धनतेरस से छठ तक : कुछ विसरी बातें
धर्मप्राण देश भारत महान ऋषि-मुनियों का देश रहा है । इनकी दूरदर्शिता अतुलनीय है। अनुशरणीय है। इन्होंने अपने सुदीर्घ अनुभव और ज्ञान को वेद-पुराण-उपनिषदादि शास्त्रों में लोककल्याणार्थ संग्रहित कर दिया है । छोटी-छोटी बातों पर भी बहुत ही गम्भीरता से विचार किया गया है इनके द्वारा। किन्तु स्वभाव से आलसी और लापरवाह मनुष्य इनके उपदेशों को हृदयंगम करने के वजाय शनैःशनैः विसारता चला गया है । युग-वोध या कहें काल-प्रभाव से कुछ चीजें बदली, कुछ नष्ट हुयी, तो कुछ अपने ही अज्ञान का शिकार हुयी । ‘ धनतेरस ’ भी उन्हीं में एक है, जो आज बिलकुल नये स्वरुप में समाज में स्वीकृत हो चुका है। यहाँ उन्हीं भूली-विसरी बातों की थोड़ी चर्चा करते हैं—
हम जो कुछ भी करते हैं सुख, शान्ति और आराम के लिए करते हैं । धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष इन चारोंको पुरुषार्थ चतुष्टय कहा गया है, यानी जो भी है इन चारों के इर्द-गिर्द ही है। इनसे बाहर नहीं। ध्यान देने की बात है कि पुरुषार्थ सिद्धि का साधन (माध्यम) हमारा शरीर ही है। ‘शरीरमाद्यंखलुधर्मसाधनम्’ यही वह पहला और अन्तिम माध्यम (करण) है, जिसके द्वारा किसी भी पुरुषार्थ को साधा जा सकता है । दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि यही नहीं रहेगा तो और कुछ कैसे सम्भव हो पायेगा ! यहाँ निहित अर्थ ये भी है कि इसकी रक्षा का हर सम्भव प्रयास हमें करना चाहिए । पहला सुख निरोगी शरीर को ही माना गया है । धन, जन इसके बाद की ही बातें है ।
पवित्र कार्तिक महीने के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी से लेकर शुक्ल पक्ष की सप्तमी पर्यन्त यानी धनतेरस से लेकर छठव्रत की समाप्ति तक दस दिनों का बड़ा ही महत्व है सनातन धर्म में । गौर करें तो स्पष्ट हो जायेगा कि चारों पुरुषार्थों की सिद्धि का संक्षिप्त अवसर नियोजित है इन दस दिनों में ।
त्रयोदशी तिथि, जो आजकल धनतेरस के नाम से प्रचलित हो गया है वस्तुतः ये स्वास्थ-रक्षक भगवान धनवन्तरि (धनवन्तरि) का उद्भव-दिवस है । समुद्र-मन्थन क्रम में इसी दिन अमृत-कलश के साथ धनवन्तरि प्रकट हुये थे, लोककल्यार्थ । आयुरक्षक-शास्त्र—आयुर्वेद के प्रणेता के रुप में भी इन्हें जाना जाता है। वास्तव में इन महान विभूति के प्रति आभार व्यक्त करना, इनकी विधिवत पूजा-अर्चना करने का ही दिन है— धनत्रयोदशी (धनतेरस)। सारा दिन इनकी आराधना-सेवा में लगा देने का दिन है धनतेरस। धनतेरस में इसी महान धन (शरीरधन) की रक्षा की बात है सिर्फ, न कि भौतिक अन्य धन के नाम पर अनाप-सनाप चीजें खरीदकर ले आना ।
शरीर-रक्षण-अधिष्ठाता धनवन्तरि की अर्चना के साथ-साथ इस दिन एक और महत्त्वपूर्ण कार्य किया जाता है— यम की तुष्टि (प्रसन्नता) का कार्य । शास्त्रीय मान्यता है कि शरीर को नष्ट करने का दायित्व यमराज को दिया गया है । अतः धनवन्तरि से स्वास्थ्य कामना के पश्चात् रात्रि में सोने से पहले, यानी भोजन वगैरह करने के बाद ही यमराज के निमित्त दीपदान करने का विधान है ।
ध्यातव्य है कि भोजन के बाद जूठे वरतन वगैरह की साफ-सफाई अवश्य करले, फिर हाथ-पैर धोकर पवित्र वस्त्र धारण कर मिट्टी के नये दीए में तिल तेल या शुद्ध घी का दीप प्रज्ज्वलित करके अपने घर से बाहर (मुख्यद्वार) पर दाहिनी ओर दक्षिणाभिमुख रख दे - थोड़ा अक्षत रख कर और जल गिरा कर मृत्यु के देवता यमराज की प्रार्थना करे— ‘ हे यमदेव ! आप प्रसन्न हों । मुझे और मेरे परिवार को अकाल मृत्यु से बचावें । ’ दीपदान का ये कार्य परिवार के कोई बड़े सदस्य (पुरुष या महिला) ही करें।
हालाँकि इस कार्य को बहुत लोग करते हैं, किन्तु अज्ञानतावश अगले दिन करते हैं । यानी चतुर्दशी को करते है । दूसरी गलती ये करते हैं कि सरसो तेल का दीया जलाते हैं । दीया भी पुराना रहता है । ध्यान रहे— अन्य देवताओं की तरह यम भी एक प्रधान देवता हैं । अतः इनका भी अन्य देवताओं की तरह ही सम्मान होना चाहिए ।
