इतिहास के आधारभूत तथ्यों का स्मरण करने के लिये प्रतिभा और परिश्रम दोनों चाहिये

इतिहास के आधारभूत तथ्यों का स्मरण करने के लिये प्रतिभा और परिश्रम दोनों चाहिये

-प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज
वस्तुतः इतिहास एक महान शास्त्र है, जिसके लिखने के लिये बड़ी प्रतिभा और प्रचंड परिश्रमपूर्ण पुरूषार्थ आवश्यक होते हैं। परंतु 1947 ईस्वी के बाद नेहरू धड़े ने सोवियत संघ की नकल में भारत में मंदबुद्धि, आलसी और चाटुकार सोवियत एजेंटों को इतिहास के प्रोफेसर बनाकर तथा संचार माध्यमों एवं विभिन्न सरकारी संस्थानों द्वारा उनका आभामंडन कर इतिहास सामग्री के रूप में कचरा कबाड़ने वाले अल्पबुद्धि, प्रतिभाशून्य सेवकों को ही अधिकृत पाठ्यक्रम लेखक बना दिया और हिन्दुओं की समस्त नई पीढ़ी को ‘संगठित आत्मविस्मृति’ (अमेरिकी अध्येता काप्लान का शब्द) के गर्त में धकेल दिया। इसलिये यहाँ स्वतंत्र बुद्धि के पुरूषार्थियों की राज्य द्वारा पूर्णतः उपेक्षा की गई। भगवद्दत्त शर्मा से लेकर गुरूदत्त और पुरूषोत्तम नागेश ओक तक दिग्गज विद्वान उपेक्षित ही रहे। इसके कारण आधारभूत बातों के विषय में भी अज्ञान है।
स्वयं अर्नाल्ड टायनबी ने रोम के ईसाईकरण के विषय में पादरियों द्वारा जाली रचना तथा जालसाजी और धोखाधड़ी का उल्लेख किया है। भारत में तो पादरियों का और कंपनी कर्मचारियों का धंधा ही यही चला। कंपनी के कर्मचारियों की समस्या यह थी कि उन्हें इंग्लैंड में बार-बार यह सफाई देनी पड़ती थी कि वे मनमानी नहीं कर रहे हैं अपितु हिन्दुस्तान के बादशाह की अनुमति से यहाँ काम कर रहे हैं। इसलिये उन्होंने जिन मुस्लिम जागीरदारों से (उनकी कमजोरी और नपुंसकता के कारण) आसानी से व्यापार के नाम पर मनमानी की छूट मिल जाती थी, उन्हें ही हिन्दुस्तान का बादशाह दिखाना शुरू कर दिया। परंतु वस्तुतः ये जागीरदार बहुत सीमित इलाके में ही प्रभावी थे। फतहपुर सीकरी से दिल्ली तक के सकरंे इलाके को ही हिन्दुस्तान बताना कंपनी की तो मजबूरी समझ में आती है, परंतु स्वतंत्र भारत में भला इसकी क्या मजबूरी है? जाहिर है कि इतिहास लेखन के नाम पर मंदबुद्धि तथा प्रमादी एवं आलसी लोगों द्वारा सरकारी खजाने से धन लेते हुये पादरियों और कंपनी कर्मचारियों के लिखे की ही ‘कॉपी-पेस्ट’ करने का धंधा चलाया गया। इसमें षडयंत्र से कई गुना अधिक बुद्धि की मंदता, कर्तव्यहीनता, पुरूषार्थ शून्यता, बौद्धिक आलस्य और प्रमाद तथा जल्दी से सरकारी खजाने से मामूली रकम प्राप्त करने की आतुरता ही मुख्य रहे हैं। क्योंकि ये सब लोग निम्न मध्यवर्ग या मध्यवर्ग के आर्थिक अभावों से ग्रस्त परिवारों के मंदबुद्धि सदस्य रहे हैं। मेधावी लोग तो ‘सर्विसेज’ में और प्रौद्योगिकी में चले जाने का सिलसिला चल रहा था। इस विषय में थोड़े से तथ्यों की चर्चा उचित होगी।
