कुरुक्षेत्र में महाभोज

कुरुक्षेत्र में महाभोज

संकलन मनोज मिश्रा
महाभारत काल की एक कथा है। महाभारत का रण क्षेत्र सज धज कर तैयार था। कुल 18 औक्षहिनी सेना दोनों ओर से युद्ध के लिए उन्मत्त थी। इसके अलावा घोड़े हाथी रथ इत्यादि को हर तरह से सुसज्जित किया जा रहा था। दोनों पक्ष अपने अपने सैनिकों का उत्साह वर्धन कर रहे थे। गंभीर मंथनों का दौर कौरव और पांडव पक्ष में चल रहा था। लक्ष्य सिर्फ विजय का था। वयोवृद्ध महारथी, रथी अर्धरथी अपने अपने अनुभवों का सार लिए अपने अपने शिविरों में युद्ध के नीति नियम और सिद्धांतों की व्याख्या कर रहे थे। युवा भुजाएं फड़क रही थीं, उनकी रक्त वाहिनियों का रक्त उबाल ले रहा था। उनके लिए ये शिक्षा उनके उत्साह वीरता सामर्थ्य पर प्रश्नचिन्ह सरीखी थी। पर इस शौर्य और दबंगता को बनाये रखने के लिए सुस्वादु और स्वास्थ्यकर भोजन अति आवश्यक था। उसका प्रबंधन कैसे हो इस हेतु विमर्श के लिए दोनों ओर के क्षत्रप किंकर्तव्यविमूढ़ से प्रतीत हो रहे थे। अंत में निर्णय हुआ कि क्यों न इस हेतु श्रीकृष्ण से आग्रह किया जाय। हस्तिनापुर की राजसभा से कुरुक्षेत्र तक आखिर वही तो सबको लाये हैं। अब जो भी हल निकालेंगे वही निकालेंगे। कृष्ण प्रश्न सुनते ही मुस्कुराए - तो आखिर आप सभी को जीवन के मूल में आना ही पड़ा। सत्य है कि जठराग्नि न होती यो ये राज पाट, ये शौर्य वैभव, भोग विलास कुछ भी न होता। शायद सभी शांति और प्रेम से रहते। अपनी धीर गंभीर आवाज़ में उन्होंने कहा - ये युद्ध वास्तव में एक विराट आखेट है और आर्यावर्त के सभी राज्य इसमें शामिल हैं। वे या तो कौरवों के साथ हैं या पांडवों के और सभी की इस यज्ञाग्नि में आहुति अवश्यम्भावी है। इस दावानल से बचे हुए सिर्फ दो हैं एक भ्राता बलराम और दूसरा रुक्मी जो इस युद्ध में नहीं हैं। एक और राज्य भी है जो युद्ध क्षेत्र में होते हुए भी युद्ध नहीं करेगा, मैं उसी की प्रतीक्षा में हूँ। आप लोगो को भी थोड़ी प्रतीक्षा करनी होगी। सभी सभासद और राजा गण एक दूसरे को प्रश्नवाचक दृष्टि से देखने लगे। तभी घुड़सवार संदेशवाहक ने आकर सभा को बताया कि दक्षिण भारत के उडुपी राष्ट्र के महाराज अपनी सेना सहित कुरुक्षेत्र में पधार रहे हैं। कृष्ण के मुख पर स्मित मुस्कान उभर आई। पितामह भीष्म भी मुस्कुरा उठे। सभा के विषय को परे कर कौरव और पांडवों ने आपने अपने दूत उडुपी महाराज की सेवा में भेज दिए। दोनों ही पक्ष अपनी ओर से उडुपी को अपनी अपनी ओर खींचने का प्रयास करने लगे। उडुपी के राजा अत्यंत दूरदर्शी थे। उन्होंने पहले केशव से मिलने की इच्छा प्रकट की। उन्होंने कृष्ण से पूछा, 'हे माधव! दोनों ओर से मुझे अपने अपने पक्ष में करने हेतु बहुत से तर्क दिए जा रहे हैं। दोनों ही युद्ध के लिए लालायित हैं। अस्त्र, शस्त्र, भुजबल सभी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं परंतु क्या किसी ने सोचा है कि इस अनंत सी प्रतीत होने वाली सेना के भोजन का क्या होगा? उसका प्रबंध कौन करेगा?
