विभाजित विपक्ष का अंतद्र्वंद्व

विभाजित विपक्ष का अंतद्र्वंद्व

(डॉ दिलीप अग्निहोत्री-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
भाजपा के विरोध में विपक्षी पार्टियां एक ही धरातल पर है। नरेन्द्र मोदी नेतृत्व में मिल रहे जनादेश को इन्होंने कभी सहजता से स्वीकार नहीं किया। वह संविधान और लोकतंत्र की दुहाई देते हैं। उस पर खतरे का प्रलाप करते हैं, सरकार पर हमले का कोई अवसर हाथ से जाने नहीं देते, लेकिन साझा निर्णयों के समय इनकी असलियत सामने आ जाती है। तब भाजपा विरोध का धरातल बिखरा हुआ दिखाई देता है। सरकार के विरोध की कमान अपने नियन्त्रण में रखने की आकांक्षा इन्हें मूल मुद्दे से भटका देती है। इनका अंतद्र्वंद्व उभर कर सामने आ जाता है। परस्पर अविश्वास से इनकी स्थिति हास्यास्पद हो जाती है। राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव में भी यही दिखाई दिया। विपक्षी दल सत्ता रूढ़ पक्ष का विरोध तो करना चाहते थे लेकिन उपयुक्त निर्णय करने में विफल रहे। उन्होंने राष्ट्रपति पद हेतु उम्मीदवार तो घोषित किया, लेकिन इस माध्यम से कोई वैचारिक संदेश देने में विफल रहे। उनके उम्मीदवार ने अपनी राजनीतिक यात्रा में अनेक पड़ाव बदले हैं। इस निर्णय से विपक्ष की प्रतिष्ठा पर प्रतिकूल असर हुआ। संख्या और विचार दोनों ही दृष्टियों से उसे शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा।