मकदूनिया के जागीरदार का कोई भी वृतांत उसके समय में लिखा गया नहीं मिलता। 20वीं शताब्दी ईस्वी में ही उसके बारे में यूरोप के ईसाइयों ने विस्तार से लिखा है। सबसे पहले 19वीं शताब्दी ईस्वी में विलियम जोन्स ने बिना किसी प्रमाण के यह बात उछाली कि मैगस्थनीज की इंडिका में सिंकदर के भारत पर आक्रमण की बात कही गई है। परंतु तथ्य यह है कि उसे मैगस्थनीज की इंडिका की कोई भी प्रति प्राप्त ही नहीं हुई थी। या तो सुनी सुनाई अथवा मनगढ़त आधार पर यह बात उछाली। मैगस्थनीज की बातें एरियन, स्ट्राबो, डायोडोरस और प्लिनी ने उद्धृत की हैं ऐसा बताया जाता है परंतु इनमें से कोई मैगस्थनीज का समकालीन नहीं है अपितु उनके 400 वर्षों बाद हुआ था और वह एक सनातनधर्मी व्यक्ति था। उसकी भी कोई मूलपुस्तक कहीं भी उपलब्ध नहीं है अपितु उसके नाम तक को लेकर विवाद है। पहली बार एरियन के नाम से जो पुस्तक छपी वह 20वीं शताब्दी ईस्वी में ही छपी है। 1967 ईस्वी में स्टेटर ने अपनी पुस्तक ‘यवन और उनका अतीत’ में इसका उल्लेख किया तथा बाद में ब्रिटानिका और कैम्ब्रिज हिस्ट्री ने उसके विषय में छापा। कोई भी प्रामाणिक प्राचीन संदर्भ इन पुस्तकों में भी नहीं दिया है और केवल कल्पना और अनुमान के आधार पर यह लेखन किया गया है। मैक्रिन्डल ने 19वीं शताब्दी ईस्वी (1877 ईस्वी) के अंत में पहली बार एक पुस्तक लिखी - ‘मैगस्थनीज और एरियन द्वारा वर्णित प्राचीन भारत परंतु इसमें उसने मैगस्थनीज या एरियन की किसी भी रचना की मूल प्रति देखे जाने की कोई बात नहीं कही। अपितु यही कहा कि बाद के ईसाई लेखकों ने इनका हवाला दिया है परंतु कोई मूल प्रति कहीं नहीं मिली है।’ परंतु मुख्य बात यह है कि जब विलियम जोन्स ने पहली बार यह बात 1790 ईस्वी में एक व्याख्यान में कही थी, तब तक उनके पास न तो मैगस्थनीज की इंडिका की कोई प्रति थी और ना ही एरियन की। सुनीसुनाई बातों के आधार पर उन्होंने यह स्थापना एक भाषण में प्रस्तुत कर दी और वह भाषण उनके अपने द्वारा स्थापित एक छोटे से समूह के समक्ष दिया गया था जिसका नाम उन्होंने एशियाटिक सोसायटी रखा था। इसमें सबसे पहले तो विलियम जोन्स ने यह स्थापना प्रस्तुत की कि ग्रीक, लैटिन और संस्कृत भाषाओं का मूल एक ही है और इसलिये इन्हें भारोपीय (इंडोयूरोपियन) भाषा परिवार कहा जाना चाहिये। इसी क्रम में उन्होंने भारत के इतिहास के कालनिर्धारण करने का भी प्रयास किया और इसके लिये यह परिकल्पना प्रस्तुत की कि मेगस्थनीज ने किसी सेंड्राकोटस की बात कही है जो चन्द्रगुप्त मौर्य ही होना चाहिये और इसलिये अलेक्जेंडर का समय वही है जो चंद्रगुप्त मौर्य का समय है।
परंतु महत्वपूर्ण बात यह है कि जोन्स ने जो अन्य बातें कहीं थीं उनकी चर्चा तक अनुपस्थित है। उदाहरण के लिये उन्होंने जापानी, चीनी और इजिप्त मिश्र की भाषा को भी इसी भारोपीय मूल का बताया था। साथ ही जोन्स की यह स्थापना थी कि भारत के क्षत्रियों ने ही जाकर चीन में राज्य बनाया और चलाया है और इस प्रकार सभी चीनी मूलतः हिन्दू क्षत्रिय राजा एवं क्षत्रिय राजन्य वर्ग के ही वंशज हैं।
