झाँसी की रानी : लक्ष्मीबाई

झाँसी की रानी : लक्ष्मीबाई
“ऐतिहासिक उपन्यास”

संकलन अश्विनीकुमार तिवारी
२३ वर्ष की उम्र में वीरगति को प्राप्त इस मराठा रानी ने १८५७ की लड़ाई में वही जोश और वीरता पैदा किया जो बाद में भगत सिंह ने २३ वर्ष की आयु में १९३१ तक किया था | “ख़ूब लड़ी मर्दानी” हो या “इंक़लाब ज़िंदाबाद” दोनो को भूलना भारतीय जनमानस के लिए असम्भव है । झलकारी बाई ,सुंदर ,मोती ,जूही सभी अलग जातियों की स्त्रियाँ, कोई वेश्या, कोई नर्तक़ी और क्या नहीं? स्त्री उत्थान के लिए लक्ष्मीबाई का योगदान अभी भी अनजान है | ये सब उनकी सेना में महत्वपूर्ण पदों पर थीं |


यह सब अनजान ही रह जाता यदि “वृंदावन लाल वर्मा” (“झाँसी की रानी” किताब के लेखक) को एक स्वप्न न आता जिसमें उन्हें रानी झाँसी की प्रेरणास्पद गाथा लिखने का आदेश था | इस स्वप्न से पहले वे अंग्रेज़ी के प्रचारित इतिहास के अनुसार 1857 को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम न समझ चंद राजाओं का विद्रोह भर मानते थे । इसके बाद उन्होंने इस पर शोध प्रारम्भ किया | झाँसी और उसके आस पास, सरकारी लेख, पत्र आदि खोजे, हज़ारों लोगों से मिले, जिनके पूर्वज इस युद्ध में शामिल थे | लेखक के 1889 में पैदा होने के कारण, कुछ लोग उन्हें जीवित भी मिले जिनमे रानी के दत्तक पुत्र भी थे (इस पुस्तक की भूमिका में इसका वर्णन है ) |
जब वे आश्वस्त हुए कि यह झाँसी में एक जन विद्रोह था और लक्ष्मीबाई एक जन नायिका थी तब कहीं जाकर उन्होंने किताब लिखी | लक्ष्मीबाई कुशल प्रशासक ,योद्धा और स्वराज की देवी थी, समान नागरिक अधिकारों की पोषक, उदार प्रजा रक्षक भी थी | करीब साढ़े तीन सौ पन्नो की इस किताब में सिर्फ़ रानी की महानता का वर्णन ही नहीं राजाओं की अय्याशी, अत्याचार, देशद्रोह और षड्यंत्रों का भी पूरा वर्णन है | जेनरल ह्यूरोज़ की कुशल युद्ध नीति का भी पूरा चित्रण है ।
रानी की फ़ौज के कुछ प्रसिध्द नाम गौस मोहम्मद , खुदा बख़्श को सब जानते हैं पर यह काम लोग जानते हैं कि पूरी एक टुकड़ी 400 पठानों की थी | ग़द्दार अली मोहम्मद भी उसी में से एक था और उसका पर्दाफाश करने वाला बहराम मोहम्मद भी उसी टुकड़ी में था | तत्कालीन कवि हृदयेश ने लिखा :-


“मुसलमान सितापती सूमरें हिंदू मुख हकताला मुसलमान मौसी कर टेरें हिंदू टेरे ख़ाला”


रानी को गीता पूरी याद थी और अंतिम शब्द थे “नैनम दहती पावकः” (आत्मा अमर है अग्नि इसे जला नहीं सकती) | रानी की चिता के लिए बाबा गंगादास की कुटिया काम आई | और रानी की चिता को समाधि के बजाय पीर की मज़ार कह रक्षा करने के लिए सैनिक गुल मोहम्मद अपनी वर्दी चिता में जला कर मुस्लिम पीर बन गया था | और सत्य स्थापित होने तक रहा | श्री वृंदावन लाल वर्मा को पद्म भूषण मिला ,इस कृति के लिए २००० रुपए का राजकीय पुरस्कार भी मिला | अवसर मिले तो यह रचना अवश्य पढ़ें, ये अमेज़न पर आसानी से उपलब्ध है |
✍🏻वृन्दावन लाल वर्मा कृत “झाँसी की रानी” पर राकेश कुमार जी कि पोस्ट


अगर इतिहास में बहुत कम रूचि भी रही होगी, तो भी रानी लक्ष्मीबाई (झाँसी की रानी) के बारे में तो सुना ही होगा? आखिर लड़ क्यों रही थी फिरंगी उपनिवेशवादी ताकतों से? बड़ा ही मामूली सा कारण था। जैसे ही परिवार के आखरी पुरुष की मृत्यु होती थी, अगली पीढ़ी में कोई पुरुष शासन संभालने के लिए नहीं होता था, वैसे ही फिरंगी उपनिवेशवादी राज्य को हड़प कर अपने कब्जे में ले लेते थे। भारत में स्त्रियों के भी जमीन इत्यादि पर मालिकाना हक़ की व्यवस्था थी (बेकार बहस में कूदने की मूर्खता से पहले “दायभाग” और “मिताक्षरा” पढ़ लें, दायभाग से ही बिहार के दियाद-दायाद शब्द निकले होंगे)।


