क्रोध से पैदा होता है मूढ़भाव

क्रोध से पैदा होता है मूढ़भाव

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

ध्यायतो विषयान् पुंसः संगस्तेषूजायते।

संगात्सज्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।। 62।।

प्रश्न-विषयों का चिन्तन करने वाले मनुष्य की उनमें आसक्ति उत्पन्न हो जाती है-इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया गया है कि जिस मनुष्य की भोगों में सुख और रमणीय बुद्धि है, जिसका मन वश में नहीं है और जो परमात्मा का चिन्तन नहीं करता, ऐसे मनुष्य का परमात्मा में प्रेम और उनका आश्रय न रहने के कारण उसके मन द्वारा इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन होता रहता है। इस प्रकार विषयों का चिन्तन करते-करते उन विषयों में उसकी अत्यन्त आसक्ति हो जाती है। तब फिर उसके हाथ की बात नहीं रहती, उसका मन विचलित हो जाता है।

प्रश्न-विषयों के चिन्तन से क्या सभी पुरुषों के मन में आसक्ति उत्पन्न हो जाती है?

उत्तर-जिन पुरुषों को परमात्मा की प्राप्ति हो गयी है उनके लिये तो विषय चिन्तन से आसक्ति होने का कोई प्रश्न ही नहीं रहता। ‘परं’ दृष्टा निवर्तते’ से भगवान ऐसे पुरुषों में आसक्ति का अत्यन्ता भाव बतला चुके हैं। इनके अतिरिक्त अन्य सभी के मनों में न्यूनाधिक रूप में आसक्ति उत्पन्न हो सकती है।

प्रश्न-आसक्ति से कामना का उत्पन्न होना क्या है? और कामना से क्रोध का उत्पन्न होना क्या है।

उत्तर-विषयों का चिन्तन करते-करते जब मनुष्य की उनमें अत्यन्त आसक्ति हो जाती है, उस समय उसके मन में अत्यन्त आसक्ति हो जाती है, उस समय उसके मन में नाना प्रकार के भोग प्राप्त करने की प्रबल इच्छा जाग्रत हो उठती है; यही आसक्ति से कामना का उत्पन्न होना है तथा उस कामना में किसी प्रकार का विघ्न उपस्थित होने पर जो उस विघ्न के कारण में द्वेष बुद्धि होकर क्रोध उत्पन्न हो जाता है यही कामना से क्रोध का उत्पन्न होना है।

क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।

स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।। 63ं।।

प्रश्न-क्रोध से उत्पन्न होने वाले अत्यन्त मूढ़भाव का क्या स्वरूप है?

उत्तर-जिस समय मनुष्य के अन्तःकरण में क्रोध की वृत्ति जाग्रत होती है, उस समय उसके अन्तःकरण में विवेक शक्ति का अत्यन्त अभाव हो जाता है। वह कुछ भी आगा-पीछा नहीं सोच सकता; क्रोध के वश होकर जिस कार्य में प्रवृत्त होता है, उसके परिणाम का उसको कुछ भी ख्याल नहीं रहता। यही क्रोध उत्पन्न सम्मोह का अर्थात् अत्यन्त मूढ़ भाव का स्वरूप है।

प्रश्न-सम्मोह से उत्पन्न होने वाले ‘स्मृति विभ्रम’ का क्या स्वरूप है?

उत्तर-जब क्रोध के कारण मनुष्य के अन्तःकरण में मूढ़भाव बढ़ जाता है तब उसकी स्मरण शक्ति भ्रमित हो जाती है, उसे यह ध्यान नहीं रहता कि किस मनुष्य के साथ मेरा क्या सम्बन्ध है? मुझे क्या करना चाहिये? क्या न करना चाहिये? मैंने अमुक कार्य किस प्रकार करने का निश्चय किया था और अब क्या कर रहा हूँ? इसलिये पहले सोची-विचारी हुई बातों को वह काम में नहीं ला सकता? उसकी स्मृति छिन्न-भिन्न हो जाती है। यही सम्मोह से उत्पन्न हुए स्मृति-विभ्रम का स्वरूप है।

प्रश्न-स्मृति विभ्रम से बुद्धि का नष्ट हो जाना और उस बुद्धिनाश से मनुष्य का अपनी स्थिति से गिर जाना क्या है?

उत्तर-उपर्युक्त प्रकार से स्मृति में विभ्रम होने से अन्तःकरण में किसी कर्तव्य-अकर्तव्य का निश्चय करने की शक्ति का न रहना ही बुद्धि का नष्ट हो जाना है। ऐसा होने से मनुष्य अपने कर्तव्य का त्याग कर अकर्तव्य में प्रवृत्त हो जाता है-उसके व्यवहार में कटुता, कठोरता, कायरता, हिंसा, प्रतिहिंसा, दीनता, जड़ता और मूढ़ता आदि दोष आ जाते हैं। अतएव उसका पतन हो जाता है, वह शीघ्र ही अपनी पहले की स्थिति से नीचे गिर जाता है और मरने के बाद नाना प्रकार की नीच योनियों में या नरक में पड़ता है। यही बुद्धिनाश से उसका अपनी स्थिति से गिर जाना है।

रागद्वेषवियुक्तस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।

आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।। 64।।

प्रश्न-‘तु’ पद का क्या भाव है?

उत्तर-पूर्व श्लोकों में जिसके मन, इन्द्रिय बस में नहीं हैं, ऐसे विषयी मनुष्य की अवनति का वर्णन किया गया और अब दो श्लोकों में उससे विलक्षण जिसके मन, इन्द्रिय वश में किये हुए हैं, ऐसे विरक्त साध की उन्नति का वर्णन किया जाता है। इस भेद का द्योतक यहँ ‘तु’ पद है।

प्रश्न-‘विधेयात्मा’ पद कैसे साधक का वाचक है?

उत्तर-जिसका अन्तःकरण भलीभाँति वश में किया हुआ है, ऐसे साधक का वाचक यहाँ ‘विधेयात्मा’ पद है।

प्रश्न-ऐसे साधक का अपने वश में की हुई राग-द्वेष से रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करना क्या है? उत्तर-साधारण मनुष्यों की इन्द्रियाँ स्वतंत्र होती है, उनके वश में नहीं होतीं; उन इन्द्रियों में राग-द्वेष भरे रहते हैं। इस कारण उन इन्द्रियों के वश होकर भोगों को भोगने वाला मनुष्य उचित-अनुचित का विचार न करके जिस किसी प्रकार के भोग-सामप्रियों के संग्रह करने और भोगने की चेष्टा करता है और उन भोगों में राग-द्वेष करके सुखी-दुखी होता रहता है; उसे आध्यात्मिक सुख का अनुभव नहीं होता; किन्तु उपर्युक्त साधक की इन्द्रियाँ उसके वश में होती हैं और उनमंे राग-द्वेष का अभाव होता है-इस कारण वह अपने वर्ण, आश्रय और परिस्थिति के अनुसार योग्यता से प्राप्त हुए भोगों में बिना राग-द्वेष के विचरण करता है; उसका देखना-सुनना, खाना-पीना, उठना-बैठना-बतलाना, चलना-फिरना और सोना-जागना आदि समस्त इन्द्रियों के व्यवहार नियमित और शास्त्र विहित होते हैं; उसकी सभी क्रियाओं में राग-द्वेष, काम-क्रोध और लोभ आदि विकारों का अभाव होता है। यही उसका अपने वश में की हुई राग-द्वेष रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करना है।
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