जोन्स ने जरथुस्त्र द्वारा रचित अवेस्ता का भी अनुवाद अंग्रेजी में प्रस्तुत किया परंतु बाद में पता चला कि जरथुस्त्र ने ऐसी कोई रचना नहीं लिखी थी और यह एक जालसाजी थी। वस्तुतः सूरत के पारसी व्यापारियों ने इंग्लैंड के शासन के समक्ष यह अपील की थी कि विलियम जोन्स जालसाजी करते हैं और मनमानी किताबें रचते हैं। यह भी कहा गया कि वे अपने ही हाथ से लिखकर ऐसी जाली रचनायें पारसी तथा अन्य भाषाओं में प्रस्तुत करते हैं और उन्हें प्राचीन पांडुलिपि बताते हैं। इसीलिये उन्हें ‘इम्पोस्टर’ कहा गया था।
वस्तुतः विलियम जोन्स ने पारसी भाषा को भारोपीय भाषा परिवार का अंग नहीं माना है और अवेस्ता की भाषा का संस्कृत से कोई संबंध भी नहीं माना था। यह तो बाद के यूरोपीय भाषा वैज्ञानिकों ने पाया कि पारसी भाषा का मूल संस्कृत ही है।
स्पष्ट है कि जाली पांडुलिपियां रचने के आरोपी विलियम जोन्स ने जब मेगस्थनीज की इंडिका की गप्प मारी, तब तक उसके पास कोई भी पांडुलिपि नहीं थी। ऐसा लगता है कि इन पादरियों ने या तो परस्पर सलाह कर या एक-दूसरे से प्रेरणा लेकर ये किस्से रचे और जोन्स के भाषण के लगभग 100 वर्ष बाद पहली बार मैक्रिन्डल ने यह पुस्तक प्रकाशित की जिसमें मेगस्थनीज और एरियन के द्वारा प्राचीन भारत का वर्णन किये जाने की बात कही है। परंतु साथ ही उसी पुस्तक में भारत के गौरवशाली इतिहास का भी वर्णन किया गया है, जिसका कोई भी उल्लेख एलेक्जेंडर या सिंकदर के भारत पर आक्रमण की बात करने वाले लोग नहीं करते। इससे स्पष्ट है कि एलेक्जेंडर का अफगानिस्तान या ईरान या सिंध की सीमा तक आने का कोई भी समकालीन साक्ष्य नहीं है। परंतु इससे भी अधिक महत्व की बात यह है कि यवन और मकदूनिया तो तब तक भारत का ही हिस्सा थे और इसलिये यहां का कोई राजा अगर अपने आस-पड़ोस में अपनी वीरता के प्रदर्शन के लिये अथवा किन्हीं अन्य कारणों से कोई युद्ध करता भी है तो उसे भारत पर किसी विदेशी आक्रमण की संज्ञा नहीं दी जा सकती।
विलियम जोन्स की इस परिकल्पना के प्रस्तुत होते ही ऐसी ही अन्य गप्पों की उड़ाने इतिहास का आधार बनाई जाने लगीं और शकों, हूणों, दरदों तथा बाह्लीक लोगों के द्वारा भारत पर आक्रमण किये जाने की भी बात फैला दी गई। जबकि भारतीय साक्ष्यों के अनुसार ये सभी प्राचीन भारतवंशी क्षत्रिय ही हैं और इनके अन्य भारतीय राजाओं से युद्ध भारतीय राजाओं की वीरता की अपनी परंपरा का ही एक सामान्य अंग हैं, वे कोई विदेशी आक्रमण नहीं हैं।
विशेषकर जब शकों और हूणों तथा कुषाणों के परम भागवत, परम माहेश्वर और निष्ठावान शैव होने के अकूत प्रमाण भारत में उपलब्ध हैं, तब भी उन्हें विदेशी बताकर भारत पर विदेशी आक्रमण की गप्पे गढ़े जाने का क्रम 19वीं शताब्दी ईस्वी में पहली बार शुरू किया गया और 20वीं शताब्दी ईस्वी में उसे सघन विस्तार दिया गया। यह क्रम आगे चलकर भारत के भीतर उत्पात करने वाले समूहों को भी विदेशी आक्रमणकर्ता बताते हुये किया गया है। जिनमें कासिम, गजनी, घूरी और बाबर मुख्य हैं। जिनकी वास्तविकता हम पहले के लेखों मंे बता चुके हैं।
18वीं शताब्दी ईस्वी के अंत तक यूरोप के लोगों को स्वयं यूरोपीय देशों के विषय में अधिक पता नहीं था। परंतु फिर भी थोड़ा बहुत पता था क्योंकि वह सम्पूर्ण मुख्य यूरोपीय भूमि भारत के बराबर ही थी और 17वीं तथा 18वीं शताब्दी ईस्वी में वे लोग अपने आस पड़ोस के देशों में कुछ अधिक जाने आने लगे थे। वहाँ भारत और दक्षिण एशिया जैसी सघन बस्तियां तो थी ही नहीं, पर्वतों, जंगलों और दलदली इलाकों से पटी धरती पर छिटपुट घरों के झुंड होते थे जैसे उत्तराखंड की विरल ऊंचाइयों पर हैं।
