अर्जुन को याद दिलाया वर्णधर्म

अर्जुन को याद दिलाया वर्णधर्म

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

प्रश्न-‘इस कारण सम्पूर्ण प्राणियों के लिये तू शोक करने के योग्य नहीं है’ इस वाक्य का क्या भाव है?

उत्तर-इस वाक्य में हेतु वाचक ‘तस्मात्’ पद का प्रयोग करके भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि इस प्रकरण में यह बात भलीभाँति सिद्ध हो चुकी है कि आत्मा सदा-सर्वदा अविनाशी है, उसका नाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है; अतः तुम्हें किसी भी प्राणी के लिये शोक करना उचित नहीं है। क्योंकि जब उसका नाश किसी भी काल में किसी भी साधन से हो ही नहीं सकता, तब उसके लिये शोक करने का अवकाश ही कहाँ है? अतएव तुम्हें किसी के भी नाश की आशंका से शोक न करके युद्ध के लिये तैयार हो जाना चाहिए।

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।

धम्र्याद्धि युद्धाच्छे- योऽनयत्क्षत्रियस्य न विद्यते।।31।।

प्रश्न-यहाँ ‘अपि’ पद के प्रयोग का क्या भाव है?

उत्तर-यहां ‘अपि’ पद का प्रयोग करके भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि आत्मा को नित्य और शरीरों को अनित्य समझ लेने के बाद शोक करना या युद्धादि से भयभीत होना उचित नहीं है, यह बात तो मैंने तुमको समझा ही दी है; उसके अतिरिक्त यदि तुम अपने वर्णधर्म की ओर देखो तो भी तुम्हें भयभीत नहीं होना चाहिये, क्योंकि युद्ध से विमुख न होना क्षत्रिय का स्वाभाविक धर्म है।

प्रश्न-‘हि’ पद का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-‘हि’ पद यहाँ हेतु वाचक है। अभिप्राय यह है कि भयभीत क्यों नहीं होना चाहिये, इसकी पुष्टि उत्तरार्ध में की जाती है।

प्रश्न-‘क्षत्रिय के लिये धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई श्रेय नहीं है’ इस वाक्य का क्या भाव है?

उत्तर-इस वाक्य में भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि जिस युद्ध का आरम्भ अनीति या लोभ के कारण नहीं किया गया हो एवं जिसमें अन्यायाचरण नहीं किया जाता हो किन्तु जो धर्मसंगत हो, कर्तव्य रूप से प्राप्त हो और न्यायानुकूल किया जाता हो, ऐसा युद्ध ही क्षत्रिय के लिये अन्य समस्त धर्मों की अपेक्षा अधिक कल्याणकारक है। क्षत्रिय के लिये उससे बढ़कर दूसरा कोई कल्याण प्रद धर्म नहीं है, क्योंकि धर्ममय युद्ध करने वाला क्षत्रिय अनायास ही इच्छानुसार स्वर्ग या मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।

यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।

सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्।। 32।।

प्रश्न-‘पार्थ’ सम्बोधन का क्या भाव है?

उत्तर-यहाँ अर्जुन को ‘पार्थ’ नाम से सम्बोधित करके भगवान् उनकी माता कुन्ती से हस्तिानापुर आते समय जो सन्देश कहलाया था, उसकी पुनः स्मृति दिलाते हैं। उस समय कुन्ती ने भगवान् से कहा था-

एतद्धनंजयो वाच्यो नित्योद्युक्तो वृकोदराः।

यदर्थ क्षत्रिया सूते तस्य कालोऽयमागतः।।

अर्थात् ‘धनंजय अर्जुन से और सदा कमर कसे तैयार रहने वाले भीम से तुम यह बात कहना कि जिस कार्य के लिये क्षत्रिय-माता पुत्र उत्पन्न करती है, अब उसका समय सामने आ गया है।’’

प्रश्न-यहाँ ‘युद्धम’ के साथ ‘यदृच्छयोपपन्नम्’ विशेषण देकर उसे ‘अपावृतम् स्वर्गद्वारम्’ कहने का क्या भाव है?

