गीता में कर्मयोग
भगवान श्री कृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में कर्मयोग की स्पष्ट व्याख्या प्रस्तुत की है।अपनी मनोवैज्ञानिक शैली में अर्जुन को संबोधित करते हूए भगवान ने कहा है कि लक्ष्य को ऊंचा रखते हुए भी यथाशक्ति प्रयत्न करने के उपरान्त भी सफलता पूर्णतया सुनिश्चित नहीं होती।परिस्थितियां भी अपना काम करती हैं।कई बार ऐसे परिणाम भी सामने आते हैं जहाँ प्रयास भी असफलता के निकट जा पहुंचता है।ऐसी घटनाओं से कर्मयोगी को गहरा आघात लग सकता है।वह हताशा की स्थिति को प्राप्त हो साहस और प्रयास भी गंवा सकता है।ऐसी स्थिति से उबरने का संकेत देते हुए भगवान ने कहा है कि
श्रेष्ठ कर्म करने भर को संतोष,गौरव और उल्लास एवं श्रेय का केन्द्र बिन्दु मान लिया जाए।अपने किये गये श्रेष्ठ कर्म को अपनी महानता एवं साहसिकता की सफल अभिव्यंजना मान कर्मफल को गौण समझा जाए।भौतिक सफलता या असफलता का मुल्यांकन तो दूसरे लोग करते हैं।
अपना मूल्यांकन और अपनी सफलता उस शुभारंभ के साथ ही उपलब्ध कर लिया जाना चाहिए।श्रेष्ठ कर्म करने की दिशा में कदम उठाते आम तौर पर लोभ एवं मोह से ग्रस्त लोग कतराते हैं।कर्मयोग दर्शन में सफलता की परिभाषा और संतोष का केन्द्र बिन्दु बदल जाता है।कारण यह है कि अनाचारियों द्वारा अनुचित मार्ग पर चलकर प्राप्त की गई सफलताओं की ओर किसी का भी ध्यान आकृष्ट न हो। अपने सद्प्रयत्नो के फलस्वरूप भौतिक परिणाम उचित रूप मे न मिलने से कहीं भटकाव न आ जाये।कर्मयोग दर्शन उस मानसिक असंतुलन से बचाता हैः,जो अपने वश में नहीं।प्रिय और अप्रिय परिस्थितियां धूप छांव की तरह आती जाती रहती हैं।मनुष्यों में भी सर्वथा सज्जनता ही कहाँ होती है?वह भी तो परिस्थितियों का दास होता है।उद्वेग और अनुद्वेग उसके सहचरी भाव में होते हैं।इनसे अपने आपको सुरक्षित बाहर निकाल लेना ही तो कर्मयोग है।
श्री कृष्णं वयं नु मः
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