पहले तो शताब्दियों तक चर्च के प्रभाव से राजाओं और पादरियों को छोड़कर अन्य लोग अपने इलाके से दूर बहुत ही कम जाते थे। फिर विश्व का तो उन्हें कुछ पता था ही नहीं। मार्कोपोलो अवश्य भारत और चीन की यात्रा करके 13वीं शताब्दी ईस्वी के अंत में लौट आया था परंतु उसके हस्तलिखित संस्मरणों की प्रतियां बहुत थोड़े से लोगों के पास विशेषकर इटली, फ्रांस और जर्मनी तक पहुंची थीं। सम्पूर्ण यूरोपीय क्षेत्र में यह खबर फैलने में वहां लगभग 200 वर्ष लगे। क्योंकि हर जगह विभिन्न ईसाई पंथों की खूनी टकराहटें भीषण थीं और स्वयं हर इलाके के क्षत्रप लोग अपने-अपने राजा से और अधिक अधिकार के लिये लड़ने में लगे थे। इंग्लैंड में 16वीं शताब्दी ईस्वी के अंत तक कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट ईसाई एक दूसरे की जान के प्यासे हो रहे थे और इंग्लैंड के नाविक स्पेन और पुर्तगाल के कथित जहाजों को, जो वस्तुतः बड़ी नाव जैसे ही थे, धन के लोभ में लूटने में लगे थे। 17वीं शताब्दी ईस्वी के आरंभ में भी इंग्लिश चैनल में स्पेनिश और अंग्रेज के नाविकों की आपसी मारकाट हो रही थी। ब्रिटिश महारानी अपने यहां के प्रसिद्ध डकैतों को कमीशन देने की शर्त पर स्पेन और पुर्तगाल के नाविकों को लूट कर धन इंग्लैंड लाने को प्रोत्साहित कर रहीं थीं। अमेरिका से लूट कर लौट रहे लूट के माल को लेकर ही स्पेन और इंग्लैंड के डकैत एक-दूसरे की जान ले रहे थे और जो डकैत ज्यादा माल लूट लेता, उसे दोनों देशों के शासक अपने हिस्से का कमीशन लेकर ही देश के भीतर आने देते थे। इससे अधिक किसी जानकारी को जुटाने का इन समाजों के पास समय नहीं था और सारी योजना लूट को अधिक से अधिक बढ़ाते जाने की ही चल रही थी।
ईस्ट इंडिया कंपनी ने भी रानी को कमीशन देने की शर्त स्वीकार कर भारत में कालीमिर्च और मसालों का व्यापार करने की अनुमति प्राप्त की थी और भारत के राजाओं तथा नवाबों को भी शुरू में वे मुनाफे की रकम देते थे। यहां के राजाओं की उदारता को जानकर अपने ईसाई संस्कारों के अनुरूप उन्होंने कृतघ्नता और छलपूर्वक उसका लाभ उठाने के काम शुरू किये और 18वीं शताब्दी ईस्वी में इसी विचार के कारण वे लोग भारत के अलग-अलग समुदायों का अपने लिये उपयोगी विवरण इकट्ठा करने लगे ताकि यह स्पष्ट हो कि किस प्रकार उनकी आपस में चल रही लड़ाई को और धधकाया जा सकता है।
अलेक्जेंडर डाउ और जेम्स टाड आदि ने स्वयं लिखा भी है कि कंपनी को लाभ पहुंचाने के लिये ही वे भारत के राजाओं और नवाबों के यहां जाकर उनसे विनती करके कुछ ऐसे पंडितों और पटेलों को अपने लिये जानकारी देने के लिये नियुक्त करवाते हैं और फिर ये पंडित और पटेल जो कुछ बताते हैं, उसे वे लिखते जाते हैं तथा संपूर्ण जानकारी को संकलित कर कंपनी के अफसरों के सामने उसे अपनी टिप्पणियों के साथ ऐसे प्रस्तुत करते हैं जिससे कि कंपनी के अफसरों को समझ में आ जाये कि यहां हिन्दुओं और मुसलमानों तथा राजपूतों और मराठों या सिखों और अन्य हिन्दुओं या तमिल और तेलगु लोगों या मलयाली और तमिल लोगों को आपस में कैसे लड़ाकर वहां लाभ की स्थिति बनाई जा सकती है।