उत्तर-‘यदृच्छयोपपन्नम्’ विशेषण देकर यह भाव दिखलाया है कि तुमने यह युद्ध जान-बूझकर खड़ा नहीं किया है। तुम लोगों ने तो सन्धि करने की बहुत चेष्टा की, किन्तु जब किसी प्रकार भी तुम्हारा धरोहर के रूप में रक्खा हुआ राज्य बिना युद्ध के वापस लौटा देने को दुर्योधन राजी नहीं हुआ-उसने स्पष्ट कह दिया कि सूई की नोक टिके इतनी जमीन भी मैं पाण्डवों को नहीं दूँगा। तब तुम लोगों को बाध्य होकर युद्ध का आयोजन करना पड़ा; अतः यह युद्ध तुम्हारे लिये- ‘यदच्छयोपपन्नम्’ अर्थात् बिना इच्छा किये अपने आप प्राप्त है। तथा ‘अपावृतम् स्वर्गद्वारम्। विशेषण देकर यह दिखलाया है कि यह खुला हुआ स्वर्ग का द्वार है, ऐसे धर्मयुद्ध में मरने वाला मनुष्य सीधा स्वर्ग में जाता है, उसके मार्ग में कोई भी रोक-टोक नहीं कर सकता।

प्रश्न-‘इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान् क्षत्रिय लोग ही पाते हैं’ इस वाक्य का क्या भाव है?

उत्तर-इस वाक्य से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि ऐसा धर्ममय युद्ध, जो कि अपने आप कर्तव्य रूप से प्राप्त हुआ है और खुला हुआ स्वर्गद्वार है, हरेक क्षत्रिय को नहीं मिल सकता। यह तो किन्हीं बड़े भाग्यशाली क्षत्रियों को ही मिला करता है। अतएव तुम्हारा बड़ा ही सौभाग्य है जो तुम्हें ऐसा धर्ममय युद्ध अनायास ही मिल गया है, अतएव अब तुम्हें इससे हटना नहीं चाहिये।

अथ चेत्त्वमिमं धम्र्यं संग्रामं न करिष्यसि।

ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि।। 33।।

प्रश्न-‘अय’ पद का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-‘अर्थ’ पद यहाँ पक्षान्तर में है। अभिप्राय यह है कि अब प्रकारान्तरं से युद्ध की कर्तव्यता सिद्ध की जाती है।

प्रश्न-‘संग्रामम् के साथ ‘इमम’ और ‘धम्र्यम्’-इन दोनों विशेषणों का प्रयोग करके यह कहने का क्या अभिप्राय है कि यदि तू युद्ध नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा।

उत्तर-इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि यह युद्ध धर्म मय होने के कारण अवश्य कर्तव्य है, यह बात तुम्हें अच्छी तरह समझा दी गयी; इस पर भी यदि तुम किसी कारण से युद्ध न करोगे तो तुम्हारे द्वारा ‘स्व धर्म का त्याग’ होगा और निवातकवचादि दानवों के साथ युद्ध में विजय पाने के कारण तथा भगवान् शिवजी के साथ युद्ध करने के कारण तुम्हारी जो संसार में बड़ी भारी कीर्ति छायी है, वह भी नष्ट हो जायगी। इसके सिवा कर्तव्य का त्याग करने के कारण तुम्हें पाप भी होगा ही; अतएव तुम जो पाप के भय से युद्ध त्याग कर रहे हो और भयभीत हो रहे हो, यह सर्वथा अनुचित है।

अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।

सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादितिरिच्यते।। 34।।

प्रश्न-यहाँ ‘अपि’ पद का प्रयोग करके यह कहने का क्या भाव है कि सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति करेंगे।

उत्तर-यहाँ ‘अपि’ पद का प्रयोग करके इस वाक्य से भगवान् ने यह दिखलाया है कि केवल स्वधर्म और कीर्ति का नाश होगा और तुम्हें पाप लगेगा, इतना ही नहीं; साथ ही देवता, ऋषि और मनुष्यादि सभी लोग तुम्हारी बहुत प्रकार से निन्दा भी करेंगे। और वह अपकीर्ति ऐसी नहीं होगी जो थोड़े दिन होकर रह जाय; वह अनन्त काल तक यहीं रहेगी। अतएव तुम्हारे लिये युद्ध का त्याग सर्वथा अनुचित है।
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