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कर्मों के बंधन में न बंधने वाला नित्यतृप्त

कर्मों के बंधन में न बंधने वाला नित्यतृप्त

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
प्रश्न-‘कर्मणि अभिप्रवृत्तः अपि न एव किंचित्करोतिसः’ इस वाक्य में ‘अभि’ उपसर्ग के तथा ‘अपि’ और ‘एव’ अव्ययों के प्रयोग का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-‘अभि’ उपसर्ग से यह बात दिखलायी गयी है कि ऐसा मनुष्य भी अपने वर्णाश्रम के अनुसार शास्त्र विहित सब प्रकार के कर्म भलीभाँति सावधानी और विवेक के सहित विस्तारपूर्वक कर सकता है। ‘अपि’ अव्यय से यह भाव दिखलाया गया है कि ममता, अहंकार और फलासक्तियुक्त मनुष्य तो कर्मों का स्वरूप से त्याग करके भी कर्मबन्धन से मुक्त नहीं हो सकता और यह नित्यतृप्त पुरुष समस्त कर्मों को करता हुआ भी उनके बन्धन में नहीं पड़ता तथा ‘एव’ अव्यय से यह भाव दिखलाया गया है कि उन कर्मों से उसका जरा भी सम्बन्ध नहीं रहता। अतः वह समस्त कर्म करता हुआ भी वास्तव में अकर्ता ही बना रहता है।
इस प्रकार यह बात स्पष्ट कर दी गयी है कि कर्म के अकर्म और अकर्म में कर्म देखने वाले मुक्त पुरुष के लिये उसके पूर्ण काम हो जाने के कारण कोई भी कर्तव्य शेष नहीं रहता; उसे किसी भी वस्तु की, किसी रूप में भी आवश्यकता नहीं रहती। अतएव वह जो कुछ कर्म करता है या किसी क्रिया से उपरत हो जाता है, सब शास्त्र सम्मत और बिना आसक्ति के केवल लोकसंग्रहार्थ ही करता है; इसलिये उसके कर्म वास्तव में ‘कर्म’ नहीं होते।

निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः।

शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्रोन्नति किल्विषम्।। 21।।

प्रश्न-‘निराशीः’, ‘यतचित्तात्मा और ‘त्यक्तसर्वपरिग्रह‘’-इन तीन विशेषणों के प्रयोग का यहाँ क्या अभिप्राय है?

उत्तर-जिस मनुष्य को किसी भी सांसारिक वस्तु की कुछ भी आवश्यकता नहीं है, जो किसी भी कर्म से या मनुष्य से किसी प्रकार के भोग-प्राप्ति की किंचितमात्र भी आशा या इच्छा नहीं रखता; जिसने सब प्रकार की इच्छा, कामना, वासना आदि का सर्वथा त्याग कर दिया है-उसे ‘निराशीः’ कहते हैं; जिसका अन्तःकरण और समस्त इन्द्रियों सहित शरीर वश में है-अर्थात् जिसके मन और इन्द्रिय राग-द्वेष से रहित हो जाने के कारण उन पर शब्दादि विषयों के संग का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ सकता और जिसका किसी भी वस्तु में ममता नहीं है तथा जिसने समस्त भोग सामग्रियों के संग्रह का भलीभाँति त्याग कर दिया है, वह संन्यासी तो सर्वथा ‘त्यक्तसर्वपरिग्रह’ ही है। इसके सिवा जो कोई दूसरे आश्रम वाला भी यदि उपर्युक्त प्रकार से परिग्रह का त्याग कर देने वाला है तो वह भी ‘त्यक्तसर्वपरिग्रह’ है।इन तीनों विशेषणों का प्रयोग करके इस श्लोक में यह भाव दिखलाया गया है कि जो इस प्रकार बाह्य वस्तुओं से सम्बन्ध न रखकर निरन्तर अन्तरात्मा में ही सन्तुष्ट रहता है, वह सांख्य योगी यदि यज्ञ-दानादि कर्मों का अनुष्ठान न करके केवल शरीर सम्बन्धी खान-पान आदि कर्म ही करता है, तो भी वह पाप का भागी नहीं होता। क्योंकि उसका वह त्याग आसक्ति या फल की इच्छा से अथवा अहंकार पूर्वक मोह से किया हुआ नहीं है; वह तो आसक्ति, फलेच्छा और अहंकार से रहित सर्वथा शास्त्र सम्मत त्याग है, अतएव सब प्रकार से संसार का हित करने वाला है।

