कर्ण के पास थी वीरघातिनी शक्ति

कर्ण के पास थी वीरघातिनी शक्ति

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

प्रश्न-कर्ण कौन थे?

उत्तर-कर्ण कुन्ती के पुत्र थे, सूर्यदेव के प्रभाव से कुन्ती की कुमारी अवस्था में ही इनका जन्म हो गया था। कुन्ती ने इन्हें पेटी में रखकर नदी में डाल दिया था, परन्तु भाग्यवश इनकी मृत्यु नहीं हुई और बहते-बहते वह पेटी हस्तिनापुर आ गयी। अधिरथ नामक सूत इन्हंे अपने घर ले गया और उसकी पत्नी राधा ने इनका पालन-पोषण किया और ये उन्हीं के पुत्र माने जाने लगे। कवच और कुण्डल रूपी धन के साथ ही इनका जन्म हुआ था, इससे अधिरथ ने इनका नाम ‘वसुषेण’ रखा था। इन्होंने द्रोणाचार्य और परशुराम जी से शशास्त्र विद्या सीखी थी, ये शास्त्र और शस्त्र दोनों के ही बड़े पण्डित और अनुभवी थे। श़स्त्र विद्या और युद्धकाल में ये अर्जुन के समान थे। दुर्योधन ने इन्हें अडंग देश का राजा बना दिया था। दुर्योधन के साथ इनकी प्रगाढ़ मैत्री थी और ये तन-मन से सदा उनके हित चिन्तन में लगे रहते थे। यहाँ तक कि माता कुन्ती और भगवान श्रीकृष्ण के समझाने पर भी इन्होंने दुर्योधन को छोड़कर पाण्डव-पक्ष में आना स्वीकार नहीं किया। इनकी दानशीलता अद्वितीय थी, ये सदा सूर्यदेव की उपासना किया करते थे। उस समय इनसे कोई कुछ भी माँगता, ये सहर्ष दे देते थे। एक दिन देवराज इन्द्र ने अर्जुन के हितार्थ ब्राह्मण का वेश धरकर इनके शरीर के साथ लगे हुए नैसर्गिक कवच-कुण्डलों को माँग लिया। इन्होंने बड़ी ही प्रसन्नता के साथ उसी क्षण कवच-कुण्डल उतार दिये। उसके बदले में इन्द्र ने इन्हें एक वीरघातिनी अमोघ शक्ति प्रदान की थी, कर्ण ने युद्ध के समय उसी के द्वारा भीमसेन के वीर पुत्र घटोत्कच का वध किया था। द्रोणाचार्य के बाद महाभारत युद्ध में दो दिनों तक प्रधान सेनापति रहकर ये अर्जुन के हाथ से मारे गये थे।

प्रश्न-कृपाचार्य कौन थे?

उत्तर-ये गौतमवंशीय महर्षि शरद्वान के पुत्र हैं। ये धनुर्विद्या के बड़े पारदर्शी और अनुभवी हैं। इनकी बहिन का नाम कृपी था। महाराज शान्तनु ने कृपा करके इन्हें पाला था, इसी से इनका नाम कृप और इनकी बहिन का नाम कृपी हुआ। ये वेद-शास्त्र के ज्ञाता, धर्मात्मा तथा सद्गुणों से सम्पन्न सदाचारी पुरुष हैं। द्रोणाचार्य से पूर्व कौरव-पाण्डवों को और यादवादि को धुनर्वेद की शिक्षा दिया करते थे। समस्त कौरववंश के नाश हो जाने पर भी ये जीवित रहे, इन्होंने परीक्षित को अस्त्र विद्या सिखलायी। ये बड़े ही वीर और विपक्षियों पर विजय प्राप्त करने में निपुण हैं। इसीलिये इनके नाम के सााथ ‘समतिअज्यः’ विशेषण लगाया गया है।

प्रश्न-अश्वत्थामा कौन थे?

उत्तर-अश्वत्थामा आचार्य द्र्रोण के पुत्र हैं। वे शशास्त्र विद्या में अत्यन्त निपुण, युद्धकला में प्रवीण, बड़े ही शूरवीर महारथी हैं। इन्होंने भी अपने पिता द्रोणाचार्य से ही युद्ध-विद्या सीखी थी।

प्रश्न-विकर्ण कौन थे?

उत्तर-धृतराष्ट्र के दुर्योधनादि सौ पुत्रों में से ही एक का नाम विकर्ण था। ये बड़े धर्मात्मा, वीर और महारथी थे। कौरवांे की राजसभा में अत्याचार पीड़िता द्रौपदी ने जिस समय सब लोगों से पूछा कि ‘मैं हारी गयी या नहीं’, उस समय विदुर को छोड़कर शेष सभी सभासद चुप ही रहे। एक विकर्ण ही ऐसे थे, जिन्होंने सभा में खड़े होकर बड़ी तीव्र भाषा में न्याय और धर्म के अनुकूल स्पष्ट कहा था कि ‘द्रौपदी के प्रश्न का उत्तर न दिया जाना बड़ा अन्याय है। मैं तो समझता हूं कि द्रौपदी हम लोगों के द्वारा जीती नहीं गयी है।’

प्रश्न-सौमदत्ति कौन थे?

