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प्रेम

प्रेम

-- वेद प्रकाश तिवारी  
आओ प्रेम के मर्म को समझें
अंतर्मन में अपने उतरें

देह से अपने ऊपर उठकर
आत्म स्वरूप में स्थित होकर
फूल कमल सा खिलकर देखें
आओ प्रेम के मर्म को समझें

देहाभिमानी बन कर अब तक
अहंकार की गठरी ढोई
भौतिक सुख पाने की खातिर
क्रोध, लोभ से बचा न कोई
बहुत हो गई खींचा -तानी
क्या रखा है हममें- तुममें
आओ प्रेम के मर्म को समझें

बैठेंगे जब चिंतन में तब
माया हमको घेरेगी
ध्यान भंग करने की खातिर
कोई न अवसर चुकेगी
दृढ़ संकल्पित होकर हमको
अटल बने रहना होगा
जीत हमारी निश्चित होगी
आत्मविश्वास को मन में भर लें
आओ प्रेम के मर्म को समझें

बाधाएँ, पीड़ाएं सारी 
हंसकर अपने गले लगा लें
कर्तापन का भाव हटाकर
उस विराट मित्र बना लें
जिसके गोद में पलता जीवन
उसको पाने को हम तड़पें
आओ प्रेम के मर्म को समझें

तुलसी, मीरा, सुर, कबीरा
पाया जिसने सच्चा हीरा
सबके पास भी है वो हीरा
पर सबने कचरे के नीचे
दबा दिया वो नश्वर हीरा
जनम जनम से भटक रहे हैं
मोह की निद्रा अब तो तोड़ें
आओ प्रेम के मर्म को समझें

मैं और तुम से हम हो जाएं
ऊँच- नीच का भेद भूलाकर
आपस में सब सम हो जाएं
कृष्ण सुदामा मिलते जैसे
द्वार हृदय की ऐसे खोलें
आओ प्रेम के मर्म को समझें

--   वेद प्रकाश तिवारी
     देवरिया (उत्तर प्रदेश)
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