चक्रवर्ती सम्राट छत्रपति शिवाजी महाराज

चक्रवर्ती सम्राट छत्रपति शिवाजी महाराज

प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज
इतिहास लेखन की सबसे प्राचीन परंपरा भारत में ही रही है। यूरोप में तो 150 वर्ष पहले ‘हिस्ट्री’ नाम का कोई विषय पढ़ाया ही नहीं जाता था। ‘स्टोरी’ से 19वीं शताब्दी ईस्वी में ‘हिस्ट्री’ शब्द बनाया गया, इसमें आरंभ में ‘एच’ अक्षर ‘कैपिटल’ रूप में जोड़कर। अंग्रेजी में कैपिटल ‘एच’ का प्रयोग ‘गॉड’ या ‘सम्राट’ के लिये किया जाता है। अतः राजाओं की कहानियां ‘हिस्ट्री’ हैं। जबकि जैसा मानव इतिहास में यानी कालप्रवाह में घटित होता आया है, उसका यथावत और प्रामाणिक वर्णन इतिहास है। परंतु विगत 150 वर्षों में यूरोप में ‘हिस्ट्री’ लेखन की जो परंपरा क्रमशः विकसित हुई है, उसका भी अनुसरण 75 वर्षों के विचित्र प्रकार के भारतीय शासन के द्वारा संरक्षित बौद्धिकों द्वारा नहीं किया गया। यहाँ कुछ अलग ही ढंग से, अटपटे ढंग से इतिहास लिखा गया है। प्रत्येक राष्ट्र या राज्य जब अपना इतिहास लिखता है तो वह अपने लोगों को और अपने शासकों को ध्यान में रखकर लिखता है।
महाराणा प्रताप 16वीं शताब्दी ईस्वी के उत्तरार्द्ध में भारत के चक्रवर्ती सम्राट थे। उनके थोड़े समय बाद एक बिखराव की स्थिति आ गई। परंतु 50 वर्षों के भीतर ही उस अभाव की पूर्ति करने वाले महान धर्मवीर तथा अद्वितीय सेनापति के रूप में शिवाजी उभरे। उन्हांेने और महाराज छत्रसाल ने मिलकर भारतभूमि पर पुनः राजधर्म की स्थापना की। दोनों के डर से तथा महाराज जयसिंह और महाराज जसवंत सिंह के साथ वचनभंग और विश्वासघात करने के बाद से राजपूतों ने भी उसका साथ छोड़ दिया और जाटों के साथ गद्दारी के कारण जाट आगरा और फतहपुर सीकरी में उसके निवास पर बारम्बार आक्रमण करने लगे। इन सबके भय से मुइउद्दीन ने, जो अपने को औरंगजेब कहलाता फिरता था, फतहपुर सीकरी की अपनी राजधानी छोड़कर दक्षिण में जगह-जगह भटकते और छिटपुट लड़ाइयाँ लड़ते हुये गुजरात के भीनगर में दम तोड़ दिया। जिस राज्य में वह जन्मा था, वहीं मरा और उसकी कब्र बार-बार खोदी और बदली गई।
शिवाजी का जन्म 19 फरवरी 1630 ईस्वी को जुन्नारगढ़ के शिवनेरी किले मंे हुआ था और 50 वर्ष की उम्र में उनका देहांत ‘हिन्दवी स्वराज’ के रायगढ़ किले में हुआ। इससे ही स्पष्ट है कि वे राजा के रूप में जन्में और सम्राट के रूप में ही परलोक सिधारे। इसकी तुलना यदि मुइउद्दीन से करें तो स्थिति स्पष्ट हो जायेगी। मुइउद्दीन का जन्म 3 नवंबर 1618 ईस्वी को गुजरात के दाहोद मंे एक सामान्य स्थान पर हुआ और उसकी मृत्यु भी गुजरात में ही अहमदनगर के पास एक फौजी तम्बू में हुई।
