कविता का टांग
तोड कर रख दिये-
सब कविता का टांग।
जो लिख रहे है लोग-
आजकल उटपटांग।
कुछ समझ में भी नहीं आता,
कि वे कहना क्या चाहते हैंं,
आलतू-फालतू बातें कह-
आखिर क्या जताना चाहते हैं,
बेमन का सिंदूर जैसे
भर दिया हो मांग।
बात कहने का होता ढंग है,
एक निश्चित शैली है छंद है
रस,अलंकार,भाव है भाषा है
पर यहां सब स्वछंद है
मानो फागुन के बहाने-
खुब पी लिया हो भांग।
अपनी गलती पर इतराता है,
बस खुदको रसराज बताता है,
सब भागते हैं उससे बचकर-
पकड़ कर हाथ बैठाता है,
एक बार मुझे सुनो तो सही-
ले अलाप रचता है स्वांग।
---:भारतका एक ब्राह्मण.
संजय कुमार मिश्र 'अणु'
वलिदाद,अरवल(बिहार)
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