कर्मों का सुधार ही उन्नति या उत्थान है

कर्मों का सुधार ही उन्नति या उत्थान है

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

उद्वरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।।

आत्मव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।। 5।।

प्रश्न-अपने द्वारा अपना उद्धार करना क्या है? और अपने को अधोगति में डालना क्या है?

उत्तर-जीव अज्ञान के वश होकर अनादि काल से इस दुःखमय संसार-सागर में गोते लगाता है और नाना प्रकार की भलीभाँति के भयानक कष्ट सहता रहता है। जीव की इस दीन-दशा को देखकर दयामय भगवान् उसे साधनोपयोगी देव-दुर्लभ मनुष्य शरीर प्रदान करके एक बहुत सुन्दर अवसर देते हैं, जिसमें वह चाहे तो साधना के द्वारा ही जन्म में संसार-समुद्र से निकलकर सहज ही परमानन्द स्वरूप परमात्मा को प्राप्त कर ले। इसलिये मनुष्य को चाहिये कि वह मानव-जीवन के दुर्लभ अवसर को व्यर्थ न जाने दे और कर्म योग, सांख्य योग तथा भक्ति योग आदि किसी भी साधन में लगकर अपने जन्म को सफल बना ले। यही अपने द्वारा अपना उद्वार करना है।

इसके विपरीत राग-द्वेष, काम-क्रोध और लोभ-मोह आदि दोषों में फँसकर भाँति-भाँति के दुष्कर्म करना और उनके फल स्वरूप मनुष्य-शरीर परम फल भगवत प्राप्ति से वंचित रहकर पुनः शूकर-कूकरादि योनियों में जाने का कारण बनना अपने को अधोगति में ले जाना है। उपनिषद् में ऐसे मनुष्यों को आत्म हत्यारा कहकर उनकी दुर्गति का वर्णन किया गया है।

यहाँ भगवान् ने अपने द्वारा ही अपना उद्वार करने की बात कहकर जीव को यह आश्वासन दिया है कि ‘तुम यह न समझो कि प्रारब्ध बुरा है, इसलिये तुम्हारी उन्नति होगी ही नहीं। तुम्हारा उत्थान-पतन प्रारब्ध के अधीन नहीं है, तुम्हरे ही हाथ में है। साधना करो और अपने को अवनति के गड्ढे से निकालकर उन्नति के शिखर पर ले जाओ।’ अतएव मनुष्य को बड़ी ही सावधानी तथा तत्परता के साथ सदा-सर्वदा अपने उत्थान की, अभी जिस स्थिति में है उसे ऊपर उठने की, रागद्वेष, काम-क्रोध, भोग, आलस्य, प्रसाद और पापाचार का सर्वथा त्याग करके शम, दम, तितिक्षा, विवेक और वैराग्यादि संगुणों का संग्रह करने की, विषय चिन्तन छोड़कर श्रद्धा और प्रेम के साथ भगवत चिंतन करने की और भजन-ध्यान तथा सेवा-सत्संगादि के द्वारा भगवान् को प्राप्त करने की साधना करनी चाहिये और जब तक भगवत्प्राप्ति न हो जाय तब तक एक क्षण के लिये भी, जरा भी पीछे हटना तथा रुकना नहीं चाहिये। भगवत् कृपा के बल पर धीरता, वीरता और दृढ़ निश्चय के साथ अपने को जरा भी न डिगने देकर उत्तरोत्तर उन्नति के पथ पर ही अग्रसर होते रहना चाहिये।

मनुष्य अपने स्वभाव और कर्मों में जितना ही अधिक सुधार कर लेता है, वह उतना ही उन्नत होता है। स्वभाव और कर्मों का सुधार ही उन्नति या उत्थान है; तथा इसके विपरीत स्वभाव और कर्मों में दोषा का बढ़ना ही उवनति या पतन है।