निरन्तर युद्ध में संलग्न रहने के कारण शिवाजी के वीर पिता शाहजी ने दादाजी कोंडदेव कुलकर्णी को शिवा की शिक्षा-दीक्षा तथा संस्कार का दायित्व सौंपा। माता जीजाबाई देवलगाँव के राजा लखुजी यादव तथा महालसाबाई यादव की लाड़ली बेटी थीं, जो शाहजी भोंसले को 16 वर्ष की आयु में ब्याही गईं। माता जीजाबाई यादव सम्राटों के कुल की थीं और यदुवंशियों की महान परंपरा तथा संस्कारों को उन्होंने आत्मसात किया था। भगवान श्रीकृष्ण की वंश परंपरा में जन्मी माता जीजाबाई ने और धर्मज्ञ ब्राह्मण दादाजी कोंडदेव ने शिवाजी में किशोरावस्था से ही धर्मनिष्ठा, देशभक्ति, शौर्य, तेजस्विता, रणकौशल तथा राजनय के संस्कार भरे। अपने स्वयं के पूर्वजन्मों के संस्कारों के साथ किशोरावस्था से ही शिवाजी ने अपनी विलक्षणता और विश्ष्टिता का प्रमाण दिया। बाद में समर्थ स्वामी रामदास की प्रेरणा से वे और भी अधिक उन्नत व्यक्तित्व के स्वामी बनते चले गये।
19वीं शताब्दी ईस्वी में ईस्ट इंडिया कंपनी के मुलाजिमों ने हिन्दुओं के आत्मगौरव से त्रस्त होकर उन्हें नीचा दिखाने के इरादे से घोषणापूर्वक फर्जी इतिहास की रचना की। उनकी यह घोषणा इलियट और डाउसन द्वारा संपादित कई खंडों वाली पुस्तक के पहले ही खंड मंे स्पष्ट है। बिना किसी भारतीय साक्ष्य के इन्होंने तुर्की और मध्य एशिया के किन्हीं इलाकों में मिली कथित प्रतियों का हवाला देकर मुसलमानों के उत्पात और अनाचार को सैकड़ों गुना बढ़ाकर दिखाते हुये हिन्दुओं में हीनता भरने वाली गप्पे रचीं। वही बाद में इतिहास कहकर पढ़ाया जाता रहा क्यांेकि भारत में विभिन्न राज्यों में उपलब्ध अभिलेखों के स्थान पर फिरंगियों की गप्पों की नकल मारना प्रमादी लेखकों के लिये आसान है। इसीलिये शिवाजी के पूज्य पिताजी शाहजी को मुसलमानों के अधीनस्थ दर्शा दिया जाता है और बहमनी तथा आदिलशाही जागीरों के सच को छिपाया जाता है।
ब्राह्मण नरेश गंगाधर शास्त्री की एक पारसीक रक्षिता से उत्पन्न बेटे हसन गंगाधर ने बहमनी जागीर की स्थापना की। 20वीं शताब्दी ईस्वी में अर्थात् 600 वर्षों बाद मुस्लिम लेखक उसे हसन गंगू बताने लगे। सच यह है कि बहमनी जागीर में सभी महत्वपूर्ण पद जिसमें सेनापति तथा कोष प्रमुख आदि हैं, हिन्दुओं के पास ही थे। बहमनी जागीर की राजभाषायें मराठी, कन्नड़ और पारसीक भाषायें थीं। भारतीय संगीत, नृत्य और कलाओं का वहां सरंक्षण होता था। इसी बहमनी जागीर के एक सेवक आदिल खान ने बाद में अपनी अलग जागीर बनाई। उसे 19वीं शताब्दी ईस्वी तक आदिल खान ही कहा जाता था। क्योंकि वह अपनी मंगोल उपाधि को ही प्रयुक्त करता था। इन सबको शाह उपाधि देने का काम भी अंग्रेजों की जाली रचनाओं में किया गया। बाद में अंग्रेजों के हिन्दू चेलों ने उसी को सच मान लिया।
सच यह है कि आदिलशाही जागीर का मूल संस्थापक युसूफ आदिल बहमनी (ब्राह्मण पुत्र द्वारा स्थापित) राज्य का एक प्रधान सेवक था। वह सनातनधर्मी था और उसने इंदापुर के मराठा राजा की बहन पुनजी से विवाह कर अपना प्रभाव स्थापित कर लिया था। मराठा वीरांगना पुनजी कुशल योद्धा थीं और पति की मृत्यु पर कुछ जागीरदारों द्वारा जागीर पर कब्जे की कोशिश का विरोध उन्हांेने पुरूष वेश धारण कर वीरतापूर्वक किया तथा बीजापुर की गद्दी पर अपने बेटे को बैठाया और इसीलिये बीजापुर की गद्दी से मराठों का गौरवपूर्ण संबंध बना रहा। यही कारण है कि शिवा के पिता शाहजी भी संकट की स्थिति में बीजापुर की गद्दी की रक्षा में ही जुट गये। मूर्खों ने इसे भारत की परिस्थिति और परंपरा को जाने बिना तुर्कों की अधीनता कह दिया है और अब तो वज्र मूर्ख लोग इसे मुसलमानों की अधीनता भी बताने लगे हैं।
