करन पुनीत हेतू निज बाणी

करन पुनीत हेतू निज बाणी

महाप्राण निराला की पुण्यतिथि के अवसर पर 'करन पुनीत हेतू निज बाणी' दो शब्द अर्पित कर रहा हूँ ।गई सु बीति वहार
महाप्राण निराला महीनों से रोगसय्या पर पड़े थे।स्थिति पहले से अधिक विषम हो गई थी। इसके कारण वे कभी कभी बेहोश हो जाते थे, यह बात तो सब ने स्वीकारी है। समान व्यक्तियों से हिंदी में कम से कम बात करते थे, पर पागलों,भिखमंगों से हिंदी में बात करते थे।यहाँ तक कि पक्षियों और पशुओं से भी हिंदी में बात करते थे। निराला का ब्यक्तित्व था तो अनोखा पर चिंताजनक ।हिन्दी के लिए किसी से भी दो-दो करने के लिए तैयार निराला मे अखण्ड साहस और प्रचण्ड शक्ति थी जिसके बूते कविवर रवीन्द्र के घोड़े को थामने की हिम्मत रखते थे । जिस समय रवीन्द्र का घोड़ा छूटा तो उसकी राशि( घोड़े को) थाम लिया।निराला ने ब्यक्त किया,"हमारा यह जो रंग है यह तो धूप में काला हो गया है, इसका बहुत लंबा हिसाब किताब है। (सम्मेलन पत्रिका श्रद्धांजलि अंक पृष्ठ 535 )
इसका अर्थ है कि निराला ने अत्यंत दुख की स्थिति में भी अपना आत्मविश्वास और आत्मसम्मान नहीं खोया। अंतिम दिनों की घोर विपन्ना अवस्था में भी उन्होंने अपना मस्तक ऊंचा रखा और किसी के आगे झुकने नहीं दिया । हरिवंश राय बच्चन ने लिखा," दिमाग की खराबी के कारण जजमेंट में गलती हो सकती थी पर किसी की चापलूसी या भय तो उसने कभी जाना ही नहीं ।कुछ अपना जाए तो भी नहीं सारी दुनिया अपनी तरफ आती हो और अपनी होती हो तो भी नहीं ।अपने लिए उस व्यक्ति ने कभी कुछ चाहा ही नहीं (सम्मेलन पत्रिका ,श्रद्धांजलि अंक, पृष्ठ 413)
उन्होंने अंतिम दिनों तक दार्शनिक शक्ति बरकरार रखी। साहित्य के तीर्थराज बने रहे अंतोगत्वा यह कहने में तनिक भी नहीं हिचके कि जब तक यहां की जनता को भोजन, बस्त्र, शिक्षा तथा संरक्षण नहीं प्राप्त होता तब तक यहां किसी प्रकार का शासन सफल नहीं हो सकता ,यह इस देश की मिट्टी का ही गुण है । (महाप्राण निराला, गंगा,पृष्ठ संख्या 563 )
महाप्राण ऐसी ही खरी-खोटी बातों के कारण पागल समझे गए या उसका भ्रम हो ।त्वरा सच तो यह है कि निराला के उठ जाने के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुछ प्राध्यापकों ने निराला की स्मृति में निराला संस्थान की स्थापना की ।भारत सरकार से आर्थिक सहायता के लिए लिखा पढ़ी भी आरंभ कर दी गई, लेकिन यह योजना सफल नहीं हो सकी। सरस्वती के तत्कालीन संपादक श्री नारायण चतुर्वेदी ने इस योजना पर कड़ी आपत्ति जाहिर करते हुए दिसंबर 1961 की सरस्वती में "निराला संस्थान" शीर्षक से एक संपादकीय टिप्पणी की थी॥ असल में श्री नारायण चतुर्वेदी निराला संस्थान की स्थापना से नहीं स्थापना की योजना के पीछे की मंशा से नाराज थे ।बकौल चतुर्वेदी जी ने इसे इलाहाबाद में लिखा था," हम इलाहाबाद विश्वविद्यालय में निराला संस्थान के प्रस्ताव का कोई व्यवहारिक उपयोग या उसकी आवश्यकता नहीं समझते। उसके द्वारा शायद उसे सरकार और जनता से लाख दो लाख मिल जाएँ, उससे हिंदी विभाग को कुछ आर्थिक लाभ हो जाए, प्रोफेसरों के लिए एक दो लाभ की जगह मिल जाएं और उसके निमित्त शोध ग्रंथों से कुछ लाभ भी हो जाए, किंतु उससे जनता का कोई विशेष लाभ नहीं होगा । श्री नारायण चतुर्वेदी की नाराजगी का एक बड़ा कारण यह भी था कि निराला के जीवित रहते ही उनकी कविताओं, रचनाओं को इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के पाठ्यक्रम में उचित स्थान नहीं दिया गया ।चतुर्वेदी अत्यंत दुख से पूछते हैं इस विश्वविद्यालय में अभी तक निराला जी की क्या कदर थी ।बीए में उनकी केवल चार कविताएं पढ़ाई जाती थी।एम ए. में उनकी तुलसीदास को सहायक पाठ पुस्तक होने का गौरव दिया गया था ।अभी सुनने में आया है, कुछ वर्ष पहले वहां के एक विद्यार्थी ने अपनी डॉक्टरेट के लिए निराला जी के काव्य को अपना विषय चुना था और उसे निराला जी पर शोध करने की अनुमति नहीं दी गई ।