19वीं शताब्दी ईस्वी में जब इस दिशा में उल्लेखनीय प्रगति होने लगी, तब उन लोगों ने और अधिक जानकारी जुटाकर और अधिक धन प्राप्त करने के लिये दस्तावेज रचने प्रारंभ किये जिन्हें बाद में भारत का इतिहास कह दिया गया। उनकी जानकारी इतनी कम थी कि वे स्वयं उससे असंतुष्ट थे और बाद में उन्होंने तुर्की और फारस में भारतीय मुस्लिम नवाबों के किस्से प्राप्त करने का दावा किया और उस दावे को प्रस्तुत करने के ढंग में इतनी पोल थी कि वे स्वयं ही बीच-बीच में यह स्पष्ट करते गये कि जहां हमें पर्याप्त सामग्री नहीं मिली है वहां हमने अपनी बुद्धि से कड़ियों को जोड़ा है (जो झूठ लिखने को ही दी गई संज्ञा है)।
प्रसिद्ध ब्रिटिश लेखक जान के ने अपनी पुस्तकों ‘इंडिया डिस्कवर्ड’ और ‘इंडिया ए हिस्ट्री’ में यह स्पष्ट किया है कि 19वीं शताब्दी ईस्वी तक यूरोप के उन सभी लोगों को जो यूरोप में स्वयं को भारत का विशेषज्ञ बताकर पर्चे लिख-लिखकर उनकी बिक्री से कमाई कर रहे थे, उन्हें यह तक नहीं पता था कि भगवान बुद्ध कौन है? वे कोई अफ्रीकी योद्धा हैं या कहीं के राजा हैं या कोई फकीर हैं? जान के ने बड़े विस्तार से उन मनोरंजक घटनाओं को लिखा है, जिनसे तत्कालीन यूरोपीयों की इस विषय में गैरजानकारी की दशा खुलकर सामने आती है।
सबसे पहले जेम्स प्रिन्सेप नामक एक पादरी ने जो वस्तुतः एक पत्रकार भी था और एक नौसिखुआ जौहरी भी, कंपनी की नौकरी में भारत आकर यहां से ‘एशियाटिक सोसायटी आफ बेंगाल’ नामक एक पत्रिका का सम्पादन शुरू किया और कुछ ही दिनों में उसने यह दावा कर दिया कि वह संस्कृत का जानकार है। उसने कुछ ही समय मंे स्वयं को मशीनों का और रसायनशास्त्र का भी जानकार प्रचारित किया और भारतीय राजाओं की नकल में कंपनी ने सिक्कों की ढलाई की पहली टकसाल जो कोलकाता में मुर्शिदाबाद के नवाब के लिए खोली थी, उसमें जौहरी या सहायक पारखी के रूप में नौकरी शुरू की।
भारत में घूमते हुए कुछ ही समय में जेम्स प्रिंसेप ने दावा किया कि उसने ब्राह्मी लिपि पढ़ ली है। जाहिर है कि किसी पंडित से पूछ कर उसने जो समझा, उसे ही स्वयं के जानकार होने के प्रमाण की तरह प्रस्तुत कर दिया।
उसने एक अभिलेख में ‘देवानाम पियदस्सी’ लिखे होने का दावा किया। जिसका किस्सा भी रोचक है। वह मुंबई के पास की गुफापुरी में गया और उसने वहां अनेक गुफायें और उनमें अंकित चित्र देखे। तब तक पुर्तगाली उस गुफा में आ चुके थे और उन्होंने वहां जगह-जगह हाथियों की मूर्तियां बनी देखीं जो किसी मंदिर के सामने बनी थीं। वे उनमें से एक बड़े हाथी की मूर्ति को बैलगाड़ी में खींचकर ले जाने की कोशिश करने लगे। आज इतिहासकार यह अनुमान करते हैं कि कल्चुरी सम्राट कृष्णराज का वह क्षेत्र था और उन्होंने वहां अनेक विशाल शिवमंदिर बनवाये थे। प्रसिद्ध संस्कृत महाकवि एवं