यूसुफ के प्रधान सेनापति का नाम कालिदास मधु था। पुनजी ने उसे बाद में भी सेनापति बनाये रखा और उसने इस्माइल आदिल खान की भी सेवा की। इसी जागीर में इब्राहिम आदिलशाह ने गगन महल बनवाया। इसी वंश में अली आदिलखान की पत्नी चांदबीबी ने जलालुद्दीन (अकबर) की सेनाओं का वीरतापूर्वक मुकाबला किया था। चांदबीबी मराठी तथा कन्नड़ की जानकार थीं, धनुषबाण चलाने और घुड़सवारी में निपुण थी तथा कर्नाटक संगीत में दक्ष थी और पुष्प उद्यान रचना तथा संवारना एवं वीणा वादन उसके मुख्य शौक थे। वह पूरी तरह एक भारतीय वीरांगना थी। इस प्रकार आदिलशाही जागीर और बहमनी जागीर दोनों मुख्यतः मराठों के प्रभुत्व वाली जागीरें थीं और इसीलिये वहाँ शाहजी ने भी सहज आत्मीय भाव से अपनी सेवायें दीं। दुष्ट सूफियों ने कुटिलता पूर्वक इन जागीरों में हस्तक्षेप करते हुये इस्लाम का प्रसार किया और 16वीं शताब्दी ईस्वी में वहाँ इस्लाम प्रभावी हो गया परंतु सहअस्तित्व बना रहा। 20वीं शताब्दी ईस्वी मंे पहले अंग्रेजों ने और फिर उनके हिन्दू तथा मुसलमान चेलों ने इस विषय पर आपसी सहमति दर्शाते हुये इन जागीरों को पूर्णतः मुस्लिम जागीर ही प्रचारित कर दिया और वहाँ महत्वपूर्ण पदों पर तैनात हिन्दुओं को उनका गुलाम ही बताने लगे जो स्वयं में एक दंडनीय अपराध है। इस तरह इतिहास को हिन्दू मुस्लिम युद्ध के रूप में प्रस्तुत करना बौद्धिक प्रमाद और अध्ययनहीनता का परिणाम है।
दादाजी कोंडदेव और भगवान श्रीकृष्ण की वंश परंपरा की तेजस्विनी कन्या जीजाबाई के संरक्षण में विकसित शिवाजी ने 16 वर्ष की आयु में ही तोरण दुर्ग पर अधिकार कर लिया था। उसके बाद तेजी से उन्होंने पुरंदर का किला, कोंडना का किला और चाकण दुर्ग भी जीत लिया। अपने पूर्वजों की जागीरें इंदापुर, बारामती और सूपा पर भी उन्होंने आधिपत्य कर लिया। शीघ्र ही उन्होंने रायगढ़ किले का निर्माण कराया और वहीं अपनी राजधानी भी बनाई। 25 वर्ष की आयु तक शिवाजी ने कल्याण और पन्हाला के दुर्ग तुर्कों से छीन लिये थे। महाबलेश्वर के पास जावली की जागीर पर भी उन्होंने आधिपत्य स्थापित किया। बीजापुर गद्दी से भोंसले, मोरे, घोरपड़े, निम्बालकर, सावंत, शिर्के और मोहिते मराठा कुलों का भी गहरा संबंध था। इन लोगों को देशमुख की पदवियां प्राप्त थीं। शिवाजी ने राजनय और कूटनीति का व्यवहार करते हुये इन सबको अपनी ओर मिलाया और सोयराबाई मोहिते, पुतलाबाई पालकर तथा सकवरबाई गायकवाड़ तथा काशीबाई यादव से विवाह किया।
शिवाजी की बढ़ती शक्ति से आदिलशाह को बेचैनी होने लगी इसलिये उसने 1657 ईस्वी में सुन्नी मुसलमान अफजल खां को शिवाजी से लड़ने भेजा। तुर्क फौजों ने माता तुलजा भवानी के मंदिर और पढंरपुर के विठोबा मंदिर मंे उत्पात मचाया और उसे अपवित्र किया। लगभग डेढ़ वर्ष तक अफजल खां और शिवाजी की सेनाओं में अनेक लड़ाइयां हुईं परन्तु अफजल खां प्रतापगढ़ किले पर, जहाँ शिवाजी थे, कब्जा नहीं कर पाया। तब उसने संधि का छलपूर्ण प्रस्ताव भेजा और नवंबर 1659 ईस्वी में