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आवाहनं देवी

आवाहनं देवी

संकलन अश्विनी कुमार तिवारी

पुरुष तत्त्व इन्द्र का वर्षाकाल समाप्त होने के पश्चात शरद ऋतु आती है। शरद विषुव (23 सितम्बर) से लेकर वसंत विषुव (22 मार्च) तक का काल स्त्रीकाल है। दिनमान के इन दो संतुलन बिन्दुओं के पास दो महत्त्वपूर्ण नवरात्र पर्व पड़ते हैं। पितर श्रद्धाञ्जलि पर्व के पश्चात नवसंतति के हितार्थ शारदीय नवरात्र पर्व जननी का उपासना पर्व है।
शरद स्त्री है, गहिमणी हो पर्जन्य से प्राप्त को भूमा में सँजोती है। स्त्री परिवर्तनों की सीमा भी है और ऋतुमती आवृत्ति भी। वह सनातन सत्य अर्थात ऋत को धारण करने वाली ऋतावरी है। संख्या नौ अपनी अद्भुत अपरिवर्तनीयता के कारण ऋतावरी माँ का प्रतीक है। सृजन और सृष्टि का अनुशासन स्त्री में निहित है। वह वत्सल माता प्रिया है, सरस है।
ऋतस्वरूपा, व्रती और व्रतरक्षक के रूप में वह आवाहनीया है।
वैदिक श्रौत सत्रों के आह्वान मंत्रों में ऋषियों ने स्त्री तत्त्व को स्थान दिया। तिस्रो देवी नाम से जिन तीन रूपों को अपने आह्वान में दश ऋषिकुलों ने स्थान दिया, वे हैं – भारती (भूमा, मही, पृथ्वी), इळा (मानवीय प्रज्ञा) सरस्वती (वाणी, विद्या)। भारती अस्तित्त्व अर्थात मातृ पक्ष हैं, इळा हैं मेधा, सुसंग्रहण और विवेक शक्ति और सरस्वती हैं चेतन जीवन अभिव्यक्ति।
दस ऋषिकुलों के आह्वान मंत्रों आप्री में तीन देवियाँ भारती, सरस्वती और इळा समान रूप और आदर में पायी जाती हैं। मेधातिथि और काण्व भारती के लिये 'मही' का प्रयोग करते हैं तो कुछ ऋषिकुल मही और भारती दोनों का।

भारती धरती है, सरस्वती जीवनस्रोत और इळा मानवीय प्रज्ञा। दो प्रतिद्वन्द्वी कुल कौशिक विश्वामित्र गाथिन(3.4) और वसिष्ठ मैत्रावरुणि (7.2) अलग स्थानों पर एक ही ऋचा का प्रयोग करते हैं।

इस प्राचीन, विराट और संस्कृतिबहुल देश के लिये आवश्यकता इस बात की है कि एकता के बिन्दु खोजें जायँ जहाँ विविधता के प्रति सम्मान हो, स्वीकार हो और साहचर्य हो न कि ऐसे जुमले जो विकट समस्याओं से भीत पाखंडी समाज को आँखें फेर कुकुरझौंझ के मौके प्रदान करें।

कौशिकों और मैत्रावरुणों के आह्वान स्वर में मेरा स्वर भी मिला लो देवियों! देश में सद्बुद्धि का प्रसार हो।

आ भारती भारतीभि: सजोषा इळा देवैर्मनुष्येभिरग्नि:
सरस्वती सारस्वतोभिरर्वाक् तिस्रो देवीर्बर्हिरेदं सदंतु।
✍🏻सनातन कालयात्री श्री गिरिजेश राव जी 

