महर्षि वशिष्ठ की शिक्षा नीति
महर्षि वशिष्ठ की गणना सप्तर्षियों में होती है ।ये ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं। महर्षि वशिष्ठ ऋषि वरिष्ठ,शांतिप्रिय, सद्गुरु कहे गए हैं तथा ऋग्वेद के सातमें मंडल के दृष्टा माने जाते हैं ।इक्ष्वाकु कुल के राजपुरोहित होने का गौरव इन्हें प्राप्त था । वे राजपुरोहित का दायित्व नहीं लेना चाहते थे। गोस्वामी जी ने महर्षि के मुख से कहलवाया हैः-
उपरोहित हि कर्म अति मंदा।
वेद पुराण स्मृति कर निंदा ॥
जब न लेउँ मैं तब विधि मोही।
कहा लाभ आगे सुत तोही ॥
परमात्मा ब्रह्म नररूपा ।
होइहि रघुकुल भूषण भूपा॥
महर्षि ने इस कर्म को अति मंदा कहा ।इसका अर्थ है कि उपरोहित्य कर्म से ब्रह्मत्त्व, ब्रह्म तेज नष्ट हो जाता है ।
यस्तुराज्यश्रयेनैव जीवेद् द्वादवार्षिकम् ।
स शूद्रत्वं ब्रजेद् विप्रो बेदानापि पारगः॥
राजा राष्ट्रकृतम् पापं राज्ञःपापं पुरोहितः।
भर्ता च स्वीकृतम् पापं शिष्य पापं गुरुस्तथा॥
- गौतम स्मृति -अ 19
महाराज इक्ष्वाकु ने इनसे पौरोहित्य कर्म के लिए प्रार्थना की, इसके लिए ये तैयार नहीं हुए ।महाराज ने एक सौ रात्रि का कठोर तप कर अपने कुल देवता भगवान सूर्य को प्रसन्न किया तथा उनकी अयोध्या में राजधानी स्थापित कराई ।महर्षि वशिष्ठ के पास कामधेनु नामक गाय थी जो अत्यंत मायावी
थी ।महर्षि वशिष्ठ के मन की भावना को जानकर वह उनकी सेवा करती थी ।उसकी कन्या का नाम नंदिनी था जो बराबर अपनी मां कामधेनु के साथ रहती थी।
शिक्षा के लिए महर्षि ने कई संहिताओं की रचना की । जैसे-वशिष्ठ शिक्षा ,वशिष्ठ पुराण, वशिष्ठ संहिता, वशिष्ठ कल्प ,वशिष्ठ श्राद्ध कल्प,वशिष्ठ स्मृति आदि ।वशिष्ठ को ब्रह्मा ने सुत कह कर संबोधित किया ।इससे भी सिद्ध है कि महर्षि वशिष्ठ ब्रह्मा के मानस पुत्र थे ।महर्षि वशिष्ठ से ही वशिष्ठ गोत्र का प्रादुर्भाव हुआ ।कई ग्रंथों में वशिष्ठ का उद्भव कई तरह से वर्णित है । वशिष्ठ ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं, हरिश्चंद्र काल में भी महर्षि वशिष्ठ हैं ,राजा दिलीप काल में भी तथा चक्रवर्ती दशरथ जी के काल में भी वशिष्ठ हैं ।पुनः महाभारत काल में भी वशिष्ठ ऋषि का वर्णन है ।इससे भ्रम होता है कि कई वशिष्ठ हैं ,जिनकी संख्या बारह
है ।परंतु ऐसा है नहीं ।महर्षि वशिष्ठ को अमरता प्राप्त है ।अमर हैं , इक्ष्वाकु के समय में भी थे और आज भी हैं ।
महर्षि वशिष्ठ ऐसे प्रथम गुरु थे जिन्होंने पाठशाला आश्रम का श्रीगणेश किया था ।इनका पाठशाला -आश्रम चलता था जिसमें 20 से अधिक कलाओं का ज्ञान दिया जाता था ।वह गुरुकुल आज के गुरुकुल से बिल्कुल ही भिन्न था । महर्षि स्वयं ही ऐसे तत्ववेत्ता थे जिन्हें ब्रह्मांड से जुड़े सारे ज्ञान प्राप्त थे और उसे किसी भी शिष्य के ह्रदय में उतार सकते थे। इसका प्रमाण मानस में मिलता है ।
गुरु गृह गएउ पढ़न रघुराई ।
अल्प काल विद्या सब आई ॥
अल्पकाल में ही सारी विद्याएँ आ गईं । यह गुरु की गरिमा ही थी ।इनका विवाह कर्दम मुनि की कन्या अरुन्धति से हुई थी परंतु इनकी दूसरी पत्नी का नाम ऊर्जा भी कहीं कहीं मिलता है ।लौकिक दृष्टि से महर्षि वशिष्ठ भगवान शंकर के साढ़ू और माता सती के बहनोई भी हो जाते हैं । डॉ सच्चिदानान्द प्रेमी
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