छलघात से शिवाजी की हत्या की योजना रची। मेधावी और दूरदर्शी शिवाजी ने पहले ही उसकी कुटिलता भांप ली थी और तैयारी के साथ मिले तथा मिलते समय जब 40 वर्षीय अफजल खां ने कटारी से शिवाजी को मारना चाहा, लगभग 29 वर्षीय युवा शिवाजी ने बघनखे से उसका कलेजा फाड़ दिया। अगले वर्ष शिवाजी ने पन्हाला के किले पर भी कब्जा कर लिया। बीजापुरी सेना की संख्या बहुत अधिक थी और उस समय शिवाजी की शक्ति अनेक युद्धों के कारण घटी हुई थी। अतः उन्होंने संधि का प्रस्ताव किया। परंतु सिद्दी जौहर नामक बीजापुरी सेनापति ने फिरंगियों के साथ गुप्त संधि कर छलघात से शिवाजी को घेर कर मारना चाहा। इस बीच ईस्ट इंडिया कंपनी ने विजयनगर साम्राज्य से संधि कर चेन्नई में व्यापार की अनेक सुविधायें प्राप्त कर ली थीं और स्वयं को कभी हिन्दू नरेशों और कभी मुस्लिम नवाबों की सेवक बताते हुये कुटिलता से भारत में अपना फैलाव कर रही थी। जब शिवाजी को सिद्दी जौहर के छल का पता चला तो उन्होंने संधि का प्रस्ताव वापस ले लिया और फिरंगी व्यापारियों की राजापुर की फैक्ट्री भी अपने कब्जे में ले ली। अंत में विवश होकर सिद्दी जौहर ने संधि की। सिद्दी जौहर ने फिर से छलघात किया और शिवाजी को 300 सैनिकों के साथ छिपकर विशालगढ़ के दुर्ग में जाना पड़ा। मराठा सेनापति बाजीप्रभु देशपांडे ने घोड़खिंद में अनुपम वीरता दिखाते हुये विशाल तुर्क सेना को थामे रखा और इसमें बाजीप्रभु ने जान की बाजी लगा दी। वे तब तक लड़ते रहे जब तक विशालगढ़ के दुर्ग से तोपों की आवाज नहीं आई। वह आवाज शिवाजी के सुरक्षित दुर्ग में पहुंचने की सूचना थी। उसके बाद से शिवाजी ने घोड़खिंद का नाम पावन खिंद अर्थात पवित्र दर्रा नाम दिया।
इसके बाद बीजापुर की बड़ी बेगम ने मुइउद्दीन (औरंगजेब) से विनती की तो उसने डेढ़ लाख सैनिकों के साथ अनेक राजपूत सेनापतियों सहित शाइस्ता खान को सहायता के लिये भेजा। राजपूतों की वीरता से मराठों के कई दुर्ग शत्रु के कब्जे में आ गये। परंतु वीर शिवाजी ने रात्रि में साहसपूर्वक शाइस्ता खान के शिविर पर केवल चार सौ मराठों को लेकर आक्रमण किया और वह भागने लगा। भागते हुये भी तलवार से उसकी तीन अंगुलियां कट गईं तथा उसके बेटे सहित अनेक कुटुम्बीजन तथा सैनिक मारे गये। शिवाजी ने सूरत पर कब्जा कर लिया। तब मुइउद्दीन ने प्रसिद्ध वीर सेनापति राजा जयसिंह को शिवाजी को हराने भेजा। कई महीनों तक युद्ध चला और अंत में दोनों पक्षों ने संधि की। यह पुरंदर की संधि 11 जून 1665 ईस्वी को हुई। राजा जयसिंह ने आश्वासन दिया कि मुइउद्दीन आपका सम्मान करेगा। आप मिलने चलिये। राजा जयसिंह पर विश्वास कर छत्रपति शिवाजी मिलने गये और वहाँ मुइउद्दीन ने विश्वासघात कर उन्हें बंदी बना लिया।
छत्रपति शिवाजी बड़ी कुशलता से आगरा से बच कर निकले और इसके बाद मुइउद्दीन की स्थिति लड़खड़ाने लगी। उसने शिवाजी की राजा की उपाधि मान ली और उन्हें राजा कहकर संबोधित करने लगा तथा महाराज जसवंत सिंह को पुनः संधि के प्रस्ताव के साथ शिवाजी के पास भेजा। परंतु यह संधि थोड़े ही समय रह पाई। अचानक मुइउद्दीन को लगा कि उनका बेटा मुअजज्म शिवाजी से मिल गया है और तब बुरी तरह डरकर उसने बरार इलाके पर कब्जे के लिये तुर्क सेनाओं को भेजा। इससे युद्ध पुनः शुरू हो गया और शिवाजी ने चार महीने के भीतर अनेक दुर्ग छीन लिये।
