वह बुड्ढा नीम

वह बुड्ढा नीम

जो तपस्वी सा खड़ा अचल वो बुड्ढा नीम।
जर्जर सी हवेली हुई डगमग हो रही नींव।


यादों के झरोखों में झलक आए सावन सारे।
ठाठ बाट हवेली के वो दिन थे कितने प्यारे।


हाथी घोड़े ऊंट होते भावों की बयार बहती।
आपस में प्रेम कितना प्यार की गंगा रहती।


आस-पड़ोस सारा उमड़ आता ठंडी छांव में।
धाक आलीशान हवेली की होती पूरे गांव में।


कैसा जमाना था वो क्या अलबेले लोग थे।
महकता घर आंगन सारा सुखद संयोग थे।


सुहानी हवाएं बहती दिल भी सबका साफ था।
होठों से झरते बोल मीठे नाही कोई संताप था।


खड़ा-खड़ा नीम अब भी कड़ी साधना में लीन है।
बदलावों की बयार चली जन अर्थ में तल्लीन है।


पैसा कमाया मानव दिलों का प्रेम टूटा है।
भुला सब रिश्ते नाते बहुत कुछ छोटा है।


रमाकांत सोनी सुदर्शन नवलगढ़ जिला झुंझुनू राजस्थान
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