इससे थोड़ा ही पहले का दौर देखेंगे तो मराठा राजवंशों को बरसों रानियों ने चलाया था। अंग्रेजों से लड़कर अपना राज्य लेने वाली इकलौती रानी, शिवगंगई की वेल्लूनाचियार भारत में थी। भारत के 200 वर्ष से पुराने सैकड़ों मंदिरों के इस्लामिक-इसाई आक्रान्ताओं के तोड़ने पर उनका पुनः निर्माण करवाने वाली भी राजमाता अहिल्याबाई होल्कर रही हैं। यहाँ स्त्रियों को संपत्ति दी जा सकती थी, लेकिन अब्राहमिक परम्पराओं में ऐसा नहीं हो सकता था इसलिए पुरुष उत्तराधिकारी की मृत्यु होते ही वो राज्य हड़प लेना चाहते थे। इसी नीचता के विरुद्ध झाँसी की रानी लड़ रही थी।


हाल के कोविड महामारी के लॉक-डाउन में जब कई लोगों ने कसरत-व्यायाम शुरू किये होंगे तो शारीरिक श्रम कितना मुश्किल है ये भी कई लोगों को समझ में आ गया होगा। अब सोचिये कि पांच-दस किलो की भी अगर तलवार-ढाल हो तो उसे लेकर दिन भर लड़ना एक दिन में तो संभव नहीं होगा? गौर करने लायक ये भी है कि रानी झांसी हो, रानी अबक्का हो, रानी चेनम्मा हो, सबकी सेनाओं में पांच हजार या उससे अधिक स्त्रियाँ थीं। ये सब क्या एक दिन के अभ्यास में तलवार, घोड़े चलाना सीखकर युद्ध में उतर आई होंगी? नहीं हो सकता!


यानी जो स्त्रियों को शिक्षा ना देने की बात है वो भी “सर्कमस्टांसियल एविडेंस” पर खरी नहीं उतरती। ये सारे झूठ फैलाने वाले विदेशियों की फेंकी बोटियों पर पलने वाले टुकड़ाखोर थे। बिरियानी में गोश्त के टुकड़े खोजते इन नीचों को आदत भी अपने विदेशी आकाओं वाली ही पड़ी हुई थी। तो ठीक वही विदेशी नीति अपनाते हुए जनवरी 2011 में इन टुकड़ाखोर कुत्तों ने अदालतों की मदद ली और उच्च न्यायलय के आदेश से श्री पद्मनाभन स्वामी मंदिर पर आक्रमण कर दिया। उनका तर्क था कि त्रावणकोर के अंतिम राजा की 1991 में मृत्यु के बाद परिवार का मंदिर पर कोई अधिकार नहीं रहता, इसलिए मंदिर सरकारी हुआ!


करीब करीब इसी तर्क से संविधान को बूटों तले रौंदते हुए भारत के दूसरे दर्जे के नागरिकों (यानि हिन्दुओं) से उनके सभी मंदिर छीन लिए गए हैं। संविधान कहता है कि सरकार बहादुर धार्मिक मामलों में दखल नहीं देगी। इसके बाद भी भारत के दूसरे दर्जे के नागरिकों, यानि हिन्दुओं के सभी मंदिर सरकारी कब्जे में क्यों हैं, ये सवाल किसी ने पूछा ही नहीं! उससे भी मजेदार है भारत के दूसरे दर्जे के नागरिकों की मूर्खता, जिसे चूतियापा कहना बिलकुल उचित होगा। ये मन ही मन, बिना जानने का प्रयास किये, ये मान लेते हैं कि मंदिर तो किसी ब्राह्मण पुरोहित का होगा! कभी किसी मंदिर में पूछा या जांचकर देखा कि उसका ट्रस्ट डीएम-डीसी क्यों चलाता है? कभी पूछा कि मंदिर में दान किये पैसे सरकारी खजाने में टैक्स भरने के बाद क्यों जमा होते हैं?


बाकी किसी मजहब-रिलिजन को मिलने वाला चंदा जब टैक्स से मुक्त है, तो सिर्फ हिन्दुओं पर ही टैक्स (बोलेन तो जजिया) भरने की ये जवाबदेही क्यों है? जब दूसरे मजहब-रिलिजन के न्यास (ट्रस्ट) में सरकार कोई नियुक्ति नहीं कर सकती तो हिन्दुओं के न्यास (ट्रस्ट) में सरकार बहादुर अपने आदमी क्यों बिठा सकती है? अगर हिन्दू किसी मजहब-रिलिजन के ट्रस्ट का सदस्य नहीं हो सकता तो भला किसी और मजहब-रिलिजन का डीएम-डीसी किसी हिन्दुओं के मंदिर के ट्रस्ट का मुखिया बनकर कैसे बैठ सकता है? बाकियों को जब अपने तरीके से अपने धार्मिक रीति-रिवाजों के पालन की छूट है तो भला हिन्दुओं के मंदिर में बलि होगी या नहीं होगी, ये फैसला देने वाली सरकार कौन होती है?