प्रश्न-वह मनुष्य आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना ही शत्रु है, इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि मनुष्य सांसारिक सम्बन्ध के कारण आसक्ति वश जिन लोगों को अपना मित्र बनाता है, वे तो बन्धन में हेतु होने से वस्तुतः मित्र ही नहीं है। संत, महात्मा और निःस्वार्थ साधक, जो बन्धन से छुड़ाने में सहायक होते हैं, वे अवश्य ही सच्चे मित्र हैं, परन्तु उनकी यह मैत्री भी मनुष्य को तभी प्राप्त होती है, तब पहले वह स्वयं अपने मन से उनके प्रति श्रद्धा और प्रेम करता है, तथा उन्हें सच्चा मित्र मानता है और उनके बतलाये हुए मार्ग के अनुसार चलता है। इस दृष्टि से विचार करने पर यही सिद्ध होता है कि यह आप ही अपना मित्र है। इसी प्रकार यह भ्ीा निश्चित है कि मनुष्य अपने मन में किसी को शत्रु मानता है, तभी उसकी हानि होती है। नहीं तो कोई भी मनुष्य किसी की कुछ भी पारमार्थिक हानि नहीं कर सकता। इसलिये शत्रु भी वस्तुतः वह स्वयं ही है। वास्तव में जो अपने उद्धार के लिये चेष्टा करता है, वह आप ही अपना मित्र है; और जो इसके विपरीत करता है, वह अपना शत्रु है। इसलिये अपने से भिन्न दूसरा कोई भी अपना मित्र या शत्रु नहीं है।

बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।

अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्।। 6।।

प्रश्न-मन और इन्द्रियों सहित शरीर को जीतना क्या है? ये किस प्रकार जीते जा सकते हैं? जीते हुए शरीर, इन्द्रिय और मन के क्या लक्षण हैं? एवं इनको जीतने वाला मनुष्य आप ही अपना मित्र कैसे है?

उत्तर-शरीर, इन्द्रिय और मन को भलीभाँति अपने वश में कर लेना ही इनको जीतना है। विवेक पूर्वक अभ्यास और वैराग्य के द्वारा ये वश में हो सकते हैं। परमात्मा की प्राप्ति के लिये मनुष्य जिन साधनों में अपने शरीर, इन्द्रिय और मन को लगाना चाहे, उनमें जब वे अनायास ही लग जायँ और उसके लक्ष्य से विपरीत मार्ग की ओर ताकें ही नहीं, तब समझना चाहिये कि वे वश में हो जाते हैं, वह अनायास ही संसार-समुद्र से अपना उद्वार कर लेता है एवं परमानन्द स्वरूप परमात्मा को प्राप्त करके कृतार्थ हो जाता है; इसलिये वह स्वयं अपना मित्र है।

प्रश्न-जिसके शरीर, इन्द्रिय और मन जीते हुए नहीं हैं, उसको ‘अनात्मा’ कहने का क्या अभिप्राय है? एवं उसका शत्रु की भाँति शत्रुता का आचरण क्या है?

उत्तर-शरीर, इन्द्रिय और मन-इन सबका नाम आत्मा है। ये सब जिसके अपने नहीं हैं, उच्छलंग हैं और

यथेच्छ विषयों में लगे रहते हैं; जो इन सबको अपने लक्ष्य के अनुकूल इच्छानुसार कल्याण के साधन में नहीं लगा सकता, वह ‘अनात्मा’ है-आत्मवान् नहीं है। ऐसा मनुष्य स्वयं मन, इन्द्रिय आदि के वश होकर कुपथ्य करने वाले रोगी की भाँति अपने ही कल्याण साधन के विपरीत आचरण करता है। वह अहंता, ममता, राग-द्वेष, काम-क्रोध, लोभ, मोह आदि के कारण प्रसाद, आलस्य और विषय-भोगों में फँसकर पाप-कर्मों के कठिन बन्धन में पड़ जाता है। जैसे शत्रु किसी को सुख के साधन से वंचित करके दुःख भोगने को बाध्य करता है, वैसे ही वह अपने शरीर, इन्द्रिय और मन को कल्याण के साधन में लगाकर भोगों में लगाता है तथा अपने-आपको बार-बार नरकादि में डालकर और नाना प्रकार की योनियों में भटकाकर अनन्त काल तक भीषण दुःख भोगने के लिये बाध्य करता है। यद्यपि अपने-आप में किसी का द्वेष न होनेे के कारण वास्तव में कोई भी अपना बुरा नहीं चाहता, तथापि अज्ञान विमोहित मनुष्य आसक्ति के वश होकर दुःख को सुख और अहित को हित समझकर अपने यथार्थ कल्याण के विपरीत आचरण करने लगता है-इसी बात को दिखलाने के लिये ऐसा कहा गया है कि वह शत्रु की भाँति शत्रुता का आचरण करता है।
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