बगावत की पहली लड़ाई 1917 में ही!/1917 का पाइका बिद्रोह
भारतीय इतिहास का अतीत बड़ा ही गौरवपूर्ण रहा है ।दुर्भाग्य बस हमने विषय की गम्भीरता को समझने का प्रयास नहीं किया ।भारतीय इतिहास को समझने के लिए सबसे पहले अपने मस्तिष्क को भारतीय बनाना होगा ।हम आज भी गुलाम की जिंदगी जी रहे हैं, इससे अपने बल ,अपनी बुद्धि, अपना ऐश्वर्य हमें दिखाई नहीं देता । मुझे एक कहानी याद आ रही है।एक शेर शिकार में मारा गया ।उसका बच्चा जंगल में अकेला होकर अनाथ सा एक भेड़िए के साथ रहने लगा ।शेर होते हुए भी वह भेड़िए के जैसा व्यवहार करता था ।वह सदा डरा और सहमा रहता था।हमारी यही स्थिति है। हम अभी तक गुलामी का इतिहास पढ़ते हैं और पराजित विषयों पर अपनी पीठ थपथपाते हैं ।सच्चाई में ऐसा नहीं है ।सच्चाई है कि हम क्रांतिकारी रहे हैं और हमारा गंतव्य पूर्णशांति रहा है ।हमें भारतीय इतिहास की जानकारी प्राप्त करनी होगी,उसकी खोज करनी होगी।
अंग्रेजों ने कोलकाता और मद्रास पर अधिकार जमा लेने के बाद कोलकाता और मद्रास के बीच में पड़ने वाले उड़ीसा पर 1803 में आक्रमण कर दिया ।जिस तरह कोलकाता और मद्रास मे उसे सफलता मिल गई थी ,उसी को आधार मानकर ओडिसा पर उसने चढ़ाई कर दी । अंग्रेजो के खिलाफ ओडिसा में विद्रोह हो गया जो पाइका विद्रोह के नाम से प्रसिद्ध है ।ब्रिटिश राज के विरुद्ध विद्रोह में पाइका लोगों ने अहम भूमिका निभाई थी जो किसी भी मायने में एक वर्ग विशेष के छोटे समूह भर नहीं रहा बल्कि वहां के आदिवासियों ने इस विद्रोह में सक्रिय भूमिका निभाई। बगावत इतना भयंकर था कि खुर्दा में प्रवेश किए विना ही अंग्रेज भाग गए थे ।उड़ीसा में उस समय गजपति शासकों का शासन काल था ।कहा जाता है- उड़ीसा की सारी संपत्ति भगवान जगन्नाथ की है और उन्हीं की कृपा से उनके प्रसाद स्वरूप वहां के राजा राज करते हैं । खुर्दा के शासक परंपरागत रूप से जगन्नाथ मंदिर के संरक्षक हुआ करते थे और जगन्नाथ भगवान के प्रतिनिधि के रूप में शासन करते थे ।उन्हें राजनीतिक एवं सांस्कृतिक स्वतंत्रता का प्रतीक माना जाता था ।उनके पास जन गजपति शासकों के किसानों का असंगठित सैन्य दल उपलब्ध हुआ करता था जो युद्ध के समय में सैन्य सेवाएं मुहैया करते थे और शांति के दिनों में खेती का काम करते थे । उस समय उड़ीसा के गजपति राजा मुकुंद देव द्वितीय अवयस्क थे ।वयस्क नहीं होने से दूरदृष्टि और सैन्य अनुभव का पूर्णतः अभाव था ।उनके संरक्षक जय राजगुरु ने उनका सहयोग किया और प्रतिरोध का शंखनाद कर दिया ।शुरुआती दौर पर तो यह शंखनाद काफी सशक्त रहा परंतु कुछ दिन बाद कमजोर पड़ जाने के कारण उनका बर्बरता पूर्वक क्रूरता के साथ दमन किया गया ।जय गुरुदेव के शरीर के कई टुकड़े जिंदा ही कर दिए गए । कुछ समय बाद गजपति राजाओं के असंगठित सैन्य दल के वंशानुगत मुखिया बक्सी जगबंधु ने आदिवासियों और समाज के विद्रोहियों का सहयोग लेकर एक सशक्त सेना का गठन किया ।।आदिवासियों और समाज के विद्रोहियों ने 2017 में बगावत कर दी जो बहुत तेजी से फैल गई । इन पाइका विद्रोहियों ने उनपर हमला करते हुए पुलिस थानों,शासकीय कार्यालयों और राजकोष को आग के हवाले कर दिया ।इन पाइका विद्रोहियों को कनिका, नयागढ़ और
घुमसुर के राजाओं, जमींदारों, ग्राम प्रधानों और आम किसानों का समर्थन प्राप्त था ।उस समय कनिका, कुजंग, नयागढ़, गुमसुम इन सभी स्थानों के राजाओं जमींदारों ,ग्राम प्रधानों और आम किसानों का एक संगठन तैयार किया गया जिसने पालिका विरोधियों को भरपूर समर्थन किया । कटक में विद्रोह काफी तेजी से फैला ।विद्रोह से पहले तो अंग्रेज चकित रह गए लेकिन बाद में उन्होंने आधिपत्य बनाए रखने के लिए पाइका विद्रोहियों के कड़े प्रतिरोध का सामना
किया । बाद में कई लड़ाइयाों में विद्रोहियों को सफलता भी मिली ।चुकी इन्हें प्रशिक्षण प्राप्त नहीं था और सामाजिक समर के योद्धा थे ,इसलिए ज्यादा दिन नहीं टिक सके , 3 महीने में ही अंग्रेजों ने उन्हें पराजित करने में सफलता प्राप्त कर ली ।इसके बाद दमन का व्यापक दौर चला । इसमें कई लोगों को जेल में डाला गया और उन्हें अपनी जान भी गंवानी पड़ी । फिर भी बिद्रोहियों का मनोबल कम नहीं हुआ था। बड़ी संख्या में अत्याचारों का सामना करते हुए भी कई विद्रोहियों ने 1819 तक गुरिल्ला युद्ध की ।उस समय मद्रास और कोलकाता की सेना अंग्रेजों ने बुला ली थी।अपने ही मित्रों में फूट पड़ जाने के कारण गुरिल्ला युद्ध में कई लोगों को पकड़ लिया गया और मार दिया गया ।बक्सी जगबंधु को 1825 में गिरफ्तार कर लिया गया और और 1829 में जेल में रहते हुए ही उनकी मृत्यु हो गई ।
पाइका विद्रोह को उड़ीसा में बहुत उच्च दर्जा प्राप्त है और बच्चे अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई में वीरता की कहानियां पढ़ते हुए बड़े होते हैं ।लेकिन दुर्भाग्य से इस घटना को राष्ट्रीय शिक्षा नीति में स्थान नहीं मिला।हम 1857 के पूर्व किसी बिद्रोह के वारे में जानते ही नहीं। गुरिल्ला युद्ध की कहानी,जहां किसान लड़ते भी थे और किसानी भी करते थे -अद्भुद् ब्यबस्था थी। भारत सरकार ने 300 वर्ष बाद ही सही इस घटना को राष्ट्रीय शिक्षा नीति में लिया है और इसकी पहचान देते हुए पर्व के रूप में मनाने का निर्णय लिया है। साथ-साथ बच्चों के शिक्षा क्रम में सम्मिलित करने हेतु जो प्रयास किया है वह प्रशंसनीय है ,स्तुत्य है ।
डॉ सच्चिदानंद प्रेमीॉ
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