इस प्रकार त्रयोदशी के दिन दो विधियों से शरीर की सुरक्षा का प्रबन्ध करना है— आयुरक्षक धनवन्तरि की आराधना करके और आयुनाशक यमराज को प्रसन्न करके ।
ध्यातव्य है कि उपर कहे गए दस दिनों तक बिलकुल नवरात्रि और दसहरा आदि त्योहारों की तरह ही बिलकुल ब्रह्मचर्य का पालन करें और शास्त्रनिर्दिष्ट सुकृथ्यों का पालन करे।
अब अगले दिन की बात करते हैं—
अगले दिन यानी चतुर्दशी की दिनचर्या सामान्य होगी, किन्तु सायंकाल (गोधूलिबेला) में परिवार के प्रधान पुरुष (जिनके माता-पिता जीवित न हों) अपने दिवंगत पूर्वजों के निमित्त दीपदान करें। इस क्रिया को ‘ दीपश्राद्ध ’ के नाम से भी जाना जाता है । इसके अन्तर्गत दो दीया पूर्वाभिमुख और बारह दीया दक्षिणाभिमुख जलाना चाहिए । इस विधि में जौ, कालातिल, बिना रंगा हुआ चावल तथा कुशा का प्रयोग होता है । इसकी विस्तृत विधि शास्त्रों में वर्णित है । गौरतलब है स्वास्थ्य रक्षा का समुचित उपाय कर लिया गया । पूर्वजों का आशीष भी दीपश्राद्ध करके ग्रहण कर लिया ।
अब जीवन-यापन के लिए निविघ्नता पूर्वक समुचित धन-दौलत की आवश्यकता-पूर्ति का प्रबन्ध करना है । अतः अब अगले दिन यानी अमावस्या को सायंकाल (गोधुलि बेला से लेकर भोर तक) सुविधानुसार धन-सम्पदा की अधिष्ठात्री देवी पद्मासना महालक्ष्मी की आराधना करनी चाहिए । चुँकि देवी की कृपा से धन प्राप्त हो जायेगा , किन्तु उसकी रक्षा भी तो होनी चाहिए । अतः समस्त विघ्नों के नाशक गणपति भगवान गणेश की भी साथ-साथ आराधना की जाती है ।
ज्ञातव्य है कि गणेश जी बुद्धि प्रदाता भी हैं । यदि बुद्धि सही नहीं होगी तो धन का उपयोग गलत कामों में होगा, जिससे पुनः पापार्जन होकर मोक्षमार्ग की बाधा आयेगी। इसी कारण लक्ष्मी-गणेश की संयुक्त आराधना होती है ।
अगले दिन यानी कार्तिक शुक्लपक्ष प्रतिपदा को गौ और पर्यावरण की रक्षा के निमित्त गोपूजन, गोक्रीड़ा और पर्वत (गोवर्द्धन) पूजा का विधान है। यादवकुल ने इसे ‘गायडाढ़’ यानी गाय की पूजा के रुप में अपनाया है । इस परम्परा का निर्वाह अभी भी बहुत क्षेत्रों में विधिवत होता है, किन्तु दुर्भाग्य की बात है कि दक्षिण भारत के त्योहार ‘जलीकट्टु’ की तरह बीभत्स रुप भी ले लिया है गोक्रीड़ा का उल्लास । वैष्णव परम्परा में इसे ‘ अन्नकूट ’ के रुप में मनाते हैं ।
अब अगले दिन यानी द्वितीया को यमद्वितीया यानी गोधन के रुप में मनाते हैं । इस दिन का प्रधान कृत्य है यमुना स्नान और यम-यमी पूजा । ध्यातव्य है कि यमराज की बहन हैं यमुना । चुँकि एक भाई (यम) ने एक बहन (यमुना) को वरदान दिया था कि जो कोई भी इस तिथि को यमुना में स्नान करेगा, उसे यम का भय नहीं सतायेगा, यानी उसकी अकाल मृत्यु नहीं होगी । इस प्रकार यम-यमी की पूजा-अर्चना करके उनसे आशीष ग्रहण करने का दिन है ये। किन्तु अज्ञान में यहाँ भी एक बड़ी गलती होती है समाज में—यम-यमी की विपरीत दिशा में सोये हुए , गोबर की मूर्ति बनाते हैं जमीन पर और उसकी पंचोपचार पूजन के पश्चात् मूसल से कूंटते भी हैं । मृत्यु के देवता को कूंटने की ये परम्परा बिलकुल असंगत है—इस पर ध्यान देना चाहिए ।
इसके बाद तीसरे दिन विश्राम का दिन होता है । उसके बाद सुख, सन्तति, सौभाग्य और आरोग्य के देवता सूर्य की आराधना का त्रिदिवसीय क्रम शुरु होता है। चतुर्थी को संयत (संयम) करते हैं, जिसे ‘ नेहाय-खाय ’ के नाम से जाना जाता है । पंचमी को दिन भर उपवास करके रात्रि में खीर-रोटी का सात्विक प्रसाद ग्रहण करते हैं । अगले दिन षष्ठी को सूर्यषष्ठी (छठ) का निर्जला व्रत होता है । सप्तमी को प्रातःकालीन सूर्यार्घ्य के साथ अनुष्ठान की समाप्ति होती है।कुल मिलाकर आत्मसंयम और साधना का दस दिवसीय महापर्व है ये, जिसकी गहराई में स्वास्थ्य, सुख,सन्तति,समृद्धि आदि अनेक सुसंदेश निहित है । अस्तु।
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