सन्यासी और मठ तथा धर्मनिर्णय
-प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज
आदि शंकराचार्य जीवनपर्यन्त ब्रह्मचारी रहे। उन्होंने सनातन धर्म के तत्वदर्शन के उत्कर्ष के लिये श्रृंगेरी, पुरी, द्वारका एवं बद्रीधाम में चार मठ स्थापित किये। परंतु बाद में देश में मठों की संख्या निरंतर बढ़ती रही।
पूर्व में, महाभारत में भी मठों और चैत्य के वर्णन आये हैं। वस्तुतः संस्कृत की ज्ञान परंपरा से अनभिज्ञ यूरो-ईसाई लोगों ने हिन्दू धर्म के विरूद्ध विशेष आग्रह के कारण चैत्य का अर्थ बौद्धों के मठ या विहार आदि कर दिया। जो कि पूरी तरह गलत है। चैत्य सनातन धर्म परंपरा में अत्यंत प्राचीनकाल से चले आये हैं और बौद्ध पंथ प्रारंभ में सनातन धर्म की एक शाखा होने के कारण उसमें भी चैत्य स्थापित किये जाते रहे। अनजान लोगों ने चैत्य को बौद्ध धर्म से जोड़ दिया तो इससे केवल उनका अज्ञान प्रकट होता है। सत्य का इससे कोई संबंध नहीं।
सन्यासियों की बहुत सी शाखायें हैं और बहुत से प्रकार हैं। अनुशासन पर्व में 4 प्रकार के सन्यासी बताये हैं - कुटीचक, बहूदक, हंस एवं परमहंस। कुटीचक सन्यासी वह है जो अपने घर के पास ही पुत्रों द्वारा बना दी गई कुटिया में रहता है और परिजनों से ही भिक्षा ग्रहण करता है। ऋषियोें के आश्रम में वह जाता-आता रहता है। बहूदक सन्यासी वे हैं जो सात पवित्र ब्राह्मणों के यहां से भिक्षा मांगकर भोजन लेते हैं। हंस लोग किसी ग्राम में एक रात से अधिक नहीं ठहरते और किसी नगर में पांच रात्रि से अधिक नहीं ठहरते। वे बीच-बीच में चान्द्रायण आदि कठिन व्रत करते रहते हैं। परमहंस सदा पेड़ के नीचे या श्मशान या किसी खाली पड़े मकान में रहते हैं और सभी वर्णों के यहां भिक्षा मांगते हैं तथा सबको एक समान मानते हैं। परमहंसो की भी कई श्रेणियां शास्त्रों में वर्णित हैं। अवधूत, तुरीयातीत आदि भी सन्यासियों के प्रकार हैं।
केवल अद्वैतदर्शन के अनुयायी सन्यासियों की ही दस शाखायें हैं - तीर्थ, आश्रम, वन, अरण्य, गिरि, पर्वत, सागर, सरस्वती, भारती एवं पुरी। अन्य दर्शनों - द्वैत, अद्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत आदि की भी अनेक शाखायें हैं और अनेक मठ हैं। हिन्दुओं में इन सभी के अनुयायियों की भी बहुत बड़ी संख्या है। मठों के स्वामी महन्त कहलाते हैं। महन्तों की भी मंडलेश्वर, महामंडलेश्वर आदि श्रेणियां हैं।
शस्त्रधारी मुसलमान फकीरों ने अपने-अपने मुसलमान जागीरदारों की जागीर बढ़ाने के लिये हिन्दुओं के विरूद्ध जेहाद की घोषणा करके या बिना घोषणा किये भी बड़ी संख्या में हिन्दुओं की हत्यायें कीं और हिंदू राजाओं का भी वध किया। हिन्दुओं की हत्या से दुखी मधुसूदन सरस्वती ने दस में से सात नामों वाले सन्यासियों को अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित किया और उन्हें मुसलमान फकीरों के अत्याचारों को रोकने के लिये खड़ा किया। अंग्रेजों ने दोनों को ही ठग एवं डकैत घोषित कर उनका दमन किया और उन्हें आपस में लड़ने को भी प्रेरित किया।