योगेश्वर बोले - महाराज आपका प्रश्न बहुत सार्थक है और कुछ समय पूर्व हम दोनों ही पक्ष इसी पर विचार कर रहे थे। चूंकि आपने भी यह प्रश्न उपस्थित किया है अतः मैं समझता हूँ आपके पास अवश्य ही इसकी कोई योजना होगी, अन्यथा इतनी दूरी चलकर कोई मात्र उपस्थिति दर्शाने के लिए तो आएगा नहीं। कृपया मुझे बताएं मैँ प्रतीक्षारत हूँ।
उडुपी नरेश बोले - "हे देवकीनंदन ! ये सत्य है। भाई- भाई के बीच होने वाले इस महासंग्राम को मैं उचित नहीं मानता। अतः इस कारण युद्ध में भाग लेने की मेरी कोई इच्छा नहीं है। परंतु यह भी सत्य है कि जब आप ही इसे टाल न सके तो होगा तो यह अवश्य। अतः मैं, अगर आपकी आज्ञा हो, तो इस महासमर में अपनी पूरी सेना के साथ यहां उपस्थित समस्त सेना के भोजन के प्रबंधन का दायित्व लेना चाहता हूँ।"
कृष्ण ने विजयी भाव से भीष्म की ओर देखा मानो कह रहे हो लो हो गया तुम्हारी समस्या का समाधान। पर प्रकट में हर्षित होकर कहा, " महाराज! आपका विचार अति उत्तम है। इस युद्ध में लगभग पचास लाख योद्धा भाग लेंगे और अगर आप जैसा कुशल राजा उनके भोजन का प्रबंधन देखेगा तो हम सभी उस ओर से निश्चिन्त रहेंगे।"
"इतना तो ज्ञात मुझे भी है कि सागर समान विशाल इस सेना के भोजन का प्रबंध आपके और भीम सेन के अतिरिक्त कोई कर भी नहीं सकता। भीमसेन का तो यह स्वयं का युद्ध ही है अतः उन्हें विरत किया जा नहीं सकता। मेरी प्रार्थना है कि दोनों पक्षों की ओर से आप इस महती कार्य- सेना के भोजन के प्रबंध का भार - की जिम्मेवारी आप और आपकी सेना संभालें।"
उडुपी के राजा ने सहर्ष अपनी स्वीकृति दे दी।
महाभारत के प्रथम दिन उन्होंने उपस्थित सभी योद्धाओं के भोजन का प्रबंध किया। उनकी कुशलता और कुशाग्रता इतनीं सटीक थी कि दिन के अंत तक अन्न का एक दाना भी बर्बाद नहीं होता था। जैसे जैसे युद्ध के दिन बीतते गए योद्धाओं की संख्या भी कम होती गयी। पर दोनों पक्ष के योद्धा यह देखकर आश्चर्य में पड़ जाते कि भोजनोपरांत भोजन जरा भी व्यर्थ न होता था। उडुपी नरेश केवल उतने ही लोगों का भोजन बनवाते थे जितने वास्तव में उस दिन युद्ध के उपरांत उपस्थित रहते थे।
किसी को समझ नही आ रहा था कि आखिर उन्हें ये कैसे पता चल जाता है कि आज कितने योद्धा वीरगति को प्राप्त होंगे और उसी अनुरूप वे उतने ही भोजन की व्यवस्था करते थे। एक तो इतनीं विशाल सेना के भौजन का प्रबंधन करना, अपने आप में दुसाध्य कार्य था उसपर ऐसा प्रबंधन कि अन्न की बर्बादी न हो अपने आप में किसी चमत्कार से कम न था।
18 दिन के उपरांत युद्ध समाप्त हुआ, पांडवों का राज्याभिषेक हुआ, युधिष्ठिर राजा बने।
महाभारत के युद्ध का यह विषय युधिष्ठिर के लिए भी मंथन का विषय था अतः उनसे रहा न गया और उन्होंने उडुपी नरेश से पूछ ही लिया- "हे महाराज! समस्त देशों के राजा हमारी प्रशंसा कर रहे हैं कि शत्रु से कम सेना होने के पश्चात भी हम विजयी हुए। मात्र 7 औक्षिहिनी सेना के साथ हमने 11 औक्षहिनी सेना जिसका नेतृत्व पितामह भीष्म, गुरु द्रोणाचार्य और मेरे ही ज्येष्ठ भ्राता कर्ण जैसे महारथी कर रहे थे, को परास्त कर दिया। परंतु हम सब से अधिक तो आप प्रशंसा के पात्र हैं जिन्होंने न केवल इतनीं विशाल सेना के लिए भोजन का प्रबंध किया अपितु ऐसा प्रबंध किया कि अन्न का कोई दाना व्यर्थ न हो। आखिर इस कुशलता का रहस्य क्या है।
उडुपी सम्राट ने हंसते हुए प्रति प्रश्न किया - राजन! आपने जो इस युद्ध मे विपरीत परिस्थितियों में भी जो विजय पाई है उसका श्रेय किसको देंगे?
युधिष्ठिर ने गंभीर स्वर में कहा - "श्रीकृष्ण के अतिरिक्त मैं इसका श्रेय किसी और को नहीं दे सकता। अगर वे न होते तो क्या इस महान कौरव सेना को परास्त किया जा सकता था, नहीं कदापि नहीं।
उडुपी नरेश ने मुस्कुरा कर कहा- जैसे आपने अपनी विजय का श्रेय श्री कृष्ण को दिया उसी प्रकार यहां भी मेरी कुशलता से कुछ नहीं हुआ अपितु यह श्रीकृष्ण का प्रताप है जो यह संभव हो पाया और अन्न की बर्बादी न हुई। अब अचंभित होने की बारी सभा में उपस्थित सभी माननीयों की थी।
उडुपी नरेश ने इस रहस्य का भेद खोलते हुए बताया कि महाराज! श्रीकृष्ण प्रतिदिन रात्रि में मूंगफली खाते थे। मैं प्रतिदिन उनके शिविर में गिन कर मूंगफली रख देता था और उनके खाने के पश्चात गिन कर देखता था उन्होंने कितनी मूंगफलियां खाई हैं।
"वे जितनी मूंगफली खाते थे उससे ठीक 1000 गुना योद्धा अगले दिन युद्ध में वीरगति को प्राप्त होते थे। अगर वे 50 मूंगफली खाते थे तो इसका अर्थ था कि अगले दिन 50 हज़ार योद्धा युद्ध में मारे जाएंगे। अतः मैं भोजन उसी अनुपात में कम बनाता था। यही कारण है कि कभी भी भोजन व्यर्थ नहीं हुआ।" श्रीकृष्ण के इस चमत्कार को देख उपस्थित सभी लोग उनकी जयजयकार कर उठे।
यह कथा महाभारत की सबसे दुर्लभ कथाओं में से एक है जो उडुपी जिले के कृष्ण मठ में ये कथा हमेशा सुनाई जाती है। किंवदंती यह है कि इस मठ की स्थापना उडुपी के सम्राट द्वारा ही कि गयी थी जिसे बाद में श्री माधवाचार्य ने अपने प्रबंधम मे लेकर व्यवस्थित रखा।- 
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