गाय की पूँछ :: वैतरणी की नाव
शास्त्र कहते हैं कि सामान्यजन को जीवन भर के शुभाशुभ कर्मों का लेखा-जोखा सुनने-समझने और भावी परिणामों से अवगत होने के लिए यमपुरी जाना अत्यावश्यक होता है,जबकिविशेष लोग सीधे स्वर्गारोहण करते हैं या मनोवांछित लोकों की यात्रा पर निकल पड़ते हैं।
उक्त यात्राओं में यमदूत वा देवदूत की सहभागिता सुनिश्चित है, यात्रा के अनुकूल वाहन-व्यवस्था भी। देवदूत तो विशेष विमान से यात्रा कराते हैं, किन्तु यमदूत की सहभागिता वाली यात्रा बड़ी भयावह होती है।यमराज की संयमनीपुरी(यमपुरी) में प्रवेश से पूर्व वैतरणी नाम की नदी पार करना पड़ता है। सामान्यजन हवाई मार्ग से इस पुरी की यात्रा नहीं कर सकते। और ध्यान रहे—ये यात्रा अपरिहार्य है। सांसारिक शैली में कहूँ तो कहना चाहिए कि यही वो न्यायालय है,जहाँ हमारे कर्मों का लेखा-जोखा सुरक्षित है। प्रकृति के समस्त उपादान यहाँ साक्ष्य हेतु उपस्थित रहते हैं।उनकी निष्पक्ष गवाही के आधार पर ही फैसला सुनाया जाता है कि किस प्राणी को आगे कहाँ भेजा जाए। किसे कौन सी सजा दी जाए।इस विषय की विशद जानकारी विष्णु-गरुड़ संवाद (गरुड़पुराण, प्रेतखण्ड) में उपलब्ध है।
वैतरणी नदी में चुँकि नाव नहीं चलती,फलतः तैर कर ही पार करना होता है हर प्राणी को। नदी भी सामान्य नदियों की तरह जल वाली नहीं है। प्रत्युत रक्त,मूत्र,मवाद,पुरीष आदि का प्रवाह है,साथ ही नाना प्रकार के दुस्सह कीटों और नक्र-घड़ियालों से पटा पड़ा है।इस नदी की भयावहता और कुरुपता सुनकर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। मजे की बात ये है कि संसार में तो अति कष्ट के कारण मृत्यु हो जाती है। कुछ नासमझ सांसारिक दुःखों से उबकर आत्महत्या कर लेते हैं। लोग समझ लेते हैं कि मृत्यु के पश्चात् अब दुःख-सुख कैसा ! यानि दुःख-सुख अनुभव करने वाला मन ही न रहा,शरीर निष्प्राण हो गया,फिर तो सारी बात ही समाप्त हो गयी।
किन्तु बात ऐसी बिलकुल नहीं है। प्राण निकल गया,प्राणी अभी भी विद्यमान है। ये ऐसी अवस्था है, जिसमें रोने,तड़पने,छटपटाने , कष्टातिरेक से मृत्यु भी नहीं होने वाली है।ऐसी विसम स्थिति में यात्रा करनी होती है इस वैतरणी नदी में—डूबते-उतराते या कहें गले में पड़ी यम-फांश में बँधे लटकती हुयी मुद्रा में खिंचते-घसिटाते हुए।
शास्त्र कहते हैं कि इससे त्राण पाने हेतु यमफांश से मुक्त रहने हेतु जीवनकाल में,यहाँतक कि मरणासन्न स्थिति में भी किया गया गो-पुच्छ-तर्पण एवं गोदान बड़ा ही सहयोगी होता है। तिल लोहं हिरण्यं च कार्पासो लवणं तथा। सप्तधान्यं क्षितिर्गावो ह्येकैकं पावनं स्मृतम्।।(ग.पु.प्रेतखण्ड ३३)गौ, भूमि, सुवर्ण, लौह, कर्पास, सर्पिषा (घी), तिल एवं सप्तधान्यादि में गौ की सर्वोत्कृष्टता अन्य पुराणों में भी सिद्ध है। गोदान की महत्ता पर शास्त्र-पुराणों में विशद चर्चा है। इन बातों को जानने वाले गोदान अवश्य करते हैं और दूसरों को करने की प्रेरणा भी देते हैं।
