कृष्ण ने अर्जुन को बताया महाबाहो

कृष्ण ने अर्जुन को बताया महाबाहो

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

प्रश्न-यहाँ ‘परतः’ पद का अर्थ ‘अत्यन्त पर’ किया गया है; इसका क्या अभिप्राय है?

उत्तर-कठोपनिषद् में जहाँ यह विषय आया है, वहाँ बुद्धि से पर महत्तत्व को, उससे पर अव्यक्त को और अव्यक्त से भी पर पुरुष को बतलाया गया है तथा यह भी कहा गया है कि यही पराकाष्ठा है-परत्व की अन्तिम अवधि है, इससे पर कुछ भी नहीं है। उसी श्रुति के भाव को स्पष्ट दिखलाने के लिये यहाँ ‘परतः’ का ‘अत्यन्त पर’ अर्थ किया गया है। आत्मा सबका आधार, कारण, प्रकाशक और प्रेरक तथा सूक्ष्म, व्यापक, श्रेष्ठ और बलवान् होने के कारण उसे ‘अत्यन्त पर’ कहना उचित ही है।

प्रश्न-यहाँ ‘काम’ का प्रकरण चल रहा है। अगले श्लोक में भी काम को मारने के लिये भगवान् कहते हैं। अतः इस श्लोक में आया हुआ ‘सः‘ काम का वाचक मान लिया जाय तो क्या हानि है?

उत्तर-यहाँ काम को मारने का प्रकरण अवश्य है, परन्तु उसे श्रेष्ठ बतलाने का प्रकरण नहीं है। उसे मारने की शक्ति आत्मा मेें मौजूद है। मनुष्य यदि अपने आत्मबल को समझ जाय तो वह बुद्धि, मन और इन्द्रियों पर सहज ही अपना पूर्ण अधिकार स्थापित करके काम को मार सकता है, इस बात को समझाने के लिये इस श्लोक की प्रवृत्ति हुई है। यदि इन्द्रिय, मन और बुद्धि से ‘काम’ को अत्यन्त श्रेष्ठ माना जायगा तो उनके द्वारा काम को मारने के लिये कहना ही असंगत होगा। इसके सिवा ‘सः’ पद का अर्थ काम मानना कठोपनिषद् के वर्णन से भी विरुद्ध पड़ेगा। अतः यहाँ ‘सः‘ पद काम का वाचक नहीं है, किन्तु दूसरे अध्याय में जिसका लक्ष्य करके कहा है कि ‘रसोऽप्यस्य परं दृष्टा निवर्तते’ उस परतत्व का अर्थात् नित्य शुद्ध-बुद्ध स्वरूप परमात्मा का ही वाचक है।

एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।

जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।। 43।।

प्रश्न-यहाँ बुद्धि से पर आत्मा को समझकर काम को मारने के लिये कहने का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-मनुष्यों का ज्ञान अनादिकाल से अज्ञान द्वारा आवृत हो रहा है; इस कारण वे अपने आत्म स्वरूप को भूले हुए हैं, स्वयं सबसे श्रेष्ठ होते हुए भी अपनी शक्ति को भूलकर कामरूप वैरी के वश में हो रहे हैं। लोक प्रसिद्धि से और शास्त्रों द्वारा सुनकर भी लोग आत्मा को वास्तव में सबसे श्रेष्ठ नहीं मानते; यदि आत्मस्वरूप को भलीभाँति समझ लें तो रागरूप काम का सहज ही नाश हो जाय। अतएव आत्मस्वरूप को समझना ही इसे मारने का प्रधान उपाय है। इसीलिये भगवान् ने आत्मा को बुद्धि से भी अत्यन्त बहुत ही गूढ़ कहा है। महापुरुषों द्वारा समझाये जाने पर कोई सूक्ष्मदर्शी मनुष्य ही इसे समझ सकता है। कठोपनिषद् में कहा है कि ‘सब भूतों के अंदर छिपा हुआ यह आत्मा उनके प्रत्यक्ष नहीं होता, केवल सूक्ष्मदर्शी पुरुष ही अत्यन्त तीक्ष्ण और सूक्ष्म बुद्धि द्वारा इसे प्रत्यक्ष कर सकते हैं।’

प्रश्न-यहाँ ‘आत्मानम्’ का अर्थ मन और ‘आत्मना’ का अर्थ ‘बुद्धि’ किस कारण से किया गया है?

उत्तर-शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि और जीव-इन सभी का वाचक आत्मा है। उनमें से सर्व प्रथम इन्द्रियों को वश में करने के लिए इकतालीसवें श्लोक में कहा जा चुका है। शरीर इन्द्रियों के अन्तर्गत आ ही गया, जीवात्मा स्वयं वश में करने वाला है। अब बचे मन और बुद्धि, बुद्धि को मन से बलवान कहा है; अतः इसके द्वारा मन को वश में किया जा सकता है। इसीलिये ‘आत्मानम्’ का अर्थ ‘मन’ और ‘आत्मना’ का अर्थ ‘बुद्धि’ किया गया है।

प्रश्न-बुद्धि के द्वारा मन को वश में करने की क्या रीति है?

