राजनीति वोट की, विचित्र ढा रही यहाँ
देशभक्ति लोभ से लिपट के जा रही कहाँ?
हो गया स्वतंत्र देश, घाव है बना हुआ
वाह रे विदेश प्रेम! आज है घना हुआ।
खा रहे हैं पत्तलों में छिद्र भी बना रहे
राजगद्दी के लिए विदेश को मना रहे।
शत्रु,देशद्रोहियों से कर रहे हैं आँखें चार
सपूत मातृभूमि के रुकें नहीं करें प्रहार।
दे चुके संदेश, शांति दूर तक न दिख रही
कालिका करालिका किसी का भाग्य लिख रही।
रजनीकांत।
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