टा करता है।
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्माणि ते स्थिताः।। 19।।
प्रश्न-जिनका मन समता में स्थित है, उन्होंने यहीं संसार को जीत लिया-इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि जिनका मन उपर्युक्त प्रकार से समता में स्थित हो गया है अर्थात् जिनकी सर्वत्र समबुद्धि हो गयी है, उन्होंने यहीं इसी वर्तमान जीवन में संसार को जीत लिया; वे सदा के लिये जन्म-मरण से छूटकर जीवनमुक्त हो गये। लोकदृष्टि में उनका शरीर रहते हुए भी वास्तव में उस शरीर से उनका कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहा।
प्रश्न-ब्रह्म को ‘निर्दोष’ और ‘सम’ बतलाने का क्या अभ्रिपाय है तथा ‘हि’ और ‘तस्मात्’ का प्रयोग किसलिये किया गया है?
उत्तर-सत्त्व, रज और तम-इन तीनों गुणों में सब प्रकार के दोष भरे हैं और समस्त संसार तीनों गुणों का कार्य होेने से दोषमय है। इन गुणों के सम्बन्ध से ही विषम भाव तथा राग-द्वेष, मोह आदि समस्त अवगुणों का प्रादुर्भाव होता है। ‘ब्रह्म’ नाम से कहा जाने वाला सच्चिदानन्दधन परमात्मा इन तीनों गुणों से सर्वथा अतीत है। इसलिये वह ‘निर्दोष’ और ‘सम’ है। इसी तरह तत्त्वज्ञानी भी तीनों गुणों से अतीत हो जाता है। अतः उसके राग, द्वेष, मोह, ममता, अहंकार आदि समस्त अवगुणों का और विषम भाव का सर्वथा नाश होकर उसकी स्थिति समभाव में हो जाती है। ‘हि’ और ‘तस्मात्’ इन हेतु वाचक शब्दों के प्रयोग का यह अभिप्राय है कि समभाव ब्रह्म का ही स्वरूप है; इसलिये जिनका तन मन समभाव में ही स्थित है, वे ब्रह्म में ही स्थित हैं। यद्यपि लोगों को वे त्रिगुणमय संसार और शरीर में स्थित दीखते हैं, तथापि उनकी स्थिति समभाव में होेने के कारण वास्तव में उनका इस त्रिगुणमय संसार और शरीर से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है; उनकी स्थिति तो ब्रह्म में ही है। -क्रमशः (हिफी)

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