हिन्दी दिवस पर दिया गाया संदेश

हिन्दी दिवस पर विशेष 

 हिन्दी दिवस पर दिया गाया संदेश

  हिंदी के अनुरागी मित्रो,
       हर वर्ष हम 14 सितंबर को हिंदी दिवस संपूर्ण राष्ट्र में मनाते हैं ।यह प्रश्न खड़ा हो सकता है कि 14 सितंबर को ही क्यों । इसके पीछे का इतिहास जानना  जरूरी लगता है । नागपुर में अखिल भारतीय राष्ट्रभाषा प्रचार समिति का पांचवा अधिवेशन काका साहब गाडगिल (कालेलकर) की अध्यक्षता में 10 और 11 नवंबर 1953 को संपन्न हुई । उस अधिवेशन में एक प्रस्ताव आया ,"हिंदी को अंग्रेजी के स्थान पर पूर्ण रुप से राजभाषा का अधिकार प्राप्त नहीं हो जाता तब तक 14 सितंबर को हिंदी दिवस के रूप में हर साल स्मरण करना चाहिए "। परन्तु यह 14 सितंबर ही क्यों ? इसलिए कि 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा में नागरी लिपि में लिखित खड़ी बोली हिंदी को भारत की राजभाषा के रूप में मान्यता प्रदान की गई थी । परंतु ,यह भी कहा गया था ," अगले 15 वर्ष यानी 1965 तक सहायक राजभाषा के रूप में अंग्रेजी बनी रहेगी "। इस अधिवेशन के प्रस्ताव संख्या 6 में यह निर्णय लिया गया ,"यह सम्मेलन निश्चय करता है कि स्वतंत्र भारत के संविधान ने जिस दिन हिंदी को राजभाषा तथा देवनागरी को राजलिपी स्वीकार किया है उस दिन अर्थात 14 सितंबर को संपूर्ण भारत में हिंदी दिवस मनाया जाए " ।इसका प्रस्तावक श्री जेठालाल जोशी, अनुमोदक श्रीमती मैंना गाडगिल ,समर्थक श्रीमती राधा देवी गोयनका और दूसरा समर्थक श्री भा ग जोगलेकर थे । इस पारित प्रस्ताव एवं निर्णय के आधार पर पहला हिंदी दिवस सम्मेलन के रूप में 14 सितंबर 1954 को संपूर्ण भारत में बड़े उत्साह के साथ राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा के  तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री मोहनलाल भट्ट के अनुरोध पर मनाया गया । तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने संपूर्ण राष्ट्र के नाम हिंदी दिवस के प्रति, हिंदी प्रेमियों के प्रति ,तमाम गणमान्य व्यक्तियों, साहित्यकारों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए शुभ संदेश दिया था । इसका सारांश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति,वर्धा से प्रकाशित पत्रिका "राष्ट्रभाषा" अक्टूबर 54 की पृष्ठ संख्या 529 से 539 तक 10 पृष्ठों में प्रकाशित किया गया था । परंतु आज भी हिंदी ने राजभाषा की श्रेणी से आगे बढ़कर राष्ट्रभाषा के पद को प्राप्त नहीं किया है । हिंदी सेवियो, हिंदी प्रेमियों के लिए यह ग्लानि की बात है । सबसे आश्चर्य तो तब होता है जब कहा जाता है कि हिंदी आसानी से नहीं नहीं सीखी जा सकती क्यों कि यह कठिन भाषा है ।
     इस संदर्भ में एक घटना मुझे याद आ रही है । कोलकाता के एक बड़े हॉल में एक सभा का आयोजन किया गया था । लोकमान्य तिलक भाषण देने वाले थे । हॉल खचाखच भरा था । वहाँ गांधी जी उपस्थित थे । उसमें लोकमान्य तिलक ने अंग्रेजी में भाषण दिया । जब भाषण समाप्त हुआ तो गांधी ने  उपस्थित लोगों से, उपस्थित जनता से पूछा,
                                                          " कितने लोगों ने यह भाषण समझा ?"
           उत्तर में जिन लोगों ने हाथ उठाए उनकी संख्या 100 से भी कम थी । 
                 गांधी ने फिर कहा."यदि लोकमान हिंदी में भाषण देते हैं तो कितने लोग समझ लेते ? 
