अर्जुन को महाबाहु का बताया महत्व

अर्जुन को महाबाहु का बताया महत्व

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

प्रश्न-यहाँ ‘यत्’ और ‘तत’ का सम्बन्ध ‘मन’ के साथ क्यों न माना जाय?

उत्तर-यहाँ ‘इन्द्रियाणाम्’ पद में निर्धारणे षष्ठी है, अतः इन्द्रियों में से जिस एक इन्द्रिय के साथ मन रहता है, उसी के साथ ‘यत्‘ पद का सम्बन्ध मानना उचित है। और ‘यत्‘-‘तत्‘ का नित्य सम्बन्ध है, अतः ‘तत्’ का सम्बन्ध भी इन्द्रिय के साथ ही होगा। ‘अनु विधीयते’ में ‘अनु’ उपसर्ग नहीं, कर्म प्रवचनीयसंज्ञक अव्यय है, अतः उसके योग में ‘यत’ में द्वितीया विभक्ति हुई है और कर्म-कर्तृ-कर्त प्रक्रिया के अनुसार ‘विधीयते’ का कर्मभूत ‘मनः’ पद ही कर्ता के रूप में प्रयुक्त हुआ है। इसके अतिरिक्त अगले श्लोक में ‘तस्मात्’ पद का प्रयोग करके इन्द्रियों को वश में करने वाले की बुद्धि स्थिर बतलायी गयी है, इसलिये भी यहाँ ‘यत्’ और ‘तत्’ पदों का इन्द्रिय के साथ ही सम्बन्ध मानना अधिक युक्तिसंगत मालूम होता है।

प्रश्न-अकेला मन या अकेली इन्द्रिय बुद्धि के हरण करने में समर्थ है या नहीं?

उत्तर-मन के साथ हुए बिना अकेली इन्द्रिय बुद्धि को नहीं हर सकती। हाँ, मन इन्द्रियों के बिना अकेला भी बुद्धि को हर सकता है।

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।। 68।।

प्रश्न-‘तस्मात्’ पद का क्या भाव है?

उत्तर-पूर्व श्लोक में यह बात कही गयी कि जिसके मन और इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, उस विषयासक्त मनुष्य की इन्द्रियाँ उसके मन को विषयों में आकर्षित करके बुद्धि को विचलित कर देती हैं, स्थिर नहीं रहने देतीं। इसलिये मन और इन्द्रियों को अवश्य वश में करना चाहिये, यह भाव दिखाने के लिये यहाँ ‘तस्मात्’ पद का प्रयोग किया गया है।

प्रश्न-‘महाबाहो’ सम्बोधन का क्या भाव है?

उत्तर-जिसकी भुजाएँ लंबी, मजबूत और बलिष्ठ हों, उसे ‘महाबाहु’ कहते हैं। यह सम्बोधन शूरवीरता का द्योतक है। यहाँ इस सम्बोधन का प्रयोग करके भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि तुम बड़े शूरवीर हो, अतएव इन्द्रियों और मन को वश में कर लेना तुम्हारे लिए कोई बड़ी बात नहीं है।

प्रश्न-इन्द्रियों के विषयों के इन्द्रियों को सर्व प्रकार से ‘निगृहीत’ कर लेना क्या है?