प्रश्न-यहाँ ‘शारीरम्’ और ‘केवलम’ विशेषणों के सहित ‘कर्म’ पद कौन-से कर्मों का वाचक है और ‘किल्विषाम्’ पद किसका वाचक है तथा उसको प्राप्त न होना क्या है?

उत्तर-‘शारीरम्’ और ‘केवलम्’ विशेषणों के सहित ‘कर्म’ पद यहाँ शौच-स्नान, खान-पान और शयन आदि केवल शरीर निर्वाह से समबन्ध रखने वाली क्रियाओं का वाचक है तथा ‘किल्विषम्’ पद यहाँ यज्ञदानादि विहित कर्र्माें के त्याग से होने वाले प्रत्यवाय-पाप का तथा शरीर निर्वाह के लिये की जाने वाली क्रियाओं में होने वाले अनिवार्य ‘हिंसा’ आदि पापों का वाचक है। उपर्युक्त पुरुष को न तो यज्ञादि कर्मों के अनुष्ठान न करने से होने वाला प्रत्यवायरूप पाप लगता है और न शरीर निर्वाह के लिये की जाने वाली क्रियाओं में होने वाले पापों से ही उसका सम्बन्ध होता है; यही उसका ‘किल्विष’ को प्राप्त न होना है।

यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो बिमत्सरः।

समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते।। 22।।

प्रश्न-‘यदृच्छालाभ’ क्या है और उसमें सन्तुष्ट रहना क्या है?

उत्तर-अनिच्छा से या परेच्छा से प्रारब्धानुसार जो अनुकूल या प्रतिकूल पदार्थ की प्राप्ति होती है, वह ‘यदृच्छालाभ’ है; इस ‘यदृच्छालाभ में सदा ही आनन्द मानना, न किसी अनुकूल पदार्थ की प्राप्ति होने पर उसमें राग करना, उसके बने रहने या बढ़ने की इच्छा करना और न प्रतिकूल की प्राप्ति में द्वेष करना, उसके नष्ट हो जाने की इच्छा करना और दोनों को ही प्रारब्ध या भगवान् का विधान समझकर निरन्तर शान्त और प्रसन्नचित्त रहना-यही यदृच्छालाभ’ में सदा सन्तुष्ट रहना है।

प्रश्न-‘विमत्सरः’ का क्या भाव है और इसका प्रयोग यहाँ किसलिये किया गया है?

उत्तर-विद्या, बुद्धि, धन, मान, बड़ाई या अन्य किसी भी वस्तु या गुण के सम्बन्ध से दूसरों की उन्नति देखकर जो ईष्र्या (डाह) का भाव होता है-इस विकार का नाम ‘मत्सरता’ है; उसका जिसमें सर्वथा अभाव हो गया हो, वह ‘विमत्सर’ है। अपने को विद्वान और बुद्धिमान् समझने वालों में भी ईष्र्या का दोष छिपा रहता है; जिनमें मनुष्य का प्रेम होता है, ऐसे अपने मित्र और कुटुम्बियों के साथ भी ईष्र्या का भाव हो जाता है। इसलिये ‘विमत्सरः’ विशेषण का प्रयोग करके यहाँ कर्मयोगी में हर्ष-शोकादि विकारों से अलग ईष्र्या के दोष का भी अभाव दिखलाया गया है।

प्रश्न-द्वन्द्वों से अतीत होना क्या है? 
उत्तर-हर्ष-शोक और राग-द्वेष आदि युग्म विकारों का नाम द्वन्द्व है; उनसे सम्बन्ध न रखना अर्थात् इस प्रकार के विकारों का अन्तःकरण में न रहना ही उनसे अतीत हो जाना है।
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