          लगभग संपूर्ण जनता ने हाथ उठा दिए ।
         कहते हैं इसी घटना के बाद लोकमान्य ने 2 माह के अंदर हिंदी सीख ली और वे अच्छी हिंदी में भाषण देने लगे । 
      1927 में गांधी का देश- भ्रमण चल रहा था । जहां जाते  वहां अंग्रेजी में अभिनंदन पत्र मिलता ।इसी क्रम में तत्कालीन अविभाजित बिहार के झरिया के मजदूरों ने भी एक अभिनंदन पत्र दिया ,वह अंग्रेजी में था । गांधी का हृदय विदिर्ण हो गया । उन्होंने कहा कि अंग्रेजी भाषा की भक्ति मेरी समझ में नहीं आती । इस सभा में हजारों मजदूर हैं जो अंग्रेजी का एक अक्षर भी नहीं जानते होंगे । अगर समझने वाले होगें भी तो 50 से भी कम होंगे । यह मानपत्र बंगला या हिंदी में लिखा जा सकता था ,परंतु अंग्रेजी में लिखने का क्या तुक था ? मैं उम्मीद करता हूं वह दिन आ रहा हैं जब सारे मानपत्र हिंदी में लिखे जाएंगे " 
  परंतु  आज भी अंग्रेजी का वर्चस्व उसी रूप में वर्तमान है । 

      कुछ ऐसी ही अन्य मर्म की आहत करने वाली घटनाएं हैं ।जब श्रीमती विजयालक्ष्मी पंडित रूस में भारत के राजदूत बनकर जा रही थी तभी चर्चा का विषय बना कि दूसरे देश को ले जाया जाने वाला पहचान पत्र किस भाषा में हो । अंत में हिंदी को यह सौभाग्य मिला और पहला पहचान पत्र हिंदी में लिखा गया । यह भारत का पहला प्रमाण पत्र था । रूस पहुंचने पर पूर्व जांच के लिए रूसी सरकार की ओर से साथ लाए गए प्रमाण पत्र की मांग हुई।  पहचान पत्र दे दिया गया ।श्रीमती पंडित सोच रही थी कि हिंदी में लिखे पहचान पत्र को यहां कौन समझेगा ,क्योंकि उसे दिल्ली के हिंदी पंडितों ने तैयार किया था ।किंतु यह क्या !एक ही घंटे बाद टेलीफोन पर एक रूसी महिला श्रीमती पंडित को मीठी और सरस हिंदी भाषा में यह सूचना दे रही थी कि यदि आपको आपत्ति न हो तो  हिंदी भाषा की इस पहचान पत्र में जो गलती रह गई है उसे ठीक कर लिया जाए ।हिंदी भाषा की गलती और निकालने वाली एक रूसी महिला ! श्रीमती पंडित को लगा जैसे सिर पर पहाड़ गिर गया।
     दूसरी घटना -रूस के नेता  कुश्चेव  भारत आए हुए थे । राजधानी दिल्ली में उनका शानदार स्वागत हो  यह उचित था । मुख्य मार्ग तोरण एवं पताकों से पटा हुआ था ।परंतु स्वागत द्वार पर अभिनंदन के शब्द किस भाषा में लिखे जाएं , यह असमंजस था । उसके पूर्व पंडित नेहरू रूस गए थे ।उनका सम्मान , सम्मान पत्र और सम्मान की विधि पूर्णतः हिंदी मय थे । पंडित नेहरू को लगा कि रूस को हिंदी से प्रेम है ,इसलिए स्वागतम शुभ आगमन ऐसे शब्द दिए गए और दूसरी और उसी का रूसी अनुवाद । लेकिन जो परिपत्र प्रकाशित किया गया था वह अंग्रेजी में था । जब परिपत्र रूसी नेता के हाथ में पड़ा तो पंडित नेहरू का ध्यान आकर्षित करते हुए उन्होंने कहा, "यह अंग्रेजी भक्ति कब तक चलती रहेगी ? क्या आपकी भाषा हिंदी में ऐसी शक्ति नहीं है जो परिपत्र तैयार कर सके ? अगर नहीं तो रूसी भाषा में तैयार कर देते ।"