ऐतरेय-ब्राह्मण के ३०वें अध्याय में, पृथ्वी के गर्मरूप का विवरण प्राप्त होता है- आदित्यों ने अंगिरसों को दक्षिणा में पृथ्वी दी। उन्होंने उसे तपा डाला, तब पृथ्वी सिंहिनी होकर मुँह खोलकर आदमियों को खाने के लिए दौड़ी। पृथ्वी की इस जलती हुई स्थिति में उसमें उच्चावच गर्त बन गए।
ते हादित्यानङ्गिरसोऽयाजयंस्तेभ्य याजयद्भ्य इमाम्पृथिवीम्पूर्णां दक्षिणानामद-दुस्तानियम्प्रतिगृहीतातपत्तां न्यवृञ्जन्सा सिंही भूत्वा विजृम्भन्ती जनान-चरत्तस्याः शोचत्या इमे प्रदराः प्रादीर्यन्त..........................
माँ दुर्गा का वाहन सिंह
भारतमाता का वाहन सिंह...

नवरात्र में पठनीय - देवीपुराणम्

भगवती के चरित्र और चमत्‍कार आदि प्रसंगों को लेकर नवरात्र में प्राय: दुर्गा सप्‍तशती के पाठ की परंपरा है। यह मार्कण्‍डेयपुराण अन्‍तर्गत है। भगवती के लीलाख्‍यानों काे लेकर गुप्‍तकाल में देवीपुराण का प्रणयन भी हुआ है और यह भी पारायण योग्‍य है। इसको उपपुराण स्‍वीकारा गया है और मार्कण्‍डेयपुराण्‍ा की तरह ही बहुत सम्‍मान्‍य तथा पूर्वमध्‍यकालीन निबंधकारों द्वारा इसे प्रमाणमूलक ग्रंथ के रूप में आदर दिया गया है। देवीभागवत से इसकी रचना पहले हुई है और कई विषयों को इसमें लिया गया है। इसमें कुल 128 अध्‍याय हैं। इसका आरंभ इस रूप में हुआ है - 
नमस्‍कृत्‍य शिवां देवीं सर्वभागवतां शुभाम्।
पुराणं सम्‍प्रवक्ष्‍यामि यथोक्‍तं ब्रह्मणां पुरा।।
इसमें चार पाद हैं, वशिष्‍ठ मुनि ऋषियों के प्रश्‍न पर इनका कथन करते हैं :
1. त्रैलोक्‍य विजय पाद
2. त्रैलोक्‍याभुदय पाद
3. शुम्‍भ निशुम्‍भ मथन पाद
4. अंधकासुर संग्राम, देवासुर संग्राम व तारकासुर के साथ स्‍कंद के युद्ध के विवरण।
इस पुराण में देवी, उमा, दुर्गा, आद्या शक्ति, शिवा, विन्‍ध्‍वासिनी, चामुण्‍डा, शक्ति, पराशक्ति, जया, विजया, अजिता, अपराजिता, शाकम्‍भरी, गौरी, कात्‍यायनी, कौशिकी, भद्रकाली, पार्वती, नारायणी, भीमा, धूम्रा, अम्बिका, योगनिद्रा, लक्ष्‍मी, चण्‍डी, दाक्षायणी, कैटभेश्‍वरी, कुमारी, कपालिनी, काली, महिषासुर मर्दिनी, चर्चिका, रौद्री, नन्‍दा, भवानी, तारा, एकानंशा, कालरात्रि, भैरवी, नवदुर्गा, मातृका, क्षेमंकरी, मंगला, सर्वमंगला, ब्राह्मी, शाक्री, कौमारी, वैष्‍णवी, महालक्ष्‍मी, श्‍वेता, महाश्‍वेता, योगेश्‍वरी, मूलप्रकृति आदि का विवरण आया है। कई विधान और अनुष्‍ठान है। भारतीय शाक्त संस्‍कृति का प्रतिनिधि ग्रंथ है। 
इस पुराण का मूल पाठ लाल बहादुर संस्‍कृत विद्यापीठ, दिल्‍ली से प्रो. पुष्‍पेंद्रकुमार के संपादन में निकला है जबकि बांग्‍लापाठ कोलकाता से बहुत पहले निकला था और अब मिलता नहीं है। हाल ही हिंदी अनुवाद चौखम्‍बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी से निकला है। हालांकि इस पाठ में श्रीएस.एन. खण्‍डेलवाल ने अनुवाद व संपादन की कतिपय चूकें की है मगर देवी चरित्र का पठन-पाठन तो सहज हो जाता है। इस पुराण के पाठ का पूर्ववर्ती निबंध ग्रंथों के आधार पर संपादन की जरूरत है किंतु यह काम सहज नहीं है,, कभी संभव होगा।
बहरहाल यह पुराण दुर्लभ ही था, चौखंबा ने इसको उपलब्‍ध करवाया है। शारदीय नवरात्र के अवसर पर इस नवीन किंतु प्रकृत पाठ का पारायण किया जा सकता है। इसके अंत में कहा भी गया है - 
शरत् सर्वानवाप्‍नोति कामान् राज्‍यं नृपोत्‍तम। त्रि:श्रुत्‍वा भक्तिमास्‍थाय मुच्‍यते सर्वपातकै:।। एतच्‍चाभ्‍युदयपादं शतैस्‍त्रीभिर्नरोत्‍तमै:। सहस्रैर्द्वादशैर्वत्‍स कथितं सर्वसिद्धिदम्।।
✍🏻श्रीकृष्ण जुगनू