विश्वविद्यालय के प्रोस्पेक्टस को देखने से पता चलता है कि हिंदी विभाग के भूतपूर्व अध्यक्ष की सात पुस्तकें और वर्तमान की आठ पुस्तकें बी ए और एम ए के पाठ्यक्रम में सम्मिलित हैं, जहाँ कि निराला जी की केवल एक पुस्तक सहायक पुस्तक के रूप में चमक रही है । हाई स्कूल की पाठ्य पुस्तकों में निराला जी की कविताएं मात्र नाम की है । जिस विश्वविद्यालय ने उनके कार्य पर शोध करने की अनुमति नहीं दी, उस विश्वविद्यालय में निराला शोध संस्थान की क्या आवश्यकता है। उन्होंने निराला शोध संस्थान पर तंज कसते हुए लिखा था -ये प्राध्यापक अपने को हिंदी जनता से अलग समझते हैं और अपनी डेढ. चावल की खिचड़ी अलग पकाना चाहते हैं ।और ऊपर से प्राध्यापकों को नसीहत देते हुए उन्होंने लिखा कि यदि उन्हें निराला जी मैं वास्तविक आस्था है तो उनका अध्ययन करें और कराएं ।जिस प्रकार अन्य कवियों पर शोध करते कराते हैं उसी प्रकार उनका भी शोध करें और कराएँ। उनके स्मारक के लिए अपनी तिजोरियां खोलें ,क्योंकि हिंदी जगत में अपेक्षाकृत वही सबसे धनी है। औरों पर तंज कसते हुए अंतिम 3 वर्षों में जो लोग उनका स्वास्थ्य या उनसे संवेदना प्रकट करने भी नहीं आए उनकी मृत्यु के बाद उनके सबसे बड़े सार्वजनिक प्रशंसक हो गए हैं ।कवि सोहन लाल द्विवेदी ने भी" निराला का निर्वाण और एक प्रश्न" कविता लिखकर हिंदी समाज को भी अंतिम दिनों में निराला की उपेक्षा के लिए जिम्मेदार ठहराया।
हमऩे उसे उपेक्षा से क्यों ,
हमें उससे अपेक्षा क्यों,
ऐसा हेरा
उसने सदा सर्वदा को
हम से मुंह फेरा
वह था स्नेह प्यार का भूखा
बड़े प्रेम से खाया उसने रुखा सूखा
किंतु उसे ही प्यार प्राण का दे न सके हम
कुछ दिन जीता और गर्व से
ऐसा भी वर ले न सके हम ।
(सरस्वती दिसंबर 1961 संख्या 397 )
श्री नारायण चतुर्वेदी की लाठी से घायल एक व्यक्ति ने उन्हें पत्र लिखा- उसका संक्षिप्त रूप है कि बड़ौदा विश्वविद्यालय में 1959 से बीए ऑनर्स में विशेष कवि के रूप निराला का काव्य साहित्य का अध्ययन हो रहा है । विकल्प के रूप में इस प्रश्न पत्र में अनेक कवियों के अध्ययन की व्यवस्था है पर निराला साहित्य का अध्ययन करने वाले छात्रों की संख्या सबसे अधिक रहती है ।इनमें के प्रथम प्रश्न पत्र में उनका तुलसीदास यहां पूरा पूरा पढ़ाया जाता है ।अन्य पाठ्यक्रमों में भी उनकी अलका और बिल्लेसुर बकरीहा आदि पुस्तके निर्धारित हैं। एक शोध -छात्र महाकवि निराला की जीवनी और काव्य विषय पर पीएचडी की उपाधि के लिए शोध कार्य कर रहे हैं ।यह विषय विश्वविद्यालय से स्वीकृत हो चुका है ।इसके अतिरिक्त इस विश्वविद्यालय में निराला परिषद् नाम की एक संस्था 3 वर्षों से चल रही है। इसकी स्थापना सन् 1959 में महाकवि निराला की जन्म तिथि के अवसर पर बसंत पंचमी के दिन हुई थी ।असल में बड़ौदा विश्वविद्यालय उस समय नया था और हिंदी विभाग के तत्कालीन अध्यक्ष कुंवर चंद्रप्रकाश सिंह ने पाठ्यक्रम को समकालीन स्पर्श देने की पूरी कोशिश की थी ।डॉ हरिशंकर शर्मा हरीश ने निराला से मुलाकात का जिक्र करते हुए लिखा था कि वे बोले कहां- से आए हो ?मैंने कहा -पंडित जी! राजस्थान के अध्ययन करने के लिए आया हूं यहां प्रयाग विश्वविद्यालय में । हिंदी का स्नातक हूं ।वे बोले -अध्ययन तप है, खूब पढ़ना। संघर्षों से घबराना मत। मैं बोला- पंडित जी !आपके आशीर्वाद से सब ठीक हो जाएगा। और फिर गंभीर होकर बोले- हमने भी हिंदी के पीछे सब कुछ लगा दिया है ।यहां कई बाहर के विद्यार्थी आते हैं ।विश्वविद्यालय में अच्छे अध्यापक हैं ।(श्रद्धांजलि अंक 432)
निराला अंतिम दिनों में बार-बार दोहराते रहे -"आई एम नॉट सब्जेक्ट टु दी लिमिटेशंस ऑफ़ माय आउडिएंस, आई एम मेकिंग ऐन एग्जांपल ऑफ प्लेइंग द एम कार्ड इन लाइफ एंड लिटरेचर" अपने जीवन के आरंभ से अंतिम दिनों तक एकरसता में बने रहे और उन्होंने कही अपना सर झुकने नहीं दिया। किसी के सामने इसलिए निराला महाप्राण बने, यह हमारी भावना है ।
अपनी तुष्टि और आत्मसम्मान के लिए हम किसी के मरने के बाद उसका गुणगान काफी करते हैं और उसे रहते हुए उसकी कीमत नहीं पहचानते ।
निराला के चरणों में अपनी आत्मश्रद्धा निवेदित है।
डॉ सच्चिदानंद प्रेमी

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