उत्तर-क्षेत्रादि समस्त इन्द्रियों के जितने भी शब्दादि विषय हैं, उन विषयों में बिना किसी रूकावट के प्रवृत्त हो जाना इन्द्रियों का स्वभाव है; क्योंकि अनादि काल से जीव इन इन्द्रियों के द्वारा विषयों को भोगता आया है, इस कारण इन्द्रियों की उनमें आसक्ति हो गयी है। इन्द्रियों की इस स्वाभाविक प्रवृत्ति को सर्वथा रोक देना, उनके विषयलोलुप स्वभाव को परिवर्तित कर देना, उनमें विषयासक्ति का अभाव कर देना और मन-बुद्धि को विचलित करने की शक्ति न रहने देना-यही उनको उनके विषयों से सर्वथा निगृहीत कर लेना है। इस प्रकार जिसकी इन्द्रियाँ वश में की हुई होती हैं, वह पुरुष जब ध्यान काल में इन्द्रियों की क्रियाओं का त्याग कर देता है, उस समय उसकी कोई भी इन्द्रिय न तो किसी भी विषय को ग्रहण कर सकती है और न अपनी सूक्ष्म वृत्तियों द्वारा मन में विक्षेप ही उत्पन्न कर सकती है। उस समय वे मन में तदूप सी हो जाती हैं और व्युत्थानकाल में जब वह देखना-सुनना आदि इन्द्रियों की क्रिया करता रहता है, उस समय वे बिना आसक्ति के नियमित रूप से यथायोग्य शब्दादि विषयों का ग्रहण करती हैं। किसी भी विषय में उसके मन को आकर्षित नहीं कर सकतीं वरं मन का ही अनुसरण करती हैं। स्थित प्रज्ञ पुरुष लोकसंग्रह के लिये जिस इन्द्रिय के द्वारा जितने समय तक जिस शास्त्र सम्मत विषय का ग्रहण करना उचित समझता है, वही इन्द्रिय उतने ही समय तक उसी विषय का ग्रहण करती है; उसके विपरीत कोई भी इन्द्रिय किसी भी विषय को ग्रहण नहीं कर सकती। इस प्रकार जो इन्द्रियों पर पूर्ण आधिपत्य कर लेना है, उसकी स्वतंत्रता को सर्वथा नष्ट करके उनको अपने अनुकूल बना लेना है-यही इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से निगृहीत कर लेना है।

प्रश्न-अट्ठानवें श्लोक का और इस श्लोक का उत्तरार्द्ध एक ही है; फिर वहाँ पूर्वाद्ध में ‘संहरते’ और इस श्लोक में ‘निगृहीतानि’ पद का प्रयोग करके दोनों में क्या अन्तर दिखाया गया है?

उत्तर-अट्ठानवें श्लोक में भगवान् अर्जुन के ‘किमासीत’-‘कैसे बैठता है’, इस तीसरे प्रश्न का उत्तर देते हुए स्थित प्रज्ञ पुरुष की अक्रिय-अवस्था का वर्णन कर रहे हैं; इसीलिये वहाँ कछुए का दृष्टान्त देकर ‘संहरते’ पद से ‘विषयों से हटा लेना’ कहा है। बाह्यरूप में इन्द्रियों को विषयों से हटा लेना तो साधारण मनुष्य के द्वारा भी बन सकता है; परन्तु वहाँ के हटा लेने में विलक्षणता है, क्योंकि वह स्थित प्रज्ञ पुरुष का लक्षण है; अतएव आसक्ति रहित मन और इन्द्रियों का संयम भी इस हटा लेने के साथ ही है और यहाँ भगवान् स्थित प्रज्ञ की स्वाभाविक अवस्था का वर्णन करते हैं, इसीलिये यहाँ ‘निगृहीतानि’ पद आया है। विषयों की आसक्ति से रहित होने पर ही सब ओर से मन-इन्द्रियों का ऐसा निग्रह होता है। ‘नि’ उपर्स और ‘सर्वशः’ विशेषण से भी यही सिद्ध होता है। अतः दोनों की वास्तविक स्थिति में कोई अन्तर न होने पर भी वहाँ अक्रिय-अवस्था का वर्णन है और यहाँ सब समय की साधारण अवस्था का, यही दोनांे में अन्तर है।

प्रश्न-उसकी बुद्धि स्थिर है, इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया गया है कि जिसकी मनसहित समस्त इन्द्रियाँ उपर्युक्त प्रकार से वश में की हुई हैं, उसी की बुद्धि स्थिर है; जिसके मन और इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, उसकी बुद्धि स्थिर नहीं रह सकती।

या निशा सर्वभूतानां तस्य जागर्ति संयमी।

यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।। 69।।

प्रश्न-यहाँ ‘संयमी’ पद किसका वाचक है? उत्तर-जो मन और इन्द्रियों को वश में करके परमात्मा को प्राप्त हो गया है, जिसका इस प्रकरण में स्थित प्रज्ञ के नाम से वर्णन हुआ है, उसी का वाचक यहाँ ‘संयमी’ पद है; क्योंकि उत्तरार्द्ध में उसी के लिये ‘पश्यतः’ पद का प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ ‘ज्ञानी’ होता है।
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