बेटी का जन्म अर्थात् शक्ति का अवतरण

बेटी का जन्म सच्चे अर्थों में धरती पर शक्ति का अवतरण है। शास्त्र प्रमाण हैं जब गिरिराज हिमालय की पत्नी मेना के गर्भ से आद्यशक्ति भगवती ने पुत्री रूप में जन्म लिया तो आकाश से फूल बरस पड़े थे। दसों दिशाओं में प्रकाश फैल गया था और सुगंधित वायु बह चली थी। इसलिए कि बेटी का जन्म शक्ति के साथ समूची सृष्टि में प्रकाश और सुगंध भी लाता है। तभी तो सनातन धर्म के वाङ्गमय में वे दम्पत्ति परम् सौभाग्यशाली माने गए हैं जिनके घर 'लक्ष्मी' अवतरित होती है। पुत्र लालसा में अंधे मूर्ख पुत्री के जन्म पर भले कुछ भी सोचे पर पर्वतराज हिमालय जैसे ज्ञानी तो धन्यता ही अनुभव करते हैं। देवीपुराण की कथा साक्षी है कि पार्वती-सी पुत्री पाकर पर्वतपति कितने हर्ष से भर गए थे और किस प्रकार उन्मुक्त ह्रदय और मुक्तहस्त से ब्राह्मणों को धन, वस्त्र, गौ आदि का दान देकर पुत्री प्राप्ति का उत्सव मनाया था।

देवीपुराण शक्ति आराधना को समर्पित एक प्रमुख उपपुराण है लेकिन देवी भक्तों में इसका प्रचार इतना अधिक है कि यह 'महाभागवत' के नाम से प्रसिद्ध है। देवीपुराण प्रसिद्ध 'देवीभागवत महापुराण' से सर्वथा भिन्न वह ग्रंथ है जिसकी अनेक विशेषताओं में सबसे उल्लेखनीय इसमें संकलित 'श्रीभगवतीगीता' है, जो महाभारत की 'श्रीमद्भगवतगीता' के समान ही महत्वपूर्ण है। कुल 81 अध्याय वाले देवीपुराण के अध्याय 15 से 19 तक अर्थात् कुल पाँच अध्यायों में देवी पार्वतीजी ने अपने पिता हिमालय के प्रति जिस ब्रह्माविद्या का उपदेश किया है, वह मानो मनुष्य की मुक्ति का मार्ग है। इसे जान लेने पर न केवल मनुष्य ब्रह्मास्वरूप हो जाता है बल्कि उसकी मुक्ति सुनिश्चित हो जाती है। पार्वतीजी के श्रीमुख से अभिव्यक्त होने के कारण श्रीभगवतीगीता का एक नाम 'पार्वतीगीता' भी है।

