टूटा कौन? कौन जाने?
रामेश्वर मिश्र पंकज
देख नहीं पाती सच्चे पुरुषों का निस्सीम प्यार ,
और वंचित रह जाती हैं ऊष्मा की दीप्ति से।
कुछ सतत शंकालु बहने,
जान ही नहीं सकी पति का सहज उल्लास ।
कुछ के स्त्रीवाद ने उन्हें मंद दृष्टि बना डाला ,
जान ही नहीं पाई उदात्त हृदय का प्रफुल्लित वैभव।
राग की गहनता ,संयम की दृढ़ता।।
झींकती टोंकती स्त्रियों ने,
भ्रम में मान लिया ,
बांधने की उनकी शक्ति सफल हुई।
कभी जान ही नहीं पाई,
कि सोख डाला है उन्होंने पुरुष के भीतर के समुद्र को,अगस्त्य की तरह नहीं ,
निष्प्रयोजन ही ।कुढ़न की मारी।।
काल गति अबाधित है।
जन्म वृद्धि क्षय पुनर्जन्म की ,
अप्रतिहत धारा में
कौन कब किसे रोक पाई हैं।
रच पाती हैं बस निरानंद भ्रम
पुरुष के अहं को तोड़ ही डालने का।
टूटा कौन ?
कौन जाने?
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