एकलव्य (कविता)
एक दिन
अपने शिष्यों के साथ
चले जा रहे थे
गुरू द्रोणाचार्य
घने जंगलों में निर्द्वन्द
साथ में चल रही थी वार्ता
अविरल स्वछंद
सभी सहचर अंतेवासी
सहज सहयोग कर रहे थे
इतने में साथ का स्वान
खड़ा कर लिया कान
और लगा भौंकने
शायद कोई और है
इस निर्जन स्थान
और वह उसी दिशा में दौड़ा
जहां से उसे गंध आ रही थी
अनजान चेहरे को देख
वह भौंकने लगा लगातार
उस अजनबी को लगने लगा
इसके साथ में कोई और है परिवार
शायद वे लोग मेरी तरफ आ रहे हैं
लगता है विषम बादल छा रहे हैं
और वह फुर्ती से निकाला धनुष बाण
और कर दिया अनुसंधान
बिना हताहत किए कुत्ते को
बना दिया बेजुबान
जब वह दौड़कर
आया इधर पास
देख सभी को आश्चर्य हुआ
क्या ऐसा भी हो सकता है अभ्यास
और उत्सुकता बस पुछ लिया
गुरूदेव ये क्या अनहोनी है
मुंह बाण से भरा हुआ है
पर नहीं कहीं एक घाव खुनी है
देखकर गुरूदेव का भी माथा ठनका
आखिर ऐसा कौन है मनु का लड़का
और उनके पांव आगे उत्सुकता से बढ़े
देखते हैं एक बालक को और सामने प्रत्यंचा चढे
उन्होंने उसे पास बुलाया
वह आज्ञाकारी दौड़कर आया
धनुष-बाण रखकर
श्रद्धा से शीश नवाया
गुरूदेव ने दिया आशीष
पुछे तेरा गुरू कौन है
हो किसके शिष्य
क्या है तेरा नाम मुझे बतलाओ
पहले से विस्मित हैं अब और न देर लगाओ
वह बोला मैं द्रोण शिष्य हूं गुरू वर
उसकी बातों से सभी हुए भावुक स्वर
द्रोण शिष्य ये कभी न हो सकता है
तब आचार्य द्रोण आगे बढ़े
बाहें फैलाकर एकलव्य से कहे
बेटा यहां हम सबको जो दिखा है
ये सब कहां किससे सीखा है
हम-सब अचंभित हैं
सोच सोचकर चिंतित हैं
ये क्या विधि का लेखा है
जो कुछ भी कौतुक देखा है
एकलव्य चरणों में शीश नवाया
कहा आहिस्ते..आपने सिखाया
सुनकर आचार्य विस्मित हुए
सचेत हो आनन बिहॅसित किए
बोले इसका का है क्या प्रमाण
कि मैंने हीं दिया तुझे विद्यादान
बालक थोड़ा हुआ गंभीर
और बोला जी गुरूवर
चले मेरी कुटिया के अंदर
जब गए अंदर
देखा सब ने
समाधि में लीन विराजमान हैं गुरू वर
शिष्यों ने प्रकट की जिज्ञासा
आपसे तो ऐसी नहीं रही आशा
आप इसे देते रहे गुप्त दान
और हम सबको न होने दिये भान
गुरू पड़ गए अप्रत्याशित घेरे में
आत्मिय लगाव के अंधेरे में
और मांग लिया अंगुठा
उसे बनाने को अनूठा
कारण की आचार्य द्रोण
सामने साबित हो रहे थे झूठा
एकलव्य ने रखा गुरू का मान
कर दिया सहर्ष अंगुठे का दान
धन्य है एकलव्य की गुरू भक्ति
ग्राह्य है ऐसी अनुरक्ति
दिया आचार्य ने आशीर्वचन
तुम शिष्यत्व को किया सिंचन
तुम्हारा त्याग है अनुपम
इसलिए आज कह रहे हैं हम
जब तक रहेगी धरा और धाम
बड़ी श्रद्धा से लिया जाएगा तेरा नाम
ये तेरा त्याग,तप,तितिक्षा है भव्य
शिक्षा के क्षेत्र में अमर रहेगा एकलव्य
---:भारतका एक ब्राह्मण.
संजय कुमार मिश्र 'अणु'
वलिदाद अरवल (बिहार)
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