उपराष्ट्रपति निर्वाचन में तो इससे भी दयनीय दशा हो गई है। राष्ट्रपति चुनाव में राजग उम्मीदवार के पक्ष में खूब क्रास वोटिंग हुई।विपक्ष का कोई दल इससे बच नहीं सका लेकिन विपक्ष की किसी पार्टी ने अपने को मतदान से अलग रखने का निर्णय नहीं किया था। उपराष्ट्रपति चुनाव में यह नौबत भी आ गई। तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी ने उप राष्ट्रपति चुनाव से अलग रहने की घोषणा कर दी। उपराष्ट्रपति चुनाव में संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्य मतदान करते है। इस दृष्टि से तृणमूल कांग्रेस का भी विशेष महत्त्व है। उपराष्ट्रपति चुनाव में भी विपक्ष की पराजय पहले से तय है। तृणमूल कांग्रेस का चुनाव से अलग रहने का निर्णय विपक्ष के लिए झटका है। इससे प्रमाणित हुआ कि विपक्षी पार्टियों के अपने-अपने निहित स्वार्थ है। यही सर्वोपरि है। भाजपा या सरकार का विरोध इनकी राजनीति का एक हिस्सा मात्र है लेकिन इसके लिए यह किसी अन्य पार्टी को बढ़त देने के लिए तैयार नहीं है। राष्ट्रपति चुनाव में दुर्गति की पूरी संभावना को देखते हुए कांग्रेस और उसकी सहयोगी एनसीपी का कोई नेता उम्मीदवार बनने को तैयार नहीं था। ममता बनर्जी ने भी अपने मूल कैडर के किसी नेता पर दांव नहीं लगाया। यशवन्त सिन्हा भटकते हुए तृणमूल कांग्रेस में पहुँचे थे। ममता बनर्जी ने उनको ही आगे कर दिया। कांग्रेस और एनसीपी को यह संतोष था कि चुनाव प्रचार के दौरान वह नरेन्द्र मोदी पर हमला बोलते रहेंगे। इस तरह इन पार्टियों की राजनीति भी चलती रहेगी। इसलिए कांग्रेस को भी ममता बनर्जी की पार्टी के उम्मीदवार को कबूल किया था। चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी और यशवन्त सिन्हा के बयानों का स्तर लगभग एक जैसा था। इसलिए भी कांग्रेस को उनसे कोई आपत्ति नहीं थी। शायद इसीलिए कांग्रेस को लगा होगा कि उपराष्ट्रपति पद हेतु उसके उम्मीदवार को तृणमूल कांग्रेस स्वीकार कर लेगी। कांग्रेस ने शरद पवार और छोटे दलों के साथ मिलकर मारग्रेट अल्वा को उम्मीदवार घोषित करा दिया। उस बैठक में तृणमूल कांग्रेस का प्रतिनिधित्व नहीं था। राष्ट्रपति चुनाव का उम्मीदवार तृणमूल कांग्रेस का था। वह शुरू से अंत तक मुकाबले के बाहर ही रहे थे। ऐसे में तृणमूल कांग्रेस को पता था कि उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार कांग्रेस से होगा। इसलिए ममता बनर्जी ने अघोषित रूप से उपराष्ट्रपति उम्मीदवार चयन की बैठक का बहिष्कार किया था जिससे मतदान से अलग रहने का बहाना मिल जाए। यहीं हुआ। तृणमूल कांग्रेस ने कांग्रेस के उम्मीदवार को नकार दिया। तर्क वही सुनियोजित था। तृणमूल कांग्रेस ने कहा कि उम्मीदवार चयन में उससे सलाह-मशविरा नहीं किया गया। कालीघाट स्थित पार्टी कार्यालय में ममता बनर्जी के नेतृत्व में पार्टी के लोकसभा और राज्यसभा के सांसदों की बैठक हुई थी। उस बैठक में यह निर्णय किया गया है। राष्ट्रपति चुनाव में उम्मीदवार चयन पर ममता बनर्जी सर्वाधिक सक्रिय थीं। इसमें भी वह कांग्रेस को किनारे रखने का प्रयास कर रहीं थीं। उपराष्ट्रपति चुनाव में ममता बनर्जी पूरी तरह निष्क्रिय हो गईं। यह भी उनकी रणनीति थी। इसके अंतर्गत वह कांग्रेस को ही झटका देना चाहती थीं। उनकी यह रणनीति सफल हुई। मारग्रेट अल्वा के पक्ष में केवल संख्याबल ही कमजोर नहीं हुआ, बल्कि विपक्षी एकता में कांग्रेस के नेतृत्व को भी नकार दिया गया है। ममता बनर्जी ऐसा पहले भी कर चुकी हैं। इस बार यह कार्य अलग प्रसंग में हुआ है। तृणमूल कांग्रेस की तरफ से कहा गया कि विपक्ष के उम्मीदवार को लेकर उसकी अवहेलना की गई है। सभी सांसद और पार्टी के नेता ने मिलकर फैसला किया है कि मतदान से अलग रहा जाएगा। मार्गरेट अल्वा ने इस निर्णय को निराशाजनक बताया है। उन्होंने कहा कि यह समय अहंकार या क्रोध का नहीं है। मारग्रेट अल्वा के शब्द भी तृणमूल कांग्रेस पर हमले की तरह हैं। उन्हांेने अपरोक्ष रूप में ममता बनर्जी के निर्णय को क्रोध और अहंकार से प्रेरित बताया है। उनका कहना है कि यह साहस,नेतृत्व और एकता का समय है। इसका मतलब है कि ममता बनर्जी ने विपक्षी एकता के विरुद्ध कार्य किया है। उन्होने साहस और उचित नेतृत्व का परिचय नहीं दिया है। ममता बनर्जी ने कहा कि विपक्ष के उम्मीदवार चयन में उनसे परामर्श नहीं किया गया था।इस प्रकार विपक्षी एकता की असलियत एक बार फिर सामने आ गई है। इसके बाद राष्ट्रपति चुनाव की भांति उपराष्ट्रपति पद की विपक्षी उम्मीदवार मुकाबले से बाहर हो चुकी हैं। इस चुनाव से भी विपक्ष को कुछ हासिल नहीं हुआ। इस चुनावी कवायद से उसकी स्थिति हास्यास्पद अवश्य हुई है। विचार और मुद्दों के संबंध में उसके दावे भी बेमानी साबित हुए हैं।
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