का चुप साधि रहेहु बलवाना
लंका प्रस्थान करने के पूर्व सुग्रीव के समस्त महारथियों ने अपने सामर्थ्य की विशेषताओं और सीमाओं का वर्णन किया। उनमें कोई भी इतना समर्थ नहीं था कि वह सागर पार करे और लौट कर आ सके। इन सबों के बीच महाबली हनुमान चुप्पी साधे सागर को निहार रहे थे। तब उन्हें देख कर अनुभवी जामवंत ने कहा- हे हनुमान , संसार में ऐसा कुछ भी नहीं जो तुम्हारे लिए असंभव हो। हे प्रभंजन पवनपुत्र हनुमान! यह तुम चुप्पी साधे क्या देख रहे हो? यह महासागर तुम्हारे लिए गाय के खुर में जमा जल के समान बहुत मामूली है।' सुनते ही पवनपुत्र पर्वताकार हो गये और जय श्रीराम का जयघोष करते हुए उन्होंने छलांग लगा दी और सुरसादि बाधाओं को पार करते हुए लंका के सागरतट पर पहुँच गये।
जीवन, जगत में उत्साहपूर्ण प्रोत्साहन का असाधारण प्रभाव पड़ता है।ऐसे शब्दों से मनुष्य की शक्ति शतगुणित होजाती है और इंसान असंभव से असंभव कार्य भी सम्पन्न कर डालता है।
ऐसे मातापिता जो अपनी संतानों की विशेषताओं को पहचान कर उनको उस दिशा में प्रोत्साहन देते रहते हैं, उनकी संतानें स्कूल, कालेज की परीक्षाओं में अच्छा करने के साथ ही संसार में बड़े-बड़े कार्य करने में समर्थ होती हैं।
प्रोत्साहन के शब्द अमृत की बूँदें हैं जो मरणासन्न को भी नवजीवन प्रदान करने मेन समर्थ होती हैं।
खेल के मैदान में खिलाड़ियों को अपने दर्शकों की उत्साहभरी ललकार सुनने की प्रतीक्षा रहती है जो उनकी ऊर्जा
और विजयेच्छा में प्राण फूँकती रहती है।
सैनिक युद्धक्षेत्र में लड़ता है और सारा देश दम साधे उनके पराक्रम की प्रतीक्षा करता है।
किसी भी महान अभियान के पूर्व जयकार की आवाज से कलेजा फूल उठता है और तब अर्जुन को मछली की पुतली के सिवा कुछ भी दिखाई नहीं देता और अगले ही क्षण मछली की पुतली वाणबिद्ध होजाती है और परम सुंदरी द्रौपदी अपनी मोहिनी मुस्कान के साथ गले में माल्यार्पण कर देती है।
अफसोस है कि हमारे कुछ मातापिता अपनी संतानों के लिए हीन शब्दों का प्रयोग कर समय - समय पर उन्हें अपमानित करते हुए, उन्हें उनकी न्यूनताओं की याद दिलाते रहते हैं और दूसरों से उनकी तुलना करते हुए उनके आत्मबल को तोड़ते रहते हैं। ऐसे व्यवहार से संतान में हीनता और अपनी सामर्थ्य के प्रति अविश्वास की भावना पनपती है और ऐसे युवा जीवन में हर कहीं पिछड़ते चले जाते हैं और जीवन से हार मानकर टूट बिखर जाते हैं।
जिस प्रकार प्रोत्साहनपूर्ण शब्दों से मन में नवीन ऊर्जा का संचार होता है, आँखों में नयी चमक पैदा होती है, चेहरे पर गौरव का भाव दमकने लगता है और विजयेच्छा जाग पड़ती है, ठीक उसके विपरीत हतोत्साह और अपमानपूर्ण शब्दों से हीनता की भावना उत्पन्न होती है और आदमी मान लेता है कि वह तो ऐसा ही है, वह जीवन में कुछ भी नहीं कर सकता। ऐसे शब्द इंसान को तोड़ देते हैं।
हाँ ऐसे लोग भी अवश्य होते हैं जो सबकी नकारात्मकता की अवहेलना करते हुए , चुनौतियों को चुनौती देते हुए असंभव को संभव कर डालते हैं, परंतु ऐसे लोग कम होते हैं।