इस अद्भुत गीता का प्रारंभ देवर्षि नारद के पूछने पर महादेव शिव द्वारा सुनाई गई पार्वती के जन्म की कथा से हुआ है। महादेव बताते हैं कि गिरिराज और उनकी पत्नी मेना ने ब्रह्मारूपा दुर्गादेवी की उग्र तपस्या कर उन्हें पुत्री रूप में पाने की प्रार्थना की थी। 'प्रार्थिता गिरिराजेन तत्पत्न्या मेनयापि च।। महोग्रतपसा पुत्रीभावेन मुनिपुङ्गव।' के रूप में महादेव का यह कथन संकेत है कि हमारे समाज में पुत्र प्राप्ति के लिए ही नहीं अपितु पुत्री की कामना से भी महान तपस्या की परंपरा रही है। इसलिए कि पुत्री ही आगे चलकर पुरुष से विवाह कर न केवल पुरुष की शक्ति बनती है बल्कि सन्तान को जन्म देकर सृष्टि के विकास का निमित्त भी बनती है। इस अर्थ में सती के विरह से दुःखी शिवजी ने भी 'प्रार्थिता च महेशेन सतीविरहदुःखिना' के अनुसार उन्हें प्राप्त करने का अनुरोध किया था। क्योंकि विरह से दग्ध पुरुष के अशांत ह्रदय को स्त्री ही अपने सान्निध्य से शीतलता व शांति प्रदान करती है। इस तरह हिमालय, मेना व शिवजी के मनोरथ को पूर्ण करने के लिए साक्षात दुर्गा मेना के गर्भ में आई और पार्वती के मङ्गल नाम से पुत्री रूप में जन्म की लीला की थी।

महादेव कहते हैं, जब पर्वतराज ने अपनी पुत्री के दर्शन किए तो आश्चर्य से भर गए। वह दिव्यस्वरूपा कन्या करोड़ों मध्याह्नकालीन सूर्य के समान तेजस्विनी, तीन नेत्रों वाली, आठ भुजाओं से युक्त तथा मस्तक पर अर्धचन्द्र धारण किए हुए थी। तब ज्ञानी गिरिराज जान गए कि उनके यहाँ सूक्ष्मा परा-प्रकृति ने ही अपनी लीला से अवतार ग्रहण किया है और उन्होंने भूमि पर सिर झुकाकर उन्हें प्रमाण किया। तदुपरांत देवी के इस विलक्षण विचित्र रूप का रहस्य पूछने पर देवी ने जो उपदेश दिया वही 'श्रीभगवतीगीता' के नाम से देवी भक्तों में प्रचलित हुआ। 

अपने रहस्य को उद्घाटित करते हुए देवी ने कहा, 'मुझे परमेश्वर शिव की आश्रिता पराशक्ति समझो। मैं सारी सृष्टि का संचालन करती हूँ तथा शाश्वत ज्ञान और ऐश्वर्य की मूर्ति हूँ। मैं ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश की जन्मदात्री हूँ और सृष्टि, स्थिति तथा विनाश का विधान करने वाली मुक्तिदायिनी जगदम्बिका हूँ। मैं सबकी अन्तरात्मा के रूप में स्थित हूँ और सभी का संसार समुद्र से उद्धार करने वाली हूँ। मुझे नित्यानन्दमयी ब्रह्मारूपा नित्या महेश्वरी समझो। हे तात! तुम दोनों की तपस्या से सन्तुष्ट होकर ही मैंने पुत्री बनकर तुम्हारे घर में जन्म लिया है। अतः तुम बड़े ही भाग्यशाली हो।'

