टूट गये सब घमंड के शीशे

टूट गये सब घमंड के शीशे

- मनोज मिश्रा
टूट गये सब घमंड के शीशे
दर्प चकनाचूर हुआ।
सत्ता गयी महत्ता गयी
मोह मद सब दूर हुआ।
सत्ता के जाते ही पिता याद आये
समय चक्र था घूम गया।
पुत्र मोह ने, गद्दी लोभ ने
जाने क्या क्या करवाया।
जिन के बूते था अस्तित्व बनाया
उनको सत्ता पाते ही भूल गए।
जिनके विरोध में बीता जीवन
उनके ही गले मे झूल गए।
बाप जिसे था कहता हिजड़ा
वो ही बनकर दिखलाया।
बाप को कर पीछे माला 
दुश्मन के गले मे पहनाया।
वीर सावरकर को भूले मद में
औरंगजेब ही याद रहा।
गठबन्धन AIMIM से किया
शिवजी महाराज को परे किया।
जेलों में आलोचक डलवाये
पकड़ घरों से पत्रकार मंगाए।
आम नागरिक को जरा न समझा 
खुद को ही भगवन मान लिया।
अब जब है सत्ता से दूरी 
औरंगजेब है नहीं जरूरी
संभाजीनगर नाम याद आया।
धाराशिव उस्मानाबाद बना
उलटफेर अब समझ मे आया।
फिर से हिन्दू हैं बन बैठे
अब फिर से होगी ठकुराई।
जनता को समझे हैं गदहा
खुद को मालिक की चतुराई।
नहीं जानते जनता भी अब 
चतुर सुजान हो गयी बहुत।
पहचानती इन गिरगिटों को
और जानती इनकी कीमत।
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