नाटककार दंडी के ‘दशकुमारचरितम’ में इन गुफाओं का उल्लेख है। जब पुर्तगाली लोग हाथियों की इन मूर्तियांे को ढोकर नहीं ले जा सके क्योंकि वे बहुत वजनी थीं, तब उन्होंने कतिपय मुसलमान दुष्टों को लेकर द्वेषवश और हिंदू धर्म के प्रति अपनी घृणा के कारण हथोड़ों से उनको तोड़ना शुरू कर दिया और अधिकांश हाथी मूर्तियां कुरूप बना डालीं। साथ ही यह बात फैलाई कि मुसलमानों ने हिंदू धर्म से द्वेष के कारण और मूर्तिपूजा के विरोध के कारण ये मूर्तियां तोड़ी हैं। उन्होंने मंदिरों के समक्ष लगे अधिकांश अभिलेख भी नष्ट कर दिये तथा उनके टुकड़े परिसर में फैला दिये। ऐसे ही एक पाषाण खंड में उक्त ब्राह्मी लिपि के अभिलेख को भारतीय पंडित की मदद से पढ़कर जेम्स प्रिन्सेप ने दावा किया कि उसमें ‘देवानामपियदस्सी’ लिखा है। हाथी की इन मूर्तियांे के कारण ही वे लोग इन गुफाओं को ‘एलीफैन्टा केव्स’ कहने लगे। जबकि वस्तुतः वह विशाल शिवमंदिरों का क्षेत्र रहा है।
कुछ समय बाद एक अन्य ब्रिटिश पादरी जार्ज टर्नर ने कहा कि यह ‘देवानामपियदस्सी’ शब्द अशोक नामक एक क्षत्रप के लिये कहा गया है। इसके बाद अलेक्जेंडर कनिंघम और फिर उनके साथी जान हर्बर्ट मार्शल ने धन के लोभ में सभी प्राचीन स्थलों की खुदाई शुरू कर दी और इसे भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग नाम दिया। पहले कनिंघम फिर मार्शल इस विभाग के महानिदेशक बन गये। तब तक कंपनी के विरूद्ध प्रचंड भारतीय विक्षोभ के कारण इंग्लैंड के शासकों ने भारतीय राजाओं से संधि कर कंपनी के कब्जे वाले इलाके में सबकी सहमति से और सुंदर व्यवहार करने का वचन देते हुये अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया था। तब भी जान हर्बर्ट मार्शल को भारत के इतिहास के विषय में कोई विशेष जानकारी नहीं थी। उन्होंने कर्जन से सहमति प्राप्त कर 20वीं शताब्दी ईस्वी के आरंभ में भारतीयों की सहायता से अनेक स्थानों की खुदाई प्रारंभ की। सबसे पहले तक्षशिला की खुदाई शुरू की जो 20 वर्ष तक चली। इसके बाद सांची और सारनाथ के स्तूपों की खुदाई प्रारंभ हुई। इन स्तूपों में ऊपर से नीचे घुसा गया। क्योंकि यह अनुमान था कि किसी भी तल पर अकूत धन प्राप्त हो सकता है। स्तूपों में धन गड़े होने का अनुमान स्थानीय लोगों से दी गई जानकारी के आधार पर किया गया था। उसी अवधि में मार्शल ने ‘मिया जो दरो’ (मुर्दों का टीला) की भी खुदाई शुरू की। जहां सोने और चांदी के बहुत से सिक्के मिले और साथ ही एक समृद्ध सभ्यता के अवशेष मिले जिन्हें उसने हड़प्पा की सभ्यता कहा। तब तक भी अशोक के विषय में ये लोग बहुत स्पष्ट नहीं थे।
अशोक के विषय में पहला संकेत अलेक्जेंडर कनिंघम को विदिशा की खुदाई में मिला। जब वह विदिशा नगर के एक विशाल किले की पश्चिमी दीवार को धन के लोभ में गिराकर खोद रहा था। यहां अनेक सिक्के मिले, जिनमें से एक सिक्का क्षत्रप अशोक का था। विदिशा में ही एक गरूड़ स्तंभ मिला जिसे यवन राजदूत हेलियोदोरस ने विष्णुमंदिर के सामने खड़ा किया था। गरूड़ स्तंभ में लिखे अभिलेख में कहा गया है कि यह स्तंभ भगवान