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कैसा गांव?

कैसा गांव?

न पनघट है न पनिहारिन
न ग्वाल बचे न ही ग्वालिन।
दूध दही की बात करें क्या
मट्ठा मक्खन हुआ पुरातीन।
शाम ढले चौपालों पर,
एक मेला सा लगता था,
गांव गली का घर घर का
सुख दुख साझा हो जाता था।
सावन का मदमस्त महीना
घर घर झूले पड़ते थे,
पैंग बढ़ाकर झूला करते
गीतों में जीवन रचते थे।
बात हुयी सब भूली बिसरी
कुछ को तो कुछ याद नहीं,
नये दौर की पीढ़ी को तो,
साझा संस्कृति ज्ञात नहीं।
दादी नानी के किस्से
अब भूली बिसरी बात हुयी,
आधुनिक बनकर रह भी तो
मोबाइल टीवी की दास हुयी।
बचे नहीं हैं आंगन में अब
नीम आम पीपल के पेड़,
जिनकी छाया में रहकर
समय बिता देते थे लोग।
भरी दोपहरी जेठ मास की
पीपल की शीतल छांव
सावन में अमुवा पर झूला
सखियों की होती थी ठांव।
सखी सहेली व्यस्त हो गयी
बन्द घरों में- त्रस्त हो गयी,
जबसे छूटा साझा चूल्हा
निज घर में ही सिमटा गांव।
नहीं बची रह पगडंडी
जो खेतों से घर तक आती थी
भरी दोपहरी चाची ताई
रोटी मट्ठा खेतों तक लाती थी।
खत्म हो गई बैलों से खेती
आधुनिकता विस्तार हुआ
बैलगाड़ियां छकडा बुग्गी बात पुरानी
ट्रैक्टर अब आधार हुआ।
अब तो चुल्हा चक्की भी
बस संग्रहालय की चीज बनी
सिलबट्टा या ओखल भी तो
बहुत पुरानी रीत बनी।
पक्की सड़कें गाड़ी दौड़ें
पक्के घर सब गांव में,
फूंस मड़ैया छप्पर से रिश्ते
नहीं दिखते गांव में।
साझा सबकी बेटी होती
साझा चाची ताई थी
समय बदल गया नफरत पनपी
गांव गली घर के भीतर 
नागफनी उग आई है।
नहीं बची अब खाट खटौली
नहीं कहीं मूढ़े दिखते
सीख सिखाते बच्चों को
नहीं गांव में बूढ़े दिखते।
नहीं खोर पर गैया बंधती
न ही बैलों का राज है
गौधूली क्या समझ सके ना
नया यह अन्दाज है।

अ कीर्ति वर्द्धन
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