महत्वपूर्ण बात यह है कि 18वीं शताब्दी ईस्वी में प्रायश्चितेन्दुशेखर तथा प्रायश्चितनिर्णय के लेखक नागेश भट्ट या नागोजिभट्ट ने लिखा है कि वेदव्यासकृत सन्यास पद्धति के अनुसार जब कलियुग के 4400 वर्ष बीत जायें तो विवेकी ब्राह्मणों को सन्यास नहीं ग्रहण करना चाहिये। 14वीं शताब्दी ईस्वी के आरंभ में 4401 वर्ष बीत चुके थे। इस प्रकार इस व्यवस्था के अनुसार तो 14वीं शताब्दी ईस्वी के आरंभ से किसी को सन्यासी होना ही नहीं चाहिये। परंतु 14वीं शताब्दी ईस्वी के बाद हिन्दू धर्म में सन्यासियों की संख्या लगातार बढ़ती रही है। 17वीं शताब्दी ईस्वी में महान विद्वान कमलाकर भट्ट ने निर्णयसिन्धु नामक श्रेष्ठ ग्रंथ लिखा। उसके तृतीय परिच्छेद में कहा है कि सन्यास संबंधी वर्जना केवल त्रिदंडी सन्यासियों के लिये है। शेष सभी प्रकार के सन्यास के लिये कलियुग में लोग सन्यास ग्रहण की पात्रता रखतेे हैं।
धर्मनिर्णय और सन्यासी -
सन्यासी को लौकिक जीवन में किसी भी प्रकार की रति नहीं होनी चाहिये। अतः गृहस्थ जीवन के किसी भी कार्य में सन्यासी किसी प्रकार की रति नहीं रखते। ऐसी स्थिति में धर्मसंबंधी किसी विषय पर दुविधा या संशय की स्थिति में धर्मनिर्णय का अधिकारी कौन है, यह प्रश्न निरंतर उठता रहा है। इसका समाधान धर्मशास्त्रों ने यह किया है कि वस्तुतः ब्राह्मणों की सम्मति से राजा ही इस विषय में निर्णय कर सकता है। यह निर्णय विद्वान ब्राह्मणों की परिषद के परामर्श के अनुसार ही हो सकता है। अतः सन्यासी को धर्मनिर्णय के प्रसंग से दूर ही रखा गया है।
तैत्तिरीय उपनिषद में शिक्षावल्ली का 11वा अनुवाक है -
अथ यदि ते कर्मविचिकित्सा वा वृत्तविचिकित्सा वा स्यात्। ये तत्र ब्राह्मणाः सम्मर्शिनः। युक्ता आयुक्ताः। अलूक्षा धर्मकामाः स्युः। यथा ते तत्र वर्तेरन्। तथा तत्र वर्तेथाः। अथाभ्याख्यातेषु। ये तत्र ब्राह्मणाः सम्मर्शिनः। युक्ता आयुक्ताः। अलूक्षा धर्मकामाः स्युः। यथा ते तेषु वर्तेरन्। तथा तेषु वर्तेथाः। एष आदेशः। एष उपदेशः। एषा वेदोपनिषत्। एतदनुशासनम्। एवमुपासितव्यम्। एवम चैतदुपास्यम्।
अर्थात् यदि किसी कर्म के विषय में दुविधा उत्पन्न हो जाये अथवा किसी वृत्त यानी आचरण के विषय में दुविधा हो जाये तो ऐसी स्थिति में उत्तम विवेकवान तथा परामर्शपटु और सदाचार परायण एवं रूखेपन वाले स्वभाव से रहित ब्राह्मणों से परामर्श कर लेना चाहिये अथवा उनके आचरण को देखना चाहिये, जैसा-जैसा वे धर्माभिलाषी ब्राह्मण आचरण करते हों, वैसा ही वैसा आचरण तुम्हें करना चाहिये। यही गुरूजनों का उपदेश है और यही वेदरहस्य है तथा यही परंपरागत अनुशासन है। तुमको इसी प्रकार बर्ताव करना चाहिये, इसी प्रकार बर्ताव करना चाहिये।
प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकजदिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com
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