अर्जुन ने मोहग्रस्त होकर रख दिया गाण्डीव

अर्जुन ने मोहग्रस्त होकर रख दिया गाण्डीव

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
उत्सन्न कुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन।

नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम।। 44।।

प्रश्न-इस श्लोक का क्या भाव है?

उत्तर-यहाँ अर्जुन कहते हैं कि जिनके ‘कुल-धर्म’ और ‘जाति-धर्म’ नष्ट हो गये हैं, उन सर्वथा अधर्म में फँसे हुए लोगों को पापों के फलस्वरूप दीर्घकाल तक कुम्भीपाक और रौरव आदि नरकों में गिरकर भाँति-भाँति की भीषण यम-यातनाएँ सहनी पड़ती हैं-ऐसा हम लोग परम्परा से सुनते आये हैं। अतएव कुलनाश की चेष्टा कभी नहीं करनी चाहिये।

अहो बत तहत्पापं कतुं व्यवसिता वयम्।

यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ।। 45।।

प्रश्न-हम लोग महान् पाप करने को तैयार हो गये हैं-इस वाक्य के साथ ‘अहो’ और ‘बत’ इन दोनों अव्यय-पदों का प्रयोग करने का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-‘अहो’ अव्यय यहाँ आश्चर्य का द्योतक है ओर ‘बत’ पद महान् शोक का! इन दोनों का प्रयोग करके उपर्युक्त वाक्य के द्वारा अर्जुन यह भाव दिखलाते हैं कि हम लोग जो धर्मात्मा और बुद्धिमान् माने जाते हैं और जिनके लिये ऐसे पाप कर्म में प्रवृत्त होना किसी प्रकार भी उचित नहीं हो सकता, वे भी ऐसे महान् पाप का निश्चय कर चुके हैं। यह अत्यन्त ही आश्चर्य और शोक की बात है।

प्रश्न-जो राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों को मारने के लिए उद्यत हो गये हैं, इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-इससे अर्जुन ने यह भाव दिखाया है कि हम लोगों का राज्य और सुख के लोभ से इस प्रकार तैयार हो जाना बड़ी भारी गलती है।

यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।

धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्।। 46।।

प्रश्न-इस श्लोक का क्या भाव है?

उत्तर-अर्जुन यहाँ कह रहे हैं कि इस प्रकार युद्ध की घोषणा होने पर भी जब मैं शस्त्रों का त्याग कर दूँगा और उन लोगों की किसी भी क्रिया का प्रतिकार नहीं करूँगा, तब सम्भवतः वे भी युद्ध नहीं करेंगे और इस तरह समस्त आत्मीय जनों की रक्षा हो जायगीं परन्तु यदि कदाचित् वे ऐसा न करके मुझे शस्त्रहीन और युद्ध से निवृत्त जानकर मार भी डालें तो वह मृत्यु भी मेरे लिये अत्यन्त कल्याणकारक होगी। क्यांेकि इससे एक तो मैं कुलघात रूप भयानक पाप से बच जाऊँगा; दूसरे, अपने सगे-सम्बन्धी और आत्मीय जनों की रक्षा हो जायगी; और तीसरे, कुलरक्षा जनित महान् पुण्य कर्म से परमपद की प्राप्ति भी मेरे लिये आसान हो जायगी।

अर्जुन अपने प्रतिकार रहित उपर्युक्त प्रकार के मरण से कुल की रक्षा और अपना कल्याण निश्चित मानते हैं। इसीलिये उन्होंने वैसे मरण को अत्यन्त कल्याणकारक (क्षेमतरम्) बतलाया है।

एवमुक्त्वार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।

विस्ज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः।। 47।।

प्रश्न-इस श्लोक में संजय के कथन का क्या भाव है?