वासुदेव को समर्पित है। इसी क्षेत्र में एक प्रसिद्ध सूर्यमंदिर के अवशेष भी मिले। जिससे पता चला कि यहां राष्ट्रकूट सम्राट कृष्ण तृतीय का शासन था और उन्होंने ही यह सूर्यमंदिर बनवाया है। कनिंघम ने अटकल-पच्चू अनुमान व्यक्त किया कि इसे इल्तुतमिश ने तोड़ा होगा। इस क्षेत्र में अनेक मंदिर पाये गये हैं। इसी क्षेत्र में विदिशा से पांच मील की दूरी पर उदयगिरि नगर है जहंा हिन्दू देवी-देवताओं और जैन तीर्थकंरों की मूर्तियां एवं अन्य भव्य मूर्तियां मिलीं हैं। उदयगिरि में ही अशोक का वह स्तंभ भी मिला जिसमें धर्मचक्र प्रवर्तन के प्रतीक सहित सिंह की मूर्तियां हैं। कनिंघम ने इन सब का अनुमान लगाकर अशोक को कोई पश्चिमी क्षत्रप माना। हूणों और यवनों के भारतीय क्षत्रियों में से एक होने के प्रचुर प्रमाण मिलने पर भी, अपनी कुटिल कूटनैतिक बुद्धि के कारण इन लोगों ने हूणों और यवनों को विदेशी घोषित कर हिन्दुओं पर उनकी विजय दर्शाने की बारम्बार कोशिशें कीं और बेधड़क लिख मारा। उनके भारतीय चेले आज तक उनकी अटकलों को इतिहास बताते हुए दोहराए जा रहे हैं।
स्पष्ट है कि 19वीं शताब्दी के अंत तक अंग्रेजों तथा अन्य यूरोपीय लोगों को भारतीय इतिहास की बहुत कम जानकारी थी और वे स्थानीय लोगों से पूछ-पूछकर तथा स्थानीय लोगों की सहायता से कुछ मंदिरों और स्तूपों की खोज और खुदाई करने के काम में तल्लीन थे और नित्य नये-नये निष्कर्ष निकालते थे। उन्हें देशभर में जगह-जगह भगवान बुद्ध की मूर्तियां मिलीं, जिन्हें उन्होंने पहले कोई ग्रीक राजा बताया। बाद में अनुमान किया कि शायद यह कोई ग्रीक फकीर है। कुछ ने यह भी अनुमान किया कि यह अफ्रीका से आये किसी हब्शी योद्धा का चित्र है। इसी प्रकार दक्षिण में अशोक के स्तंभ मिलने पर पहले तो उन लोगों ने यह माना कि यह श्रीलंका का कोई राजा है जिसने भारत के इस हिस्से को जीता था। अधिक जानकारी होने पर जब उन्हें बार-बार अलग-अलग स्थानों पर अशोक का नाम मिला तो उन्होंने अशोक के विषय में पुराणों की छान-बीन शुरू की। (देखें, जान के की पुस्तक इंडिया डिस्कवर्ड का छठा अध्याय)
वस्तुतः भारत का समस्त इतिहास आजतक विश्व में जिस किसी ने भी लिखा है, उसने मुख्य आधार भारतीय पुराणों का ही लिया है। क्योंकि और कोई आधार उनके पास है ही नहीं। लेकिन फिर अपनी प्रवृत्ति और पृष्ठभूमि के अनुसार स्वयं को मौलिक दिखाने की होड़ में हर एक ने पुराणों के विवरणों में कुछ दोष ढूँढ़कर अपनी-अपनी अटकलें लगाईं हैं। अशोक के विषय में समस्या यह थी कि पुराणों में उसका कोई विशेष उल्लेख नहीं मिलता। वहां मौर्यों का उल्लेख अवश्य है परंतु अशोक का अलग से कोई उल्लेख नहीं है। अंग्रेजों की समस्या यह थी कि वे हिन्दुओं में व्याप्त आत्मगौरव की भावना से बहुत परेशान थे और अपने फैलाव के मार्ग में उसे सबसे बड़ी बाधा मानते थे। इसलिये उन्हें यह बैचेनी थी कि वे भारत के महानतम सम्राट किसी गैर हिन्दू को ही बतायें। जगह-जगह अशोक के स्तंभ और अभिलेख मिलने के कारण उन्होंने निश्चय किया कि हम अशोक को बौद्ध सम्राट के रूप में प्रस्तुत करेंगे और उसे महानतम भारतीय सम्राट बतायेंगे। इस प्रकार 20वीं शताब्दी ईस्वी में पहली बार भारत के इतिहास में अशोक का महत्व अंग्रेजों तथा अन्य यूरोपीय ईसाइयों ने प्रतिष्ठित किया और उसे बौद्ध बताया।