ये सब सिर्फ और सिर्फ इसलिए होता है क्योंकि हिन्दुओं ने अपनी विकट मूर्खता (चूतियापा पढ़ें) में अपनी आँखे बंद करके, सब सरकार के भरोसे छोड़ दिया है। इन मंदिरों से गुरुकुल चलते थे, इनसे आपदा के समय मदद आती थी। अभी भी लॉक-डाउन के दौरान आप देख चुके हैं कि मजहब-रिलिजन की तरफ से नहीं बल्कि मंदिरों और साधु कहे जाने वाले लोगों की ओर से ही सहायता आई है। ये मदद के बदले धर्म-परिवर्तन का प्रयास भी नहीं करते। नियोगी समिति की रिपोर्ट की वजह से कम से कम 1950 के दशक से ये बात खुद सरकार को भी पता है कि मदद के बदले धर्म-परिवर्तन करवाया जाता है। उसके बाद भी स्थिति ये है कि जब कोरोना के थूकलीगी पकड़े गए तब जाकर नजर आया कि पर्यटन के वीसा पर भारत आकर लोग मजहबी गतिविधियों में लगे होते हैं।


अपने मंदिरों का नियंत्रण अपने हाथ में हो, ये हिन्दुओं का संवैधानिक अधिकार है जो आजादी के सत्तर साल बीत जाने पर भी उन्हें दिया नहीं गया है। कानूनी प्रक्रिया के जरिये एक-एक करके मंदिरों को छुड़ाने पर मजबूर हिन्दुओं का काम एक रामजन्मभूमि मंदिर बनने से या एक श्री पद्मनाभन स्वामी मंदिर को मलेच्छों के कब्जे से छुड़ाने से चलने वाला भी नहीं है। आपको अपनी आँखे खोलनी होगी। अंग विशेष को कुर्सी से चिपका कर बैठे रहने के बदले कष्ट उठाने होंगे। अगर और कुछ नहीं होता तो कम से कम असंवैधानिक “हिन्दू रिलीजियस एंड चैरिटेबल इंडोवमेंट एक्ट” जैसे कानून पढ़कर देखिये कि कैसे सेक्युलरिज्म के नाम पर शेखूलरिज्म फैलाकर आपके मंदिरों पर कोई नेता, कोई अधिकारी कब्ज़ा कर सकता है।


बाकी “कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी। सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-ज़माँ हमारा” में विश्वास रखते हों तो जरूर रखिये। एक बार भारत का 1900 का नक्शा और 2000 का नक्शा मिलकर देख लीजियेगा, हस्ती मिट रही है, या नहीं मिट रही है, उसपर खुद को जवाब दे लीजियेगा।




क्यों बड़ा महत्वपूर्ण सवाल होता है ! जैसे ही आप पूछेंगे कि झाँसी की रानी कि कविताएँ उड़िया में क्यों हैं, ओड़िसा तो समुद्र के किनारे है और उस जमाने में झांसी से काफी दूर होता होगा ना ? तब आपको चन्दन हजुरी या उनका उपनाम – चाखी खुंटिया सुनाई देगा, (उपनाम ज्यादा प्रसिद्ध है)।
पुरी के जगन्नाथ मंदिर के पंडा चन्दन हजुरी 1827 में पिता हजुरी रघुनाथ खुंटिया (भीमसेन पंडा) और माता कमलावती के घर, सांबर दशमी के दिन जन्मे थे। अब ये तारीख अंग्रेजी कैलंडर के हिसाब से सात जनवरी होती, या बीस जनवरी होनी चाहिए इसपर विवाद है।
हमें ऐसे विवाद इसलिए पसंद हैं क्योंकि इसी बहाने कुश्ती-शस्त्र और धर्म की शिक्षा देने वाले जगन्नाथ पुरी के एक पुजारी का नाम चर्चा में आ जाता है। वो रानी झांसी के पिता के पुरोहित भी थे और इसी वजह से मनुबाई यानि रानी लक्ष्मीबाई के सहयोगी हुए।
भारत के अनेक स्वतंत्रता संग्रामों में से सबसे विख्यात 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में सक्रीय भूमिका निभाने के लिए इनका घर वगैरह इसाई हमलावरों ने कब्ज़ा लिया था। ये मई 1857 में मेरठ से झाँसी पहुँच गए थे और स्वतंत्रता संग्राम के कुचले जाने के बरसों बाद 1865 में घर लौट पाए।
इतने दिनों में इन्हें युद्धों में मृत मान लिया गया था और इनकी पत्नी सुन्दरमणि विधवाओं सा जीवन बिता रही थी। उनका देहावसान 1870 में हुआ।✍🏻आनन्द कुमार
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