किन्तु विडम्बना ये है किशनैःशनैःज्ञान, विवेक, विचार, संस्कार सबकुछ कलिमल ग्रसित होकर, नष्ट-भ्रष्ट होता चला जा रहा है । लोभ,स्वार्थ और आधुनिकता के साथ-साथ नासमझी पूर्ण मूर्खता हावी होती जा रही है। एक बडा वर्ग तो परले सिरे से इन बातों को नाकार देता है। थोड़े से जो लोग इन नियम-सिद्धान्तों में आस्था रखते हैं,उनकी भी स्थिति और सोच विचित्र है। शहरीकरण ने व्यवसायीकरण को बल दिया है। सबकुछ व्यवसायिक हो चला है। पौरोहित्यकर्म, ब्राह्मणवृति की भी वही गति है। यजमान भी चतुर हो गए हैं। श्रद्धाहीनता कूट-कूट भर गयी है। ‘लोग क्या कहेंगे’ इस भाव से कोई काम करते हैं। न कि श्रद्धा और विश्वास से। ‘दान’ की ब्रांडिंग हो गयी है—दान की धोती, दान की सामग्री, दान की गौ...। सस्ते के चक्कर में घटिया से घटिया सामान पूजापाठ-दान के नाम पर बाजार में उपलब्ध हो जाता है।
मजे की बात तो ये है कि दान लेने वाले पंडित-पुरोहित भी घोर व्यवसायी हो गए हैं। वाकायदा उनके पास ‘पैकेज’ हैं। आपके वजट के अनुसार पैकेज यानी कि पैकेट उपलब्ध हैं—धोती, साड़ी, वर्तन-वासन सबकुछ।ग्यारह रुपये से लेकर ग्यारह हजार और सवा लाख तक के पैकेज मिल जायेंगे। एक ही सामग्री का अनेक बार दान होता है। उतारी गयी वस्तु बार-बार अर्पित की जाती है देव-प्रतिमा पर। यजमान तो सस्ते के चक्कर में फंसता है, पंडित को भी इस पाप का रत्ती भर भी बोध वा भय नहीं है।
कुछ होशियार किस्म के यजमान सीधे पंडित-पुरोहित से सामानों का सट्टा नहीं करते,बल्कि आसपास की दुकानों से खरीदते हैं। किन्तु यहाँ भी अनजाने में धोखा खा जाते हैं। गौरतलब है कि घाट के आसपास,मन्दिर के आसपास की दुकानों से भोग या दान की वस्तु खरीदने से बचना चाहिए। वे दुकानदार पंडितों के ठेकेदार और अढ़तिया हैं। दान-भोग की वस्तुएंदान के बाद सीधे उनके पास बेंच दी जाती है। पापी-निकृष्ट लोग तो चढ़ाया हुआ फूल, पानपत्ता, तुलसी दल तक धो-पोंछ कर बेंच डालते हैं। जितना बड़ा तीर्थ, उतना अधिक अनर्थ, उतना पापाचार।मरियल गाय की पूँछ और उपयोग की जा चुकी वस्तु कापुनःपुनः दान वैतरणी के दारुण दंश से कदापि मुक्ति नहीं दिला सकता।
मेरी इन बातों से बहुतों को धक्का लगेगा,बहुतों को बहुत बुरा भी लगेगा,क्योंकि उनके कुकृत्य पर प्रकाश डाला जा रहा है।किन्तु मैं भी विवश हूँ। देखने को विवश हैं मेरी आँखें,सोचने को विवश है मेरा मन,तो फिर लिखने और आपको सावधान करने से क्यों चूकूँ?
प्रकृति का नियम है। प्रकृति की गति है। चक्रीय गति में ऊपर-नीचे निरन्तर चक्रीयमान होते रहने की प्रक्रिया चलती रहती है। जो ऊपर था कभी वो नीचे आ रहा है और जो नीचे था वो ऊपर जाने को प्रयत्नशील है। अस्तु। ---)(---
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