उत्तर-भगवान् ने छठे अध्याय में मन को वश में करने के लिये अभ्यास और वैराग्य-ये दो उपाय बतलाये हैं। प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में मनुष्य का स्वाभाविक राग-द्वेष रहता है, विषयों के साथ इन्द्रियों का सम्बन्ध होते समय जब-जब राग-द्वेष का अवसर आवे तब-तब बड़ी सावधानी के साथ बुद्धि से विचार करते हुए राग-द्वेष के वश में न होने की चेष्टा रखने से शनैः-शनैः राग-द्वेष कम होते चले जाते हैं। यहाँ बुद्धि विचार कर इन्द्रियों के भोगों में दुःख और दोषों का बार-बार दर्शन कराकर मन की उनमें अरुचि उत्पन्न कराना वैराग्य है और व्यवहार काल में स्वार्थ के त्याग की और ध्यान के समय मन को परमेश्वर के चिन्तन में लगाने की चेष्टा रखना और मन को भोगों की प्रवृ़ित्त से हटाकर परमेश्वर के चिन्तन में बार-बार नियुक्त करना अभ्यास है।

प्रश्न-जबकि आत्मा स्वयं सबसे प्रबल है तब बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके काम को मारने के लिये भगवान् ने कैसे कहा? आत्मा स्वयं ही कामरूप महान् वैरी को मार सकता है।

उत्तर-अवश्य ही आत्मा में अनन्त बल है, वह काम को मार सकता है। वस्तुतः उसी के बल को पाकर सब बलवान् और क्रियाशील होते है; परन्तु वह अपने महान् बल को भूल रहा है और जैसे प्रबल शक्तिशाली सम्राट् अज्ञानवश अपने बल को भूलकर अपनी अपेक्षा सर्वथा बलहीन क्षुद्र नौकर-चाकरों के अधीन होकर उनकी हाँ-में-हाँ मिला देता है, वैसे ही आत्मा भी अपने को बुद्धि, मन और इन्द्रियों के अधीन मानकर उनके काम प्रेरित उच्छंलगतापूर्ण मनमाने कार्यों में मूक अनुमति दे रहा है। इसी से उन बुद्धि, और इन्द्रियों के अन्दर छिपा हुआ काम जीवात्मा को विषयों का प्रलोभन देकर उसे संसार में फँसाता रहता है। यदि आत्मा अपने स्वरूप को समझकर, अपनी शक्ति को पहचानकर बुद्धि, मन और इन्द्रियों को रोक ले, उन्हें मनमाना कार्य करने की अनुमति न दे और चोर की तरह बसे हुए काम को निकाल बाहर करने के लिये बलपूर्वक आज्ञा दे दे, तो न बुद्धि, मन और इन्द्रियों की शक्ति है कि वे कुछ कर सकें और न काम में ही सामथ्र्य है कि वह क्षण भर के लिये भी वहाँ टिक सके। सचमुच यह आश्चर्य ही है कि आत्मा से ही सत्ता, स्फूर्ति और शक्ति पाकर, उसी के बल से बलवान् होकर ये सब उसी को दबाये हुए हैं और मनमानी कर रहे हैं। अतएव यह आवश्यक है कि आत्मा अपने स्वरूप को अपनी शक्ति को पहचानकर बुद्धि, मन और इन्द्रियों को वश में करे। काम इन्हीं में बसता है और ये उच्छलंग हो रहे हैं। इनको वश में कर लेने पर काम सहज ही मर सकता है। काम को मारने का वस्तुतः अक्रिय आत्मा के लिये यही तरीका है। इसीलिये बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके काम को मारने के लिये कहा गया है।

प्रश्न-कामरूप वैरी को दुर्जय बतलाने का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-वस्तुतः काम में कोई बल नहीं है। यह आत्मा के बल से बलवान् हुए बुद्धि, मन और इन्द्रियों में रहने के लिये जगह पा जाने के कारण ही उनके बल से बलवान् हो गया है तथा जब तक बुद्धि, मन और इन्द्रिय अपने वश में नहीं हो जाते? तब तक उनके द्वारा आत्मा का बल काम को प्राप्त होता रहता है। इसीलिये काम अत्यन्त प्रबल माना जाता है और इसीलिये उसे ‘दुर्जय’ कहा गया है; परन्तु काम का यह दुर्जयत्व तभी तक है जब तक आत्मा अपने स्वरूप को पहचान कर बुद्धि, मन और इन्द्रिय को अपने वश में न कर ले।

प्रश्न-यहाँ ‘महाबाहो’ सम्बोधन किस अभिप्राय से दिया गया है?

उत्तर-‘महाबाहु’ शब्द बड़ी भुजा वाले बलवान् का वाचक है और यह शौर्य सूूचक शब्द है। भगवान् श्रीकृष्ण काम को ‘दुर्जय’ बतलाकर उसे मारने की आज्ञा देते हुए अर्जुन को ‘महाबाहो’ नाम से सम्बोधित कर आत्मा के अनन्त बल की याद दिला रहे हैं और साथ ही यह भी सूचित कर रहे हैं कि ‘समस्त अनन्ताचिन्त्य-दिव्य शक्तियों का अनन्त भाण्डार मैं,-जिसकी शक्ति का क्षुद्र-सा अंश पाकर देवता और लोकपाल समस्त विश्व का संचालन करते हैं और जिसकी शक्ति के करोड़वें कलांश-भाग को पाकर जीवन अनन्त शक्ति वाला बन सकता है-वह स्वयं मैं जब तुम्हें काम को मारने में समर्थ शक्ति सम्पन्न मानकर आज्ञा दे रहा हूँ तब काम कितना ही दुर्जय और दुर्घर्ष वैरी क्यों न हो, तुम बड़ी आसानी से उसे मारकर उस पर विजय प्राप्त कर सकते हो।’ इसी अभिप्राय से यह सम्बोधन दिया गया है।
हमारे खबरों को शेयर करना न भूलें| हमारे यूटूब चैनल से अवश्य जुड़ें https://www.youtube.com/divyarashminews https://www.facebook.com/divyarashmimag

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