जब तक शरीर, तब तक कर्म

जब तक शरीर, तब तक कर्म

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

न हि कश्त्क्षिणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।

कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।। 5।।

प्रश्न-कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षण मात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता, इस वाक्य का क्या भाव है?

उत्तर-इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि उठना, बैठना, खाना, पीना, सोना, जागना, सोचना, मनन करना, स्वप्न देखना, ध्यान करना और समाधिस्थ होना-ये सब-के-सब कर्म के अन्तर्गत हैं। इसलिये जब तक शरीर रहता है, तब तक मनुष्य की अपनी प्रकृति के अनुसार कुछ- न-कुछ कर्म करता ही रहता है। कोई भी मनुष्य क्षण भर भी कभी स्वरूप से कर्मों का त्याग नहीं कर सकता। अतः उनमें कर्तापन का त्याग कर देना या ममता, आसक्ति और फलेच्छा का त्याग कर देना ही उनका सर्वथा त्याग कर देना है।

प्रश्न-यहाँ ‘कश्चित्’ पद में गुणातीत ज्ञानी पुरुष भी सम्मिलित है या नहीं?

उत्तर-गुणातीत ज्ञानी पुरुष का गुणों से या उनके कार्य से कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता; अतः वह गुणों के वश में होकर कर्म करता है, यह कहना नहीं बन सकता। इसलिये गुणातीत ज्ञानी पुरुष ‘कश्चित’ पद के अन्तर्गत नहीं आता। तथापि मन, बुद्धि और इन्द्रिय आदि का संगत रूप जो उसका शरीर लोगों की दृष्टि में वर्तमान है, उसके द्वारा उसके और लोगों के प्रारब्धानुसार नाममात्र के कर्म तो होते ही है; किन्तु कर्तापन का अभाव होने के कारण वे कर्म वास्तव में कर्म नहीं हैं। हाँ उसके मन, बुद्धि और इन्द्रिय आदि के संगत को ‘कश्चित’ के अन्तर्गत मान लेने में कोई आप़ित्त नहीं है; क्योंकि वह गुणों का कार्य होने से गुणों से अतीत नहीं है, बल्कि उस शरीर से सर्वथा अतीत हो जाना ही ज्ञानी का गुणातीत हो जाना है।

प्रश्न-‘सर्वः’ पद किनका वाचक है; और उनका गुणों के वश में होकर कर्म करने के लिये बाध्य होना क्या है?

उत्तर-‘सर्वः’ पद समस्त प्राणियों का वाचक होते हुए भी यहाँ उसे खास तौर पर मनुष्य समुदाय का वाचक समझना चाहिये; क्योंकि कर्मों में मनुष्य का ही अधिकार है और पूर्वजन्मों के किये हुए कर्मों के संस्कार जनित स्वभाव के परवश होकर जो कर्मों में प्रवृत्त होना है, यही गुणों के वश होकर कर्म करने के लिये बाध्य होना है।

प्रश्न-‘गुणैः’ पद के साथ ‘प्रकृतिजैः’ विशेषण देने का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-सांख्यशास्त्र में गुणों की साम्यावस्था का नाम प्रकृति माना गया है, परन्तु भगवान् के मत में तीनों गुण प्रकृति के कार्य हैं-इस बात को स्पष्ट करने के लिये ही भगवान् ने यहाँ ‘गुणैः’ पद के साथ ‘प्रकृतिजैः’ विशेषण दिया है। इसी तरह कहीं ‘प्रकृति सम्भवान् कहीं ‘प्रकृतिज्ञान्’, कहीं ‘प्रकृति सम्भवाः’ और कहीं ‘प्रकृतिजैः’ विशेषण देकर अन्यत्र भी जगह-जगह गुणों को प्रकृति का कार्य बतलाया है।

प्रश्न-यहाँ प्रकृति’ शब्द किसका वाचक है?

उत्तर-समस्त गुणों और विकारों के समुदाय रूप इस जड़ दृश्य-जगत् की कारण भूता जो भगवान् की अनादि सिद्ध मूल प्रकृति है-जिसको अव्यक्त, अव्याकृत भी कहते हैं-उसी का वाचक यहाँ ‘प्रकृति’ शब्द है।

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।

इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।। 6।।

प्रश्न-यहाँ ‘कर्मेन्द्रियाणि’ पद किन इन्द्रियों का वाचक है और उनका हठपूर्वक रोकना क्या है?