शब्दों का प्रभाव कितना गहरा होता है इसे महाभारत के एक प्रसंग से समझा जासकता है। दुर्योधन के अनुरोध पर महाराज शल्य कर्ण के सारथी बने। वे बहुत कुशल सारथी थे। जब पांडवौं को यह बात मालूम हुई तो वे बहुत चिंतित हुए।उनके सारथी होने से कर्ण का बल और भी बढ़ गया था।इसलिए वे संध्या समय वे उनके शिविर में गये और उनसे सहयोग की प्रार्थना की।.शल्य ने इसे अस्वीकारते हुए कहा कि वे कौरवों की ओर से लड़ रहे हैं ऐसी स्थिति में पाण्डवों से सहयोग करना धर्मविरुद्ध होगा। तब पाण्डवों ने कहा वे उनसे ऐसा कुछ भी करने को नहीं कर रहे हैं।उनका तो उनसे मात्र इतना ही अनुरोध है कि कर्ण युद्ध के दौरान अपने कौशल के प्रयोग से जब भी उत्साहित और गौरवान्वित अनुभव करे तो वे उसे उसकी हीनताओं की याद दिलाकर उसका मनोबल तोड़ते रहें। महाराज शल्य ने उनकी यह बात मान ली।
शल्य स्वयं भी महारथी थे।उन्हें युद्ध में सूतपुत्र कर्ण का सारथ्य करना वैसे भी अपमानजनक लग रहा था ,इसलिए पाण्डवों से किया अपना वादा उन्होंने पूरी तरह निभाया।युद्ध में कर्ण ने सोत्साह कहा- शल्य आज मेरा पराक्रम देखना।युद्ध में मैं कृष्ण और अर्जुन दोनों का वध कर डालूँगा। तब शल्य ने कहा उन दोनों के सामने तुम्हारी सत्ता उस मामूली कुत्ते की तरह है जो अपनी नादानी में शेर की ओर देखकर भौंकता है।तुम्हारी यह आकांक्षा ठीक वैसी ही है जैसे एक छोटा बालक चाँद लेने के लिए मचले।
शल्य के इन शब्दवाणों से आहत कर्ण अपना सारा उत्साह खो देता और उसके युद्धकौशल में कमी आजाती।
हमारे यहाँ शुरू से ही स्त्रियों में हीनभाव भरा जाता है, ताकि उन पर सदा नियंत्रण रखा जासके। उनमें यह बात बचपन से ही कूटकूट कर भरी जाती है कि स्त्री अबला होती है।उसे किसी न किसी रूप में जीवनभर पुरुष के अधीन रहना चाहिए। स्त्री बुद्धि, विवेक, योग्यता ,सब में पुरुष से हीन होती है और स्त्री अपने को ऐसा ही मान भी लेती है।
बातों का और वाणी का किसी पर कितना बड़ा दुष्प्रभाव हो सकता है इसका यह ज्वलंत उदाहरण है।हमने स्त्री को हजारों वर्षों से अपनी इस जालसाजी का शिकार बना रखा है, इसके बावजूद कि हमारी समस्त देवियाँ अपराजेय योद्धा हैं।समय समय पर देवताओं को भी उनकी शरण में जाना पड़ा है।
आज औरत वैचारिक गुलामी के इन घेरों को तोड़कर बाहर आ रही है और उसका परिणाम भी स्पष्ट है।
शब्द और अवधारणा का जीवन में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। यह महान नायक बनाने की क्षमता रखता है तो भगोड़ा भी।
युद्ध में चारणों की भूमिका सर्वस्वीकृत है।
चारण चंदवरदायी की वाणी पृथ्वीराज की आँख बनकर अमोघ वाण बन गयी और उन्होंने मुहम्मद गोरी का काम तमाम कर दिया।
कृष्ण की गीता ने अर्जुन को अर्जुन बना दिया और शल्य की वाणी ने कर्ण जैसे महाबली का श्रीहरण कर लिया।
©मदनमोहन तरुण
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