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मंची बनाम अखबारी कवि

मंची बनाम अखबारी कवि

आज साहित्य कई खेमों में बंटा हुआ है । इसमें एक खेमा तो ऐसे कवियों का है जो सिर्फ किताबों और पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिखते हैं और उनके लिखने के दो ढंग हैं । उसमें भी विविधता है । कुछ कवि जो छंदों की हिमायती करते हैं और मानते हैं कि कविता की आयु छंद से बढ़ती है । दूसरी ओर कविता के ऐसे कट्टरपंथी लोग हैं जो यह मानते हैं कि छंद की दुनिया अब लद गई है और वे अपनी अलग ही डफली बजा रहे हैं । उनका मानना है की कविता एक गंभीर विधा है और इसे सभी नहीं समझ सकते । कुछ कवि तो इतने गंभीर होते हैं कि अपना लिखा खुद ही समझते हैं । और कुछ उनसे भी आला कवि होते हैं जो अपना लिखा भी नहीं समझते । ऐसे महा कवियों की हिंदी में कमी नहीं है । फिर भी इतना दावा है कि वे जनता के कवि हैं ।
दूसरी ओर मंचों के कवियों की दुनिया है जो काफी भीड़ जुटा लेते हैं । और तालियां भी वजवा लेते हैं। यही नहीं यह कभी महंगी कीमत पर बुलाए जाते हैं । लेकिन इनके पास सब कुछ होता है, मगर कविता नहीं होती । ये ऐसे कवि हैं जिनके पास कुछ चुटकुले होते हैं और चुटकुलों में यह जो सुनाते हैं अगर गौर से सुना जाए तो ठीक से हिंदी का वाक्य विन्यास भी इन्हें नहीं आता। मगर फिर भी यह महाकवि बने हुए हैं। ऐसे कवियों को किताबी और पत्रिकाओं में छपने वाले कवि , कवि नहीं मानते । 
वह भी जमाना था जब मंचों पर निराला, बच्चन और तमाम बड़े कवि आया करते थे । मगर आज स्थिति मंचों की इतनी हास्यास्पद हो गई है कि श्रोताओं को हंसाने वाले कभी खुद ही हास्य के पात्र हो गए हैं । ऐसे में मंचों की गरिमा इस हद तक गिर गई है कि कोई भी जिम्मेदार रचनाकार उनके साथ बैठना पसंद नहीं करता । ऐसे में यह चिंता का विषय है कि आखिर ऐसी स्थिति क्यों आई ? 

बाजारवाद ने कुछ ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि सारे खोटे सिक्के बाजार में चलने लगे और नए सिक्कों को दरकिनार कर दिया गया। 
पत्र- पत्रिकाएं भी घिनौने गुटबाजी का शिकार हैं। इनके संपादक, संपादक ना होकर दुकानदार लगते हैं । जिनके दुकान में वे ही प्रवेश कर सकते हैं जो इनके झंडावरदार हो । ऐसे में पत्र-पत्रिकाओं की कविताएं पढ़कर भी यह तय कर पाना बड़ा कठिन है कि हिंदी में बेहतर क्या लिखा जा रहा है । संभव है कि कुछ बेहतर लिखने वाले लोग ऐसे भी हो जो उनकी दुकानों में फिट नहीं बैठते हैं और बेचारे स्वांतःसुखाय लिखे जा रहे हैं । स्थिति यह है कि कह सकते हैं कि
"जंगल में मोर नाचा किसने देखा ।" 

कहते हैं साहित्य समाज का दर्पण है । मगर दुखद यह है कि आज साहित्य के दर्पण पर न सिर्फ धूल जमी है बल्कि  टूटे भी हुए हैं । ऐसे में अब यह कह पाना कठिन है की ऐसे बाजारू कवियों की कविताओं से समाज को कौन सी दिशा मिल रही है । मगर फिर भी साहित्य ही है जो देश और समाज को बचाने की क्षमता रखता है। क्योंकि जब सभी क्षेत्रों में गुणात्मक गिरावट आई हो ऐसे में फिर भी साहित्य उससे बेहतर है । 
यह उम्मीद करनी चाहिए कि इन्हीं घटातोपों से साहित्य का सूरज निकलेगा और जरूर निकलेगा । जिससे हर तरफ के अंधेरों से मुक्ति मिलेगी । 

- वेद प्रकाश तिवारी
देवरिया (उत्तर प्रदेश )
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