उत्तर-यहाँ ‘कर्मेन्द्रियाणि पद का पारिभाषिक अर्थ नहीं है; इसलिये जिनके द्वारा मनुष्य बाहर की क्रिया करता है अर्थात् शब्दादि विषयों को ग्रहण करता है, उन श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, रसना और प्राण तथा वाणी, हाथ, पैर, उपस्थ और गुदा-इन दसों इन्द्रियों का वाचक है; क्योंकि गीता में श्रोत्रादि पाँच इन्द्रियों के लिये कहीं भी ‘ज्ञानेन्द्रिय’ शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। इसके सिवा यहाँ कर्मेन्द्रियों का अर्थ केवल वाणी आदि पाँच इन्द्रियाँ मान लेने से श्रोत्र और नेत्र आदि इन्द्रियों को रोकने की बात शेष रह जाती है और उसके रह जाने से मिथ्याचारी का स्वाँग भी पूरा नहीं बनता; तथा वाणी आदि इन्द्रियों को रोककर श्रोत्रादि इन्द्रियों के द्वारा वह क्या करता है, यह बात भी यहाँ बतलानी आवश्यक हो जाती है। किन्तु भगवान् ने वैसी कोई बात नहीं कही है; एवं अगले श्लोक में भी कर्मेन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करने के लिये कहा है, परन्तु केवल वाणी आदि कर्मेन्दियों द्वारा कर्मयोग का आचरण नहीं हो सकता। उसमें सभी इन्द्रियों की आवश्यकता है। इसीलिये यहाँ ‘कर्मन्द्रियाणि’ पद को जिनके द्वारा कर्म किये जायँ, ऐसी सभी इन्द्रियों का वाचक मानना ठीक है और हठ से सुनना, देखना आदि क्रियाओं को रोक देना ही उनको हठपूर्वक रोकना है।

प्रश्न-यदि कोई साधक भगवान् का ध्यान करने के लिये या इन्द्रियों को वश में करने के लिये हठ से इन्द्रियों को विषयों से रोकने की चेष्टा करता है और उस समय उसका मन वश में न होने के कारण उसके द्वारा विषयों का चिन्तन होता है, तो क्या वह भी मिथ्याचारी है?

उत्तर-वह मिथ्याचारी नहीं है, वह तो साधक है; क्योंकि मिथ्याचारी की भाँति मन से विषयों का चिन्तन करना उसका उद्देश्य नहीं है। वह तो मन को भी रोकना ही चाहता है; पर आदत, आसक्ति और संस्कार वश उसका मन जबरदस्ती विषयों की ओर चला जाता है। अतः उसमें उसका कोई दोष नहीं है, आरम्भ काल में ऐसा होना स्वाभाविक है।

प्रश्न-यहाँ ‘संयम्य’ पद का अर्थ ‘वश में कर लेना’ मान लिया जाय तो क्या हानि है?

उत्तर-इन्द्रियों को वश में कर लेने वाला मिथ्याचारी नहीं होता, क्योंकि इन्द्र्रियों को वश में कर लेना तो योग का अंग है। इसलिये यहाँ ‘संयम्य’ का अर्थ जो ऊपर किया गया है, वही ठीक है।

प्रश्न-‘इन्द्रियार्थान्’ पद किनका वाचक है?

उत्तर-दसों इन्द्रियों के शब्दादि समस्त विषयों का वाचक यहाँ ‘इन्द्रियार्थान्’ पद है। अध्याय पाँच श्लोक नवें में भी इसी अर्थ में ‘इन्द्रियाथेंषु’ पद का प्रयोग हुआ है।

प्रश्न-यह मिथ्याचारी कहलाता है, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर-इससे यह दिखलाया गया है कि उपर्युक्त प्रकार से इन्द्रियों को रोकने वाला मनुष्य मछलियों को धोखा देने के लिये स्थिर भाव से खड़े रहने वाले कपटी बगुले की भाँति बाहर से दूसरा ही भाव दिखलाता है और मन में दूसरा ही भाव रखता है; अतः उसका आचरण मिथ्या होने से वह मिथ्याचारी है।
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