उत्तर-यहाँ संजय कह रहे हैं कि विषादमग्न अर्जुन ने भगवान् से इतनी बातें कहकर बाण सहित गाण्डीव धनुष को उतारकर नीचे रख दिया और रथ के पिछले भाग में चुपचाप बैठकर वे नाना प्रकार की चिन्ताओं में डूब गये। उनके मन में कुलनाश और उससे होने वाले भयानक पाप और पाप फलों के भीषण चित्र आने लगे। उनके मुखमण्डल पर विषाद छा गया और नेत्र शोकाकुल हो गये।



रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।

गीता अर्जुन और श्री कृष्ण के बीच संवाद है लेकिन सच्चाई यह है कि भगवान श्री कृष्ण के माध्यम से योगेश्वर एवं काल रूप परमेश्वर ने विश्व को ज्ञान दिया है। प्रथम अध्याय में महाभारत के महारथियों का परिचय, सेनी की व्यूह रचना, आतताई और महापाप आदि पर प्रकाश डाला गया है। यह अर्जुन के मोह ग्रस्त होने की कहानी है जबकि दूसरे आधार से भगवान कृष्ण अर्जुन के मोह को कैसे दूर करते है, यह बताया गया है।

महाभारत के अनुसार कुरुक्षेत्र युद्ध में भगवान श्री कृष्ण ने गीता का सन्देश अर्जुन को सुनाया था। यह महाभारत के भीष्मपर्व के अन्तर्गत दिया गया एक उपनिषद् है। भगवत गीता में एकेश्वरवाद, कर्म योग, ज्ञानयोग, भक्ति योग की बहुत सुन्दर ढंग से चर्चा हुई है। हजारों वर्ष पहले लिखी गयी भगवद् गीता का विश्लेषण व अभ्यास प्रत्येक विद्वान द्वारा अलग-अलग प्रकार से किया गया है और इस काल में जब उम्र में मात्र पच्चीस वर्ष के अंतर होने के उपरांत भी पुत्र अपने पिता के अंतर आशय को समझने में समर्थ नहीं है, तो फिर हजारों वर्ष बाद अंतर आशय किस तरह समझा जाएगा? पर, जिस तरह हम अपने हर रोज के जीवन में संवादहीनता के कारण कई बार गलतफहमियों के शिकार बन जाते हैं और जिसके कारण हम सही अर्थ से वंचित रह जाते हैं, ठीक उसी प्रकार स्वाभाविक रूप से समय के साथ भगवद् गीता का मूल (गूढ़) अर्थ भी लुप्त हो गया है।

यदि कोई भगवद् गीता का सारांश यथार्थ रूप से समझने में सक्षम हो तो वह परम सत्य का अनुभव कर राग (बंधन) की भ्रान्ति व संसार के दुखों में से मुक्त हो सकता है। अर्जुन ने भी महाभारत का युद्ध लड़ते हुए सांसारिक दुखों से मुक्ति प्राप्त की थी। भगवान श्री कृष्ण के द्वारा दिए गए दिव्यचक्षु के कारण ही यह संभव हो सका और इसी दिव्यचक्षु के कारण अर्जुन कोई भी कर्म बाँधे बिना युद्ध लड़ने में सक्षम बने और उसी जीवन में मोक्ष प्राप्त किया।

भगवान श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया गया ज्ञान और कुछ नहीं बल्कि ‘मटीरिअल और पैकिंग’ (माल और डब्बे) का ही है। भगवत गीता जिसमें श्री कृष्ण भगवान साक्षात प्रकट हुए हैं ऐसे ज्ञानी पुरुष के प्रभाव पूर्ण शब्दों को दर्शाता है, जिसके द्वारा हम अपनी खोई हुई समझ को फिर से प्राप्त कर सकते हैं और उसके उपयोग द्वारा कर्मों से मुक्त हो सकते हैं।

आप इस लेखमाला से केवल ज्ञान के विषय से ही नहीं बल्कि भगवान श्री कृष्ण से सम्बंधित तथ्य और कथाएँ भी जान पाएंगे। सोलह हजार रानियाँ होने के बावजूद भी, वे नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहलाये? वास्तव में सुदर्शन चक्र क्या है? परधर्म और स्वधर्म किसे कहते हैं? गोवर्धन पर्वत को उठाने के पीछे का रहस्य क्या था? ऐसे सभी गूढ़ रहस्यों और दूसरा बहुत कुछ यहाँ उजागर होगा। -प्रधान सम्पादक
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