इसका प्रारंभ 19वीं शताब्दी ईस्वी में विलियम जोन्स ने कर दिया था क्योंकि तब तक जर्मनों सहित अनेक यूरोपीय विद्वानों ने यह बड़े आश्चर्य के साथ स्वीकार कर लिया था कि भारतीय संस्कृत साहित्य विराट और भव्य है तथा विश्व में बेजोड़ है। इसलिये वे किसी भी रूप में स्वयं को भारत से जोड़ने को बैचेन रहते थे परंतु ईसाइयत के अपने संस्कारों के कारण बंगाल में थोड़ी सी सफलता मिलते ही उन्हें कुछ ज्यादा ही घमंड हो गया और वे अपने को हिन्दुओं से श्रेष्ठतर बताने की होड़ करने लगे। उनकी गपोड़बाजी का स्तर यह था कि जब भारत के एक इलाके बंगाल के थोड़े से हिस्से में उन्हें जमींदारी और सामान्य व्यापार जो उस इलाके के व्यापार का बहुत छोटा हिस्सा था, करने में सफलता मिली तो वे भयंकर क्रूरता के साथ अन्य प्रतिस्पर्धी व्यापारियों और जागीरदारों को नष्ट करने लगे। अपने को शिक्षा में अग्रणी बताने लगे और अपने भारतीय नौकरों के द्वारा एक नकली मांग फैलाने लगे कि भारत में अंग्रेजी शिक्षा दी जानी चाहिये। इसी के साथ उन्होंने भारत में न्याय के प्रति गहरा आदरभाव देख कर बिना वास्तविक योग्यता वाले अपने कर्मचारियों को जज बनान शुरू किया और कोलकाता के एक किले में जो अधिक बड़ा नहीं था, एक सर्वोच्च न्यायालय की घोषणा कर दी।
वस्तुतः यह स्वयं उनके शब्दों में ईस्ट इंडिया कंपनी के मामलों के विषय में सर्वोच्च न्यायालय था जो उनका अपना एक भीतरी प्रबंध था। परन्तु बाद में भारत में उनके चेलों की ऐसी वाचाल मंडली तैयार हुई जो उसे आज तक महान भारतीय न्याय परंपरा का अपमान करते हुये, स्वयं भारत का सर्वोच्च न्यायालय प्रचारित करती है। ऐसे फरेबी और वाचाल लोगों का एक सरगना निकला विलियम जोन्स जिसने 4 वर्षों में बीच-बीच मंे कुछ-कुछ घंटों तक एक भारतीय बंगाली कायस्थ बंधु से अपमान सहते हुए भी कामचलाऊ संस्कृत सीखने के बाद स्वयं को वेदों का अधिकारी विद्वान प्रचारित कर दिया और उसी ने एक भारोपीय (इंडो यूरोपियन) भाषा परिवार की कल्पना प्रस्तुत की और प्रयास किया कि संस्कृत को ही मूलतः लेटिन और यवन भाषाओं से विकसित बताया जाये। स्पष्ट है कि इन धूर्तों और असत्य से भरे हुये ख्रीस्तपंथी उन्मादियों, जिन्हें स्वयं यूरोप में अब प्रबुद्ध जनों के द्वारा मनोरोगी और सेक्स संबंधी ‘आब्सेशन’ तथा विकृतियों से बजबजाते रूग्ण लोग लिखा और कहा जाता है, के द्वारा रचित जाली कागजातों को स्वतंत्र भारत में इतिहास का आधार बनाने वाले लोग स्वयं कितने मंदबुद्धि हैं। यह अलग बात है कि उनमें से बहुत से लोग सचमुच हिन्दुत्व की भावना से भी प्रेरित हैं परंतु बौद्धिक आलस्य और प्रमाद के कारण इन विषयों में न तो परिश्रम करना चाहते और न ही भगवददत्त जी से लेकर विभिन्न आर्य समाजी इतिहासकारों को पढ़ना तक चाहते। अधिक मेहनत तो क्या करेंगे।
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