छत्रपति शिवाजी महाराज का विधिपूर्वक राज्याभिषेक ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी विक्रम संवत् 1731 ईस्वी (6 जून 1674 ईस्वी) को सम्पन्न हुआ। उस समय वे भारत के सर्वाधिक समर्थ चक्रवर्ती सम्राट थे। मुइउद्दीन (औरंगजेब) की हैसियत उनके सामने कुछ भी नहीं थी। वस्तुतः तब तक मुइउद्दीन का वास्तविक शासन बहुत छोटे इलाके में रह गया था। राजपूतों के अलग राज्य थे ही। बुन्देलों का शासन पूर्णतः स्वतंत्र था और दक्षिण भारत में उसका कोई वास्तविक प्रभाव नहीं था। राजपूत राजाअें में उसने पहले महाराज जयसिंह के साथ वचनभंग किया और फिर महाराज जसवंत सिंह के साथ विश्वासघात किया।
इस विश्वासघात के बाद से राजपूत मुइउद्दीन से कुपित हो गये और दूरी बना ली। इसके बाद राजपूतों ने सहयोग बंद कर दिया तथा जाटों ने मुइउद्दीन के आगरा किले पर बारम्बार आक्रमण करना शुरू किया। जिनसे डर कर मुइउद्दीन दक्षिण भारत भाग गया और बहाना यह किया कि हम दक्षिण भारत की विजय के लिये निकले हैं। अंत में वह 26 वर्षों तक भटकते हुये लगभग गुमनामी या बदनामी की दशा में एक फौजी तम्बू में मर गया।
कुछ लोग स्वयं को इतिहासकार कहते हुये बताते हैं कि औरंगजेब के बाद उसका साम्राज्य बिखर गया। यह हास्यास्पद बात है। वस्तुतः मुइउद्दीन (स्वघोषित औरंगजेब) के समय ही उसका कथित साम्राज्य जो कि वस्तुतः हिन्दू मुस्लिम साझा शासन था, उसकी मूर्खताओं के कारण बिखर गया था। राजपूतों ने उसे संरक्षण और सहयोग देना बंद कर दिया। जाटों ने उस पर आक्रमण बढ़ा दिये। बुन्देले अलग ही अपना राज्य रखे हुये थे और गोड़वाने के विस्तृत इलाके में महारानी दुर्गावती के वंशजों का ही शासन था। किस आधार पर मुइउद्दीन को हिन्दोस्तान का बादशाह कहा जाता है, यह केवल अंग्रेजों के चेले ही बता सकते हैं। सभी जानते हैं कि मराठे और राजपूत ही मुइउद्दीन के प्रशासन में प्रमुख पदों पर थे। यह सही है कि वह सबको मूर्खों की तरह पटाने की कोशिश करता रहा कि मुसलमान बन जाओ, परंतु कोई भी महत्वपूर्ण मराठा या राजपूत सेनापति मुसलमान नहीं बना। मौका ताक कर मुइउद्दीन ने अनेक बार सनातन धर्म के मंदिरों को तोड़ा और अनेक बार अन्य मंदिरों को दान दे दिया। उसके अत्याचार जितने थे, उससे सौ गुना अधिक बढ़ा कर अंग्रेजों ने प्रचारित किया और उनके चेले दोहराये जा रहे हैं। उसने महान गुरू तेगबहादुर जी को मुसलमान बनने के लिये बार-बार राजी करने की कोशिश की, परंतु उन्होंने धर्म त्यागने के स्थान पर शीश त्यागने का ही वरण किया। सर्वविदित है कि गुरू तेगबहादुर ने वेदों, उपनिषदों और पुराणों का अध्ययन किया था तथा तपस्या की थी और धनुष-बाण चलाने तथा घुड़सवारी में भी वे निपुण थे। माता गूजरी से विवाह के बाद उन्होंने पंथ का और भी अधिक विस्तार किया तथा कई जगह मंदिर बनवाये जिन्हें बाद में गुरूद्वारा कहा जाने लगा है। लंगर प्रथा भी उन्होंने ही चलाई।