उत्तर-सोमदत्त के पुत्र भूरिश्रवा को ‘सौमदत्ति कहा करते थे। ये शान्तनु के बड़े भाई बाहीक के पौत्र थे। ये बड़े ही धर्मात्मा, युद्धकाल में कुशल और शूरवीर महारथी थे। इन्होंने बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले अनेक यज्ञ किये थे। ये महाभारत-युद्ध में सात्यकि के हाथ से मारे गये।

प्रश्न-‘तथा’ और ‘एव’-इन दोनों अव्यय पदों के प्रयोग का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-इन दोनों अव्ययों का प्रयोग करके यह दिखलाया गया है कि अश्वत्थामा? विकर्ण और भूरिश्रवा भी कृपाचार्य के समान ही संग्राम विजयी थे।

अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः।

नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः।। 9।।

प्रश्न-इस श्लोक का क्या भाव है?

उत्तर-इससे पूर्व शल्य, बाह्ीक, भगदन्त, कृतवर्मा और जयद्रथादि महारथियों के नाम नहीं लिये गये हैं, इस श्लोक में उन सबकी ओर संकेत करके दुर्योधन इससे यह भाव दिखला रहे हैं कि अपने पक्ष के जिन-जिन शूरवीरों के नाम मैंने बतलाये हैं, उनके अतिरिक्त और भी बहुत से योद्धा हैं, जो तलवार, गदा, त्रिशूल आदि हाथ में रक्खे जाने वाले शस्त्रांे से और बाण, तोमर, शक्ति आदि छोड़े जाने वाले अस्त्रों से भलीभाँति सुसज्जित हैं तथा युद्धकला में बड़े कुशल महारथी हैं। एवं ये सभी ऐसे हैं जो मेरे लिये अपने प्राण न्योछावर करने को तैयार हैं। इससे आप यह निश्चय समझिये कि ये मरते दम तक मेरी विजय के लिये डटकर युद्ध करेंगे।

अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्।

पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्।। 10।।

प्रश्न-दुर्योधन ने अपनी सेना को भीष्मपितामह के द्वारा रक्षित और अपर्याप्त बतलाकर क्या भाव दिखलाया है?

उत्तर-इससे दुर्योधन ने हेतु सहित अपनी सेना का महत्त्व सिद्ध किया है। उनका कहना है कि हमारी सेना उपर्युक्त बहुत से महारथियों से परिपूर्ण है और परशुराम सरीखे युद्धवीर को भी छका देने वाले, भूमण्डल के अद्वितीय वीर भीष्मपितामह के द्वारा संरक्षित है। तथा संख्या में भी पाण्डव-सेना की अपेक्षा चार अक्षौहिणी अधिक है। ऐसी सेना पर विजय प्राप्त करना किसी के लिये सम्भव नहीं है, वह सब प्रकार से अपर्याप्त-आवश्यकता से कहीं अधिक शक्तिशालिनी, अतएव सर्वथा अजये है। महाभारत, उद्योग पर्व के पचपनवें अध्याय में जहाँ दुर्योधन ने धृतराष्ट्र के सामने अपनी सेना का वर्णन किया है, वहाँ भी प्रायः इन्हीं महारथियों के नाम लेकर और भीष्म द्वारा संरक्षित बतलाकर उसका महत्त्व प्रकट किया है। और स्पष्ट शब्दों में कहा है-

गुणहीनं परेषाश्चव बहु पश्यामि भारत।

गुणोदयं बहुगुणमात्मनश्च विशाम्पते।।

‘हे भरतवंशी राजन् ! मैं विपक्षियों की सेना को अधिकांश में गुणहीन देखता हूँ और अपनी सेना को बहुत गुणों से युक्त और परिणाम में गुणों का उदय करने वाली मानता हूँ।’ इसलिये मेरी हार का कोई कारण नहीं है। इसी प्रकार भीष्म पर्व में जहाँ दुर्योधन ने द्रोर्णाचार्य के सामने फिर से अपनी सेना का वर्णन किया है, वहाँ उपर्युक्त गीता के श्लोक को ज्यों-का-त्यों दोहराया है और उसके पहले श्लोक में तो यहाँ तक कहा है-

एकैकशः समर्था हि यूयं्र सर्वे महारथाः।

पाण्डुपुत्रान् रणे हन्तुं ससैन्यान् किमु संहताः।। ‘आप सब महारथी ऐसे हैं, जो रण में अकेले ही पाण्डवों-को सेना समेत मार डालने में समर्थ हैं; फिर सब मिलकर उनका संहार कर दें, इसमें तो कहना ही क्या है? अतएव यहाँ ‘अपर्याप्त’ शब्द से दुर्योधन ने अपनी सेना का महत्त्व ही प्रकट किया है। और उपर्युक्त स्थलों में यह श्लोक अपने पक्ष के योद्धाओं को उत्साहित करने के लिए ही कहा गया है; ऐसा ही होना उचित और प्रासंगिक भी है।
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