भारत को रोकने की अमेरिकी कोशिश:-मनोज कुमार मिश्र

भारत को रोकने की अमेरिकी कोशिश:-मनोज कुमार मिश्र

लेखक मनोज मिश्र इंडियन बैंक के अधिकारी है|

विश्व में भारत के बढ़ते कदमों को रोकने के लिए अमेरिका चिंतित हो उठा है। अगर हम अपने पिछले 70 सालों का इतिहास देखें तो अमेरिका कभी भी हमारा मित्र नहीं रहा है हाँ व्यापारिक भागीदार अवश्य रहा है। दरअसल वैश्विक अर्थव्यवस्था के इस दौर में किसी दूसरे देश का बाजार तो अमेरिका चाहता है पर अपने हितों को साधने के लिए देशों को अडोस पड़ोस में उलझा कर भी रखना चाहता है ताकि उसकी चौधराहट बनी रहे। अमरीका का डीप स्टेट जिसका अर्थ उसकी जासूसी एजेंसियाँ, उसकी
कार्यपालिका (ब्यूरोक्रेसी), इसके उच्च शिक्षा संस्थान, इसके मानवाधिकार NGO और इसकी मीडिया सभी यह चाहते हैं कि भारत कभी स्थिर न हो सके। यहां हमेशा उथल पुथल बनी रहे ताकि देश को आगे बढ़ाने का काम न हो सके। मजे की बात देखिए अमेरिकी मीडिया चाहे वो न्यू यॉर्क टाइम्स हो टाइम पत्रिका, वाल स्ट्रीट जर्नल हो या इसके उच्च शिक्षा संस्थान जैसे परड्यू यूनिवर्सिटी, हावर्ड यूनिवर्सिटी सभी भारत विरोधी कार्य में संलग्न हैं। ये भारत में हुए किसी अत्याचार की पहले काल्पनिक समाचार बनाते हैं अगर सचमुच् में हुआ हो तो उसे जंगल मे आग की तरह बढ़ाते हैं। इसके लिए सोशल इंफ्लुएंसर्स को लगाते हैं उन्हें अच्छा पैसा देते हैं ताकि सरकार विरोधी माहौल बन सके। काल्पनिक और वास्तविक भी मानवाधिकार उल्लंघन, धार्मिक स्वतंत्रता का हनन इनके दृष्टिकोण का सबसे मज़बूत हथियार होता है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स इसी मानसिकता का एक ज्वलंत उदाहरण है। भारतीय समाज के ऐसे लोग जो समाज मे स्थान रखते हैं पर वर्तमान सरकार से नाराज़ हैं इनके हाथों में खिलोने बन जाते हैं। अगली पीढ़ी में सरकार का विरोध होता रहे इसके लिए ये यूनिवर्सिटी के छात्रों को चुनते हैं जहां जोश ज्यादा और होश कम होता है। जहां मार्क्सवाद और कम्युनिस्ट जवानी के आदर्श होते हैं। यहां इनका काम सरल हो जाता है और ये समाज को विभाजक रेखाओं में बांट देते हैं। राजीव मल्होत्रा ने गंगा डाक्यूमेंट्स में इसेअच्छे तरह से रेखांकित किया है कि किस प्रकार भारतीय हितों को भारतीय ही नुकसान पहुंचा रहे हैं। अमेरिकी जानते हैं कि अमेरिका में काम करना भारतीय मध्यम वर्ग का सपना होता है और इसके लिए कह कुछ भी कर सकता है।
भारत के व्यापारिक संस्थानों पर भी दबाव डाला जाता है कि वे ऐसे न्यूज़ पोर्टल द वायर जैसे और भारत विरोधी लेकिन भारतीय ताकतों को मंच मुहैय्या कराएं। अगर आप ध्यान दें तो पाएंगे कि टाटा, विप्रो, इंफोसिस, टीसीएस और टेक महिंद्रा जैसी कंपनियों ने इन भारत विरोधी पत्र पत्रिकाओं चाहे वो डिजिटल हों या भौतिक को फण्ड उपलब्ध कराने का काम नियमित रूप से किया है और कर रहे हैं। वे इन्हें इनके अमेरिकी कंपनियों के बोर्ड में भी नियुक्त कराते हैं। अमेरिका का हारवर्ड विश्वविद्यालय भारत विरोधी, भारत के टुकड़े टुकड़े करने वाले थीम का बड़ा समर्थक है। ऐसे सारे तत्वों को क्रिस्चियन मिशनरीज और उससे जुड़े संगठन लगातार बढ़ावा देते हैं साथ ही ये अमेरिकी इस्लामिक लॉबी से भी समर्थन पाते हैं। जिनका एक ही काम रहता है कि किस प्रकार भारत और विशेषकर हिंदुओं को नीचा दिखाया जाय और अपशब्द कहे जाएं।