गुरू तेगबहादुर के विस्तार से घबराकर मुइउद्दीन को गद्दी पर खतरा नजर आया। शेख अहमद सरहिन्दी के चेले सूफी आदम ने मुइउद्दीन को भड़काया और गुरूतेगबहादुर के विरूद्ध बहुत सी चिट्ठियां यह कहते हुये लिखीं कि इस शख्स से आपकी गद्दी को खतरा है। इस पर मुइउद्दीन भड़क गया और उसने गुरू तेगबहादुर पर दबाव बढ़ा दिया। इस बीच मुइउद्दीन ने कश्मीरी ब्राह्मणों पर भी मुसलमान बनने का दबाव डाला और इस प्रक्रिया में गुरू तेगबहादुर से उसका टकराव हो गया। मुइउद्दीन ने गुरूजी के तीन सहयोगियों भाई मतिदास, भाई दयालदास और भाई सतिदास को बंदी बनाया। भाई मतिदास को आरे से चीरा गया, दयालदास को खौलते पानी में उबाला गया और सतिदास को जिंदा जला दिया गया। इसके बाद गुरू तेगबहादुर का सिर चांदनी चौक में सार्वजनिक रूप से धड़ से काट दिया गया। इन सब अत्याचारों के कारण सिख भी मुइउद्दीन से भयंकर नाराज हो गये और इसी कारण उसे भागकर सिखों, जाटों, राजपूतों, बुन्देलों आदि से अपने प्राण बचाने के लिये दक्षिण भारत में भटकना पड़ा।
सत्य यह है कि शिवाजी और उनके उत्तराधिकारी महान सेनापति बाजीराव पेशवा के कारण 18वीं शताब्दी ईस्वी के आरंभ में ही भारत का तीन चौथाई से अधिक हिस्सा मराठों के नियंत्रण में आ गया था। यह बात कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय प्रेस से प्रकाशित पुस्तक ‘दि एंग्लो मराठा कैम्पेन्स’ में रेन्डॉल्फ जी.एस.कूपर ने भूमिका में पृष्ठ 8 पर कही है। 17वीं शताब्दी के अंतिम चरण में छत्रपति शिवाजी महाराज का निधन हुआ और उनके वीर अनुयायियों तथा सेनापतियों ने 60 वर्षों के भीतर संपूर्ण भारत में हिन्दवी स्वराज स्थापित कर दिया। राजपूतों से उनकी संधि थी परन्तु बाद में अंग्रेेजों के आने पर अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा के कारण राजपूतों ने मराठों का विरोध किया और अंग्रेजों से संधि की।
छत्रपति शिवाजी महाराज ने राज्याभिषेक के समय ही धर्मशास्त्रों में प्रतिपादित राजधर्म का पालन किया और अपना प्रशासन धर्मशास्त्रों के अनुसार ही चलाया। उनके प्रशासन की दक्षता, निपुणता, सुव्यवस्था और सुदृढ़ता का अध्ययन विश्व भर में हो रहा है। उन्हांेने एक सशक्त नौसेना भी बनाई। 400 युद्धपोत उनके यहाँ सदा तैयार रहते थे। नौसेना में उन्होंने बड़ी संख्या में मछुआरों को सैनिक के रूप में रखा तथा अपने प्रति निष्ठावान कतिपय मुस्लिमों को भी रखा और पुर्तगीज नाविकों को भी नौसेना में कर्मचारी बनाया। यह बात अलग है कि पुर्तगीज नाविक गद्दार निकले और पुर्तगाली सेना से मिल गये।
छत्रपति शिवाजी महाराज के बाद छत्रपति साहूजी महाराज ने 50 वर्षों तक मराठा साम्राज्य का निरन्तर विस्तार किया। उनके प्रधान सेनापति बालाजी विश्वनाथ तथा बाजीराव पेशवा प्रथम ने अपनी युद्धनीति और वीरता की छाप विश्व इतिहास पर अंकित की। बाजीराव पेशवा से बड़ा कोई भी सेनापति महाभारत युद्ध के बाद के विश्व में आज तक नहीं हुआ है। प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज
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