कृष्ण ने कहा अर्जुन पहले काम का करो वध

कृष्ण ने कहा अर्जुन पहले काम का करो वध

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।

पाप्मानं प्रजहि ह्योनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्।। 41।।

प्रश्न-‘तस्मात्’ और ‘आदौ’-इन दोनों पदों का प्रयोग करके इन्द्रियों को वश में करने के लिए कहने का क्या भाव है?

उत्तर-‘तस्मात्’ पद हेतु वाचक है इसके सहित ‘आदौ’ पद का प्रयोग करके इन्द्रियों को वश में करने के लिये कहकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि ‘काम’ ही समस्त अनर्थों का मूल है और यह पहले इन्द्रियों में प्रविष्ट होकर उनके द्वारा मन-बुद्धि को मोहित करके जीवात्मा को मोहित करता है; इसके निवास स्थान मन, बुद्धि और इन्द्रियाँ हैं; इसलिये पहले इन्द्रियों पर अपना अधिकार करके इस कामरूप शत्रु को अवश्य मार डालना चाहिये। इसके वास स्थानों को रोक लेने से ही इस कामरूप शत्रु को मारने में सुगमता होगी। अतएव पहले इन्द्रियों को और फिर मन को रोकना चाहिये।

प्रश्न-इन्द्रियों को किस उपाय से वश में करना चाहिये?

उत्तर-अभ्यास और वैराग्य इन दो उपायों से इन्द्रियाँ वश में हो सकती हैं-ये ही दो उपाय मन को वश में करने के लिये बतलाये गये हैं। विषय और इन्द्रियों के संयोग से होने वाले राजस सुख को तथा निद्रा, आलस्य और प्रमाद जनित तामस सुख को वास्तव में क्षणिक, नाशवान् और दुःख रूप समझकर इस लोक और परलोक के समस्त भोगों से विरक्त रहना वैराग्य है और परमात्मा के नाम, रूप, गुण, चरित्र आदि के श्रवण, कीर्तन, मनन आदि में और निःस्वार्थ भाव से लोक सेवा के कार्यों में इन्द्रियों को लगाना एवं धारण-शक्ति के द्वारा उनकी क्रियाओं को शास्त्र के अनुकूल बनाना तथा उनमें स्वेच्छा चारिता का दोष पैदा न होने देने की चेष्टा करना अभ्यास है। इन दोनों ही उपायों से इन्द्रियों को और मन को वश में किया जा सकता है।

प्रश्न-ज्ञान और विज्ञान-इन दोनों शब्दों का यहाँ क्या अर्थ है और काम को इनका नाश करने वाला बतलाने का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-भगवान् के निर्गुण-निराकार तत्त्व के प्रभाव, महात्म्य और रहस्य से युक्त यथार्थ ज्ञान को ‘ज्ञान’ तथा सगुण-निराकार और दिव्य साकार तत्त्व के लीला, रहस्य, गुण, महत्त्व और प्रभाव से युक्त यथार्थ ज्ञान को ‘विज्ञान’ कहते हैं। इस ज्ञान और विज्ञान की यथार्थ प्राप्ति के लिये हृदय में जो आकांगना उत्पन्न होती है, उसको यह महान् कामरूप शत्रु अपनी मोहिनी शक्ति के द्वारा नित्य-निरन्तर दबाता रहता है अर्थात् उस आकांक्षा की जागृति से उत्पन्न ज्ञान-विज्ञान के साधनों में बाधा पहुँचाता रहता है, इसी कारण ये प्रकट नहीं हो पाते, इसीलिये काम को उनका नाश करने वाला बतलाया गया है। ‘नाश’ शब्द के दो अर्थ होते हैं-एक तो अप्रकट कर देना और दूसरा वस्तु का अभाव कर देना; यहाँ अप्रकट कर देने के अर्थ में ही ‘नाश’ शब्द का प्रयोग हुआ है, क्योंकि पूर्व श्लोकों में भी ज्ञान को काम से आवृत (ढका हुआ) बतलाया गया है। ज्ञान और विज्ञान को समूल नष्ट करने की तो काम में शक्ति नहीं है, क्योंकि काम की उत्पत्ति अज्ञान से हुई है अतः ज्ञान-विज्ञान के एक बार प्रकट हो जाने पर तो अज्ञान का ही समूल नाश हो जाता है, फिर तो ज्ञान-विज्ञान के नाश का कोई प्रश्न ही नहीं रह जाता।

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।

मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः।। 42।।

प्रश्न-इन्द्रियों को स्थूल शरीर से पर अर्थात् श्रेष्ठ कहते हैं, यह बात किस आधार पर मानी जा सकती है?

उत्तर-कठोपनिषद् में शरीर को रथ और इन्द्रियों को घोड़े बतलाया है। रथ की अपेक्षा घोड़े श्रेष्ठ और चेतन हैं एवं रथ को अपनी इच्छानुसार ले जा सकते हैं। इसी तरह इन्द्रियाँ ही स्थूल देह को चाहे जहाँ ले जाती हैं, अतः उससे बलवान् और चेतन हैं। स्थूल शरीर देखने में आता है, इन्द्रियाँ देखने में नहीं आती; इसलिये वे इससे सूक्ष्म भी हैं।

इसके सिवा स्थूल शरीर की अपेक्षा इन्द्रियों की श्रेष्ठता, सूक्ष्मता और बलवत्ता प्रत्यक्ष भी देखने में आती है।

प्रश्न-कठोपनिषद् में कहा है कि इन्द्रियों की अपेक्षा अर्थ पर हैं, अर्थों की अपेक्षा मन पर है? मन से बुद्धि पर है, बुद्धि से महत्तत्व पर है, समष्टि बुद्धि रूप महत्तत्व से अव्यक्त पर है और अव्यक्त से पुरुष पर है; इस पुरुष से अर्थात् श्रेष्ठ और सूक्ष्म कुछ भी नहीं है। यही सबकी अन्तिम सीमा है और यही परम गति है परन्तु यहाँ भगवान् ने अर्थ, महत्तत्व और अव्यक्त को छोड़कर कहा है, इसका क्या अभिप्राय है?