बहुत सारे भारतीय ये मानते हैं कि अमेरिका के पास भारत को समर्थन के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं है क्योंकि उसे चीन को अंकुश में रखना है। पर अमेरिका उस तरह का दोस्त किसी का नहीं रहा है।अमेरिकी विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर जो चीन की तरफ झुकाव की नीति के रचयिता थे, ने 1970 में कहा था- अमेरिका का शत्रु होना खतरनाक है पर उसका मित्र होना मरने जैसा ही है। आप आज की परिस्थितियों में उसके मित्र देशों की स्थिति देख लीजिए। जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन सहित सभी नाटो देश जो यूक्रेन को रूस के साथ युद्ध में मदद कर रहे हैं आर्थिक दिवालियापन के कगार पर हैं। वहीं अमेरिका अपने हथियार बेचे जा रहा है, भले ही उसकी कीमत अभी उसे न मिली हो पर भविष्य में वह यूक्रेन की गर्दन मरोड़कर भी इसे वसूलेगा।
भारत की अमेरिका के साथ खटमिट्ठी दोस्ती है। जहां एक ओर वह अमेरिका के साथ टेक व्यापार में सबसे आगे है वहीं उसे पाकिस्तान को मिल रहे F16 की नई खेप को भी सहन करना पड़ रहा है। भारत को अभी अमेरिका के मन मुताबिक चलने की कवायद में बहुत से पापड़ बेलने हैं। अब सवाल यह है कि आखिर अमेरिकी अर्थव्यवस्था कैसे इसे झेल पा रही है। जबाब है पेट्रोडॉलर। विश्व का सारा तेल व्यापार डॉलर में होता है और यही डॉलर की मजबूती के कारण है। चूंकि यूक्रेन जिन हथियारों को खरीद रहा है उनका भुगतान अभी नहीं कर पा रहा है इसलिए अमेरिकी प्रशासन हथियार निर्माताओं को भुगतान कर रहा है। चूंकि अमेरिका के पास भी इतने पैसे नहीं हैं तो वह ज्यादा डॉलर छाप रहा है ताकि ट्रेड डेफिसिट को काबू किया जा सके। उसे पता है कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में डॉलर की हैसियत के कारण यह मुद्रा गिरेगी नहीं और इस प्रकार उनकी अर्थव्यवस्था डूबने से बच जाएगी। इस चक्रव्यूह को तोड़ने का एक ही उपाय है किसी प्रकार डॉलर को कमजोर किया जाए। प्रयास शुरू हो चुके हैं। रूस ने डॉलर पर अपनी निर्भरता पूर्ण समाप्त कर दी है। भारत अन्य देशों के साथ व्यापार में भारतीय मुद्रा पर जोर दे रहा है। साथ ही भारत अपनी मुद्रा के असामूल्यां को रोकने के लिए सोना खरीद रहा है। हाल में ही भारत ने 200 टन सोना UAE से खरीदा है। दक्षिण पूर्वी एशियाई देश और अफ्रीका अब इस मामले में ज्यादा मुखर हैं। याद कीजिये लीबिया के कर्नल गद्दाफी, इराक के सद्दाम हुसैन वेनेज़ुएला के ह्यूगो चावेज सभी ने अपनी मुद्रा को गोल्ड से जोड़ना चाहा। कुछ मिटा दिए गए कुछ की अर्थव्यवस्था का भट्ठा बैठा दिया गया। पर दुनिया अब इस खतरे से रूबरू है और विश्व मे अमेरिकी चौधराहट के दिन अब गिनती के ही बचे हैं।-संकलन और विवेचना -मनोज कुमार मिश्र
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