कथक नृत्य की शैलियाँ एवं घराने
डॉ अंजना झा
शैलीनृत्य का सैद्धान्तिक परिचय है। विशिष्ट सिद्धांतों की शास्त्र परम्परा
नृत्य को शैली ही प्रदान नहीं करती वरन कला जगत में स्थापित भी करती है। शास्त्रीय
नृत्य को उसका शैलीगत स्वरूप कई आधारों से मिलता है,
नृत्य का शास्त्रीय आधार होना अनिवार्य है एवं शास्त्रीय
होने में उसकी उत्पत्ति परिवेश, समाजिक तथा राजनीतिक प्रभाव भी असर करते हैं,
इसके अतिरिक्त विकास के किन - किन दौर से वह गुजरता है एवं
उसे मिलने वाला प्रश्रय प्रोत्साहन भी असरकारक होता है। नृत्य की बौद्धिक,
दैहिक तथा मानसिक सृजनशीलता ही शैली के विविध आयाम बनाती
है।कथक शास्त्र की विषय वस्तु मे ंभी प्रतिभा विकसित करने के कई आयाम है। यहाँ
कल्पनाशील हृदय की भावुकता है, भावप्रवणता है, यहाँ मस्तिस्क की कुशाग्रता लय,
ताल की क्षमता है और इन दोनों से जुड़े आंगिक तथा सात्विक
अभिनय का संसार इन्हीं सब में छिपी कथक का बहुआयामी,
व्यक्तित्व इन शैलियों के द्वारा ही सँवरता गया। सभी
शास्त्रीय कलाओं में विशिष्ट ‘घराने’ हुए है, तथा घरानों की विशिष्ट अदायगी से ‘शैलियाँ’ बनती चलीगई।
शैलियाँ घराने के कलाकारों की प्रतिभा, कला जगत को दिए गए उनके योगदान, कत्र्तव्यनिष्ठता, उस घराने की शिष्य परंपरा का परिचायक होता है। कथक की सभी- शैलियों ने कथक को विभिन्न पक्षों से उभार कर सर्वागिण विकास में योगदान दिया । शैलीगत विविधता कथक की एकरसता को दूर करती है। कथक के शैलीगत प्रादुभाव में मुगलकाल का विशिष्ट योगदान हैं, मुगलराजाओं के दरबारी नर्तकों से लखनऊ घराने एवं हिन्दू राजाओं के आश्रित नर्तकों से जयपुर घराने की नींव पड़ी। तीसरा बनारस घराना है अभी वर्तमान में रायगढ़ घराने का भी उदभव हुआ है।
लखनऊ घराना:-
कथकनृत्य का लखनऊ घराना आसफ-उद्यौला (1775
- 1798) और वाजिद अली
शाह (1847-1856) के शासन काल में विकसित हुआ।आमद,
सलामी, निकास जैसे फारसी नाम यही से प्रारंभ हुये थे। वाजिद अली
शाह के दरबार में नृत्य तथा संगीत को दूसरा जीवन प्राप्त हुआ था। कथक ने दरबारी विलासिता
को जीते हुए भी आध्यात्मिक भाव को नहीं भूला एवं अपनी पवित्रता को खत्म नहीं होने दिया।
ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार लखनऊ घराने के प्रवर्तक ईश्वरी प्रसाद जी है । एक
किवदन्ती के अनुसार भगवान कृष्ण ने उन्हें कथक नृत्य का पुनरूद्वार करने के लिए
स्वप्नमें नृत्य की ‘भागवत’ बनाने का आदेश दिया। इनके वंश परम्परा में ठाकुर प्रसाद का नाम
स्मरणीय है जिन्हों ने कई विश्ष्टि रचनाएँ की एवं कथक नटवरी-नृत्य का नामकरण किया।इन
का गणेश पर नबहुत प्रसिद्ध था। यह लखनऊ घराना की प्रारंभिक अवस्था का दौर कहा जा सकता
है। बिन्दादीन महाराज लखनऊ घराने के ऐसे ही प्रवर्तक हुये,
इन्हों ने करीब पंद्रहसौ ठुमरियों की रचना की। पंडित
शंभुमहाराज ने ठुमरी के बैठकी भाव की परम्परा को परिपक्व किया। पंडित बिरजू महाराज
ने बोलो की रचना के साथ – साथ होली, दिवाली, ऋतु प्रसंग आदि अनेक विशिष्ट प्रसंगों के हषोंल्लास तथा त्यौहार
से संबंधित वातावरण को कथक के समूह प्रयोग से रेखांकित किया। इस शैली के विशिष्ट गुरूओं
द्वारा निर्धारित सृजन की किसी एक दिशा ने भी दशों - दिशाओं के द्वार खोल दिए है।
यहीं वजह है कि आज भी नित नवीन कल्पनाएं इस शैली में जुड़ती चली आरही है।
अवध के नवाब वाजिद अली शाह के शासनकाल में लखनऊ घराने को काफी
प्रोत्साहन मिला। लखनऊ घराने की विशेषताएँ निम्नलिखित हैः-
1. लखनऊ घराना कथकनृत्य शैली का प्रमुख घरानाहै।
2. इस में प्रायः छोटे-छोटे टुकड़े नाचे जाते हैं।
3. टुकड़ों में अंगों की खूबसूरत बनावट पर विशेष ध्यान दिया जाता
है।पैरों से बोलों की निकासी पर कम ध्यान दिया जाता है।
4. इस घराने में नृत्य के बोलों के अतिरिक्त पखावज की परने और पायन
के बोल भी नाचे जाते हैं ।
5. इस घराने में कवित नाचने का प्रभार कम है।
6. इस घराने में धत्तकथुंगाऔरकितत कथुंथुंनातेतेटा बोल इस
घराने में विशेषप्रचलित है।
7. तत्कार के पलटों में ताथेईततथेई के अनेक प्रकार नाचे जाते हैं
।
8. थाट बनाने का भी इनका विशेष ढ़ंग है ।
9. इस घराने में गतनिकास अधिक और गतभाव कम होता है ।
10. गतें दोनों ओर से बनती हैं।
11. ठुमरी गाकर भाव बताना इस घराने की विशेषता है। इसे प्रचार में
लाने का श्रेय महाराज बिन्दादीन को है।
जयपुर घराना-
इस घराने के प्रवर्तक भानुजी माने गये हैं ।इन्हें किसी संत
द्वारा ताण्डव की शिक्षा मिली थी । इस वंश परम्परा के नर्तक ‘कान्हुजी’ ने लास्य पर अधिकार भी प्राप्त कर लिया इस नृत्यकी
पृष्ठभूमि धार्मिक वातावरण में पनपी । पंडित हरिप्रसाद की आकाश चारी तथा चक्कत्दार
पर ने प्रसिद्ध थी और हनुमान प्रसाद जी का नृत्य लास्य प्रधान था। जयपुर घराने के
नृत्य परम्परा को जीवित रखने वाला परिवार पश्चिमी राजस्थान के बीकानेर,
संभारा, मौरचार, सुजानगढ़, शेखावत इलