हमारे नरेशों का शासन भी याद करें

हमारे नरेशों का शासन भी याद करें

(अशोक त्रिपाठी-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
इसी 12 जून 2022 को ब्रिटेन और कॉमनवेल्थ के इतिहास में सबसे लंबे समय तक राज करने वाली महारानी एलिजाबेथ द्वितीय का नाम दर्ज हुआ है। लगभग 96 साल की एलिजाबेथ दुनिया की सबसे उम्रदराज शासक भी हैं। उनसे पहले ये रिकॉर्ड क्वीन विक्टोरिया के नाम था, जिन्होंने 1837 से 1901 तक करीब 64 साल राज किया। ब्रिटेन की क्वीन एलिजाबेथ द्वितीय थाईलैंड के राजा भूमिबोल अदुल्यादेज की जगह लेंगी। कहा जा रहा है कि दर्ज इतिहास में अब तक सबसे लंबे वक्त तक राज करने वाले फ्रांस के किंग लुई 14वें हैं, जिन्होंने करीब 72 साल तक शासन किया लेकिन हमारे देश भारत के इतिहास को नजरअंदाज किया जा रहा है। महाराजा मनु जिनकी संतान मनुष्य कहलाए और महाराजा दुष्यंत के बेटे राजा भरत जिनके नाम पर हमारे देश का नाम भारत पडा उनके शासन काल का उल्लेख क्यों नहीं किया जाता। बाल्मीकि रामायण के अनुसार मर्यादा पुरुषोत्तम राजा राम ने 11000 वर्षों तक राज किया था।

फिलहाल एक सीमित इतिहास की बात करें तो दुनिया में अब तक सबसे लंबे समय तक शासन करने वाले राजा का खिताब किंग लुई 14वें के नाम है। टाइम मैगजीन के मुताबिक, उन्होंने करीब 72 साल राज किया। राजा भूमिबोल ने 70 साल और 126 दिन तक थाईलैंड पर शासन किया। उन्होंने 1946 में गद्दी संभाली थी और 2016 में मौत तक वह राजा रहे। उनका निधन 14 अक्टूबर 2016 को हुआ तब राजा भूमिबोल की उम्र 88 साल की थी। दुनिया में सबसे लंबे समय तक शासन करने वालों में एक नाम फ्रांज जोसेफ का भी है। वह ऑस्ट्रिया के राजा थे। उन्होंने 1848 से लेकर 1916 तक करीब 68 साल शासन किया। प्रथम विश्व युद्ध के बीच में ही उनका निधन हो गया। उनके शासनकाल में ऑस्ट्रिया और हंगरी

एक साम्राज्य का हिस्सा बन गए थे। फ्रांस जोसेफ ऑस्ट्रिया के सम्राट थे और हंगरी के राजा। भारत में भी

राजवंशों का शानदार इतिहास रहा है। सतयुग में महाराजा मनु का उल्लेख मिलता है।

स्वायंभू मनु अरु शतरूपा

जिनते भै नरसृष्टि अनूपा।

नृप उत्तानपाद सुत तासू

ध्रुव हरिभगत भयउ सुत जासू।

लघु सुत नाम प्रियव्रत ताही

वेद पुरान प्रसंसहि जाही।

देवहूति पुनि तासु कुमारी

जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी।

आदिदेव प्रभु दीनदयाला

जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला।

सान्ख्य शास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना

तत्व विचार निपुन भगवाना।

तेहि मनु राज कीन्ह बहु काला

प्रभु आयसु सब विधि प्रतिपाला।

आज कोई किसी भी संदर्भ में मनु का नाम थोड़ा ठीक-ठाक तरीके से ले ले, तो उसको दकियानूसी, अंधविश्वासी, नारीविरोधी, दलितविरोधी, जातिपरस्त और न जाने क्या क्या उपाधिया मिल जाएंगी।इसलिए कि मान लिया गया है कि जिस मनु नामक घृणित प्राणी ने उसे लिखा है वह दलितों का दुश्मन था, शूद्रों को अस्पृश्य मानता था, वेदों के मंत्रों की ध्वनि भी पड़ जाए तो उनके कानों में पिघला शीशा डालने को कहता था, स्त्रियों को हमेशा पराधीन रखने का पक्षपाती था, जात-पात फैलाने वाला था, ब्राह्मणवाद का पुरोधा था, वगैरह वगैरह। देश के इतिहासकारों से पूछना पड़ेगा कि जिस ग्रंथ का नाम मनुस्मृति है, अर्थात जो ग्रंथ मनु की स्मृति में लिखा गया, वह मनु द्वारा लिखा कैसे हो सकता है? कोई व्यक्ति अपनी ही स्मृति में कोई ग्रंथ कैसे लिख सकता है? यह ग्रंथ हिन्दू धर्म की मूल भावना से कतई मेल नहीं खाता है ऐसा कई लोगों का मानना है।

श्रीमद्भागवत पुराण में वर्णित कथा के अनुसार स्वायंभुव मनु के दो पुत्र थे- प्रियव्रत और उत्तानपाद। उत्तानपाद के वंश में ही भगवान विष्णु के परम भक्त ध्रुव पैदा हुए। प्रियव्रत बड़े आत्मज्ञानी थे। उन्होंने नारद से परमार्थ तत्व का उपदेश ग्रहण करके ब्रह्मचर्य में जीवन बिताने का दृढ़ संकल्प कर लिया। इससे ब्रह्या को चिंता हुई कि प्रियव्रत के इस परमार्थ तत्व के आग्रह से तो सृष्टि का विस्तार ही रुक जाएगा। स्वायंभुव मनु की आज्ञा का भी इस आत्मयोगी राजकुमार ने सम्मान नहीं किया। वह हंस पर सवार होकर राज कुमार प्रियव्रत के पास आए। देवर्षि नारद भी वहीं थे। ब्रह्मा को देखते ही नारद, स्वायंभुव मनु तथा प्रियव्रत उठ खड़े हुए और प्रणाम-सत्कार किया। ब्रह्मा ने सभी को आशीर्वाद देकर आसन ग्रहण किया।ब्रह्मा ने प्रियव्रत से कहा, ‘‘पुत्र! मैं तुमसे सत्य सिद्धांत की बात कहता हूं। हम सब तुम्हारे पिता, तुम्हारे गुरु यह नारद, भगवान महादेव तथा मैं स्वयं भी भगवान श्रीहरि की ही आज्ञा मानकर सारे कर्म करते हैं। उनके विधान को कोई नहीं जान सकता। उनकी इच्छानुसार ही सब कर्मों को भोगते हुए हम अपना जन्म सफल करने के लिए निस्संग होकर श्रीहरि के आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं जिनका चित्त श्रीहरि के पवित्र कथा-कीर्तन में डूब गया है वे किसी भी प्रकार की बाधा या रुकावट के कारण श्रीहरि के कथा श्रवण रूपी कल्याण मार्ग को नहीं छोड़ते।’’ब्रह्मा ने प्रियव्रत को उपदेश दिया, ‘‘पुत्र! भगवान के चरणों में मन लगाकर तो तुमने परमार्थ प्राप्ति का मार्ग पहले ही ढूंढ लिया है, अब तुम श्रीहरि द्वारा किए गए विधान के अनुसार भोगों को भोगो और अंत में परमात्मा में लीन हो जाओ।’’ प्रियव्रत ने नतमस्तक होकर ब्रह्मा की आज्ञा मान ली। मनु ने प्रियव्रत का विवाह प्रजापति विश्वकर्मा की पुत्री ब्रह्मष्मती से कर दिया और शासन का सम्पूर्ण दायित्व प्रियव्रत के ऊपर छोड़ कर श्रीहरि के भजन-कीर्तन के लिए वन को चले गए। राजा प्रियव्रत ने हजारों वर्षों तक पृथ्वी पर शासन किया। उसके दस पुत्र तथा एक कन्या हुई। उस कन्या का विवाह शुक्राचार्य के साथ हुआ था। राजा प्रियव्रत ने अपने सात पुत्रों को एक-एक द्वीप दे दिया। उनके तीन पुत्र बाल्यावस्था से ही निवृत्तिमार्ग पर निकल गए थे और संन्यास लेकर सांसारिक प्रपंच से दूर हो गए थे। राजा प्रियव्रत सब कर्मों से निवृत्त होकर पुनः अपने गुरु देवर्षि नारद की शरण में पहुंचे और उनसे प्रार्थना की, ‘‘भगवन! अब बहुत हो गया। अब मेरी सद्गति का मार्ग मुझे दिखाइए उन्होंने भगवान श्रीहरि की उपासना में अपना चित्त स्थिर कर लिया। प्रियव्रत के तपस्या में संलग्न हो जाने पर उनके पुत्र आग्नीध्र धर्मानुसार अपनी प्रजा का पालन करने लगे। एक बार वह मंदराचल पर्वत की सुरम्य घाटी में गए और वहीं तपस्या करने लगे। ब्रह्मा को फिर चिंता हुई। उन्होंने अपनी सभा की अप्सरा पूर्वचित्ति को राजकुमार का तप भंग करने भेजा। अप्सरा पूर्वचित्ति ने तपस्या में लीन तपस्वी राजकुमार का अपनी मोहक सुगंध, नुपूर ध्वनि एवं विभिन्न मादक कलाओं द्वारा ध्यान भंग कर दिया।राजकुमार ने आंखें खोलीं। अप्सरा के रूप-सौंदर्य पर मोहित होकर वह अप्सरा के साथ विलास में लिप्त हो गए। अत्यंत आसक्त होकर उन्होंने अप्सरा को प्रसन्न कर लिया। उनके नौ पुत्र हुए। उन्होंने हजारों वर्ष तक राजसुख भोगा। अप्सरा को भी वह परम पुरुषार्थ का स्वरूप समझते रहे जितने दिनों तक प्रियव्रत ने राज किया, वे प्रजा के हित में अनेक कल्याणकारी कार्य करते रहे। इस प्रकार भारत में राजाओं ने हजारों वर्ष तक राज्य किया है।
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