     आगे रूस के प्रसिद्ध नेता बुल्गानिन भारत आए थे । उन्होंने एलोरा गुफाएं घूमने का कार्यक्रम किया । उनके साथ मार्गदर्शक और पथ प्रदर्शक यानी  गाइड जो दिया गया वह दक्षिण भारतीय था । वह अंग्रेजी में उनको प्रत्येक बात बताता चल रहा था । बुल्गानिन एक दर्शन के बाद रुक गए और कहा," क्या तुम रूसी नहीं बोल सकते ? "
                             उसने जवाब दिया ,"नहीं ! मैं रुसी नहीं जानता"
             " तो अच्छा होता हिंदी में बोलता । हिंदी में बोलो । हमारा दुभासिया मुझे रुसी में बताता चलेगा "
                         गाइड का उत्तर था," मैं हिंदी नहीं जानता"।
     इनका चेहरा तमतमा उठा और नेहरू की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा," अब तो  तुम गुलाम नहीं हो, तभी अंग्रेजी बोलते हो ? इसके लिए  --------। नेहरू का चेहरा उतर गया ।यह हमारी हिंदी का सम्मान है ।
   अगली घटना कालिदास जयंती की है ।यह सुप्रसिद्ध समारोह बड़े उत्साह पूर्वक उज्जैन में मनाया जा रहा था । तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद के अलावा संस्कृत के एक से एक बड़े विद्वान उज्जैन के इस समारोह में सम्मिलित होकर महाकवि कालिदास के प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे थे । हिंदी भाषा के रूसी विद्वान श्री बारानिकोव इस सम्मेलन में पधारे थे । किंतु जब उन्होंने देखा कि राष्ट्रपति तथा बाद के दो व्यक्तियों के हिंदी भाषण के बाद धड़ाधड़ अंग्रेजी में भाषण प्रारंभ हुए ,तो वे खींझ भरे शब्दों में यह कहते हुए सीधे बाहर चले गए कि मैं तो यहां संस्कृत या हिंदी में भाषण सुनने की लालसा लेकर आया था परंतु यहां तो संस्कृत के कवि पर उसी की नगरी में इंग्लैंड की भाषा में भी व्याख्यान देने में गौरव अनुभव किया जा रहा है । आश्चर्य है यही स्थिति आज तक बनी हुई है ।
       साइकिल पर विश्व-भ्रमण करने वाले श्री जायसवाल जब लेनिनग्राद पहुंचे तो उन्होंने स्वागत में आयोजित सभा में अंग्रेजी में भाषण आरंभ किया । एक रूसी महिला बीच में ही खड़ी हो गई और उसने कहा,"महाशय! आप जिस देश में खड़े होकर भाषण दे रहे हैं उस देश की भाषा रूसी है । मैं आपको  बताना चाहूंगी कि यहां लोग अंग्रेजी नहीं समझते । यदि रूसी भाषा नहीं आती तो आप अपने देश की भाषा में हिंदी  में बोलिए। आपका देश भारत है और भाषा व्यवहार करते हैं ब्रिटेन की । क्या आपकी यही सभ्यता है ? "जायसवाल के पास उत्तर देने के लिए कोई शब्द नहीं थे ।
      इस तरह बाहर के लोग भाषा के नाम पर हमें अपमानित करने में नहीं चुकते हैं ,लेकिन हम सुधरने का नाम नहीं लेते । अंग्रेजी में व्याकरण विहीन भाषण की बड़ी मर्यादा है ,लेकिन हिंदी में बोलने वाला व्यर्थ का बकवास करता है ।
                   अतः आज का दिन यह निर्णय लेने का दिन है कि हम शपथ लें कि अपनी वाणी और अपनी रचना में हिंदी शब्दों के प्रचुर भंडार का प्रयोग करें ।।अन्य देशों की भाषाओं  का सम्मान भी करें ।क्योंकि वे सभी हमारे घर की खिड़कियाँ होंगी ,दरबाजा तो हिन्दी ही रहेगी  । 
डॉ सच्चिदानंद प्रेमी
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