उत्तर-भगवान् ने यहाँ इस प्रकरण का वर्णन सार रूप से किया है, इसलिये उन तीनों का नाम नहीं लिया; क्योंकि काम को मारने के लिये अर्थ, महत्तत्व और अव्यक्त की श्रेष्ठता बतलाने की कोई आवश्यकता नहीं, केवल आत्मा का ही महत्त्व दिखलाना है।

प्रश्न-कठोपनिषद् में इन्द्रियों की अपेक्षा अर्थों को पर यानी श्रेष्ठ कैसे बतलाया?

उत्तर-वहाँ ‘अर्थ’ शब्द का अभिप्राय पंचतन्मात्राएँ हैं। तन्मात्राएँ इन्द्रियों से सूक्ष्म हैं, इसलिये उनको पर कहना उचित ही है।

प्रश्न-यहाँ भगवान् ने इन्द्रियों की अपेक्षा मन को और मन की अपेक्षा बुद्धि को पर अर्थात् श्रेष्ठ, सूक्ष्म और बलवान् बतलाया है, किन्तु दूसरे अध्याय में कहा है कि ‘यज्ञ करने वाले बुद्धिमान् पुरुष के मन को भी प्रमथन स्वभाववाली इन्द्रियाँ बलात्कार से हर लेती हैं, तथा यह भी कहा है कि ‘विषयों में बिचरती हुई इन्द्रियों में से जिसके साथ मन रहता है, वह एक ही इन्द्रिय मनुष्य की बुद्धि को हर लेती है’। इन वचनों से मन की अपेक्षा इन्द्रियों की प्रबलता सिद्ध होती है और बुद्धि की अपेक्षा भी मन की सहायता से इन्द्रियों की प्रबलता सिद्ध होती है। इस प्रकार पूर्वापर में विरोध-सा प्रतीत होता है, इसका समाधान करना चाहिये? 
उत्तर-कठोपनिषद् में रथ के दृष्टान्त से यह विषय भलीभाँति समझाया गया है; वहाँ कहा है कि आत्मा रथी है, बुद्धि उसका सारथी है, शरीर रथ है, मन लगाम है, इन्द्रियाँ घोड़े हैं और शब्दादि विषय ही मार्ग है। यद्यपि वास्तव में रथी अधीन सारथी, सारथी के अधीन लगाम और लगाम के अधीन घोड़ों का होना ठीक ही है; तथापि जिसका बुद्धि रूप सारथी विवेक ज्ञान से सर्वथा शून्य है, मनरूप लगाम जिसकी नियमानुसार पकड़ी हुई नहीं है, ऐसे जीवात्मा रूप रथी के इन्द्रिय रूप घोड़े उच्छलंग होकर उसे दुष्ट घोड़ों की भाँति बलात्कार से उलटे (विषय) मार्ग ले जाकर गड्ढे में डाल देते है। इससे यह सिद्ध होता है कि जब तक बुद्धि, मन और इन्द्रियों पर जीवात्मा का आधिपत्य नहीं होता, वह अपने सामथ्र्य को भूलकर उनके अधीन हुआ रहता है, तभी तक इन्द्रियाँ मन और बुद्धि को धोखा देकर सबको बलात्कार से उलटे मार्ग में घसीटती हैं अर्थात् इन्द्रियाँ पहले मन को विषय सुख का प्रलोभन देकर उसे अपने अनुकूल बना लेती हैं और ये सब मिलकर आत्मा को भी अपने अधीन कर लेते हैं; परन्तु वास्तव में तो इन्द्रियों की अपेक्षा मन, मन की अपेक्षा बुद्धि और सबकी अपेक्षा आत्मा ही बलवान् है; इसलिये वहाँ (कठोपनिषद्) कहा है कि जिसका बुद्धि रूप सारथी विवेकशील है, मनरूप लगाम जिसकी नियमानुसार अपने अधीन है, उसके इन्द्रिय रूप घोड़े भी श्रेष्ठ घोड़ों की भाँति वश में होते हैं तथा ऐसे मन, बुद्धि और इन्द्रियों वाला पवित्रात्मा मनुष्य उस परम पद को पाता है, जहाँ जाकर वह वापस नहीं लौटता। गीता में भी जीते हुए मन, बद्धि और इन्द्रियों से युक्त अपने आत्मा को मित्र और बिना जीते हुए मन, बुद्धि और इन्द्रियों वाले को अपने शत्रु के समान बतलाया है। अतः बिना जीती हुई इन्द्रियाँ वास्तव में मन-बुद्धि की अपेक्षा निर्बल होती हुई भी प्रबल हुई रहती हैं, इस आशय से दूसरे अध्याय का कथन है और यहाँ उनकी वास्तविक स्थिति बतलायी गयी है। अतएव पूर्वापर में कोई विरोध नहीं है।
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