देवी के दिव्य स्वरूप और जन्म के साथ उपदेशक रूप में पिता से बात करने की यह कथा आधुनिक विज्ञान के तर्क-कुतर्कों में उलझी नई पीढ़ी के लिए स्वाभाविक रूप से अविश्वसनीय हो सकती है, किन्तु इसके प्रतीक बहुत गहरे हैं। एक ओर दो या चार हाथ वाले पुरुष देवताओं की तुलना में देवी के आठ हाथों की परिकल्पना पुरुष के मुकाबले स्त्री की कार्यक्षमता दोगुनी या चार गुनी होने का संकेत है तो दूसरी ओर दो नेत्रों वाली सामान्य सन्तान की तुलना में देवी का तीसरा अतिरिक्त नेत्र स्त्री की उस जन्मजात क्षमता का प्रतीक है, जिसके बूते वह अगोचर को भी देख लेने में समर्थ होती है। जिसे नई पीढ़ी 'इंट्यूशन' या 'सिक्स सेंस' के अर्थ में ग्रहण कर सकती है। शिवजी का तीसरा नेत्र संहार का प्रतीक है किंतु पार्वती का तीसरा नेत्र स्त्री मात्र के 'अतिरिक्त सामर्थ्य' का ही प्रतीक समझा जाना चाहिए। वे सद्य:जात साधारण कन्या नहीं बल्कि असाधारण देवत्व से परिपूर्ण हैं, अतः सम्भाषण करने में सक्षम हैं।

अपने स्वरूप के बारे में पिता के प्रति देवी के कथन का प्रत्येक शब्द पार्वती के बहाने स्त्री मात्र के स्वरूप और सामर्थ्य की अभिव्यक्ति है। सारी सृष्टि का संचालन, ज्ञान और ऐश्वर्य स्त्री में ही निहित है, इसीलिए देवी ने स्वयं को इन सबकी मूर्ति कहा है। स्त्री ही जन्म देती है अतः 'ब्रह्मा' है और स्त्री ही सन्तान का पालन-पोषण करती है अतः 'विष्णु' है। विचलित होने पर स्त्री ही सर्वनाश का निमित्त बनती है अतः संहार की देवी होकर वही 'महाकाल शिव' की भाँति महाकाली भी हैं। स्त्री आनन्द में हो तो सबके लिए आनन्दमयी होती है और कृपा करें तो सभी को संसार सागर के पार उतार देती है। इसीलिए स्त्री मुक्तिदायिनी कही गई है और इन्हीं सारे गुणों व वैशिष्ट्यों के कारण जिनके घर वह जन्म लेती है, वे माता-पिता सौभाग्यशाली माने जाते हैं।

साधो! देवी ने सुख की प्राप्ति के लिए जिस मुक्तिमार्ग का उपदेश दिया, उसका सार यह है कि जो देह की अनित्यता और आत्मा की नित्यता को जान लेता है, वह अपने स्वरूप को पहचान लेता है। 'स्वस्वरूपं विदित्वैवं द्वेषं त्यक्त्वा सुखी भवेत्। द्वेषमूलो मनस्तापो द्वेषः संसारखण्डनम्।। मोक्षविघ्नकरो द्वेषस्तं यत्नात्परिवर्जयेत्।' अर्थात् अपने स्वरूप को जानकर जो द्वेष छोड़ देता है, वह मनुष्य सुखी हो जाता है। इसलिए कि द्वेष मन के सन्ताप का मूल है। द्वेष सांसारिक सम्बन्धों को भंग करने वाला है और मोक्ष प्राप्ति में विघ्न उत्पन्न करने वाला है। अतः प्रयत्नपूर्वक उसका परित्याग कर देना चाहिए। मानो देवी सिखाती है कि जो जन पुत्र बनाम पुत्री में भेद करते हैं, वे सदा दुःख पाते हैं और कभी मुक्त नहीं हो पाते। इसके उलट पुत्री पाकर आनन्दित होने वाले मुक्त हो जाते हैं। आज से प्रारंभ हो रहे शारदीय नवरात्र के बीच देवी के श्रीमुख से व्यक्त यही शक्ति-सूत्र हमारी भक्ति के केंद्र में रहे तो संसार की प्रत्येक बेटी का 'देवत्व' समाज का उजियारा बन सकता है।
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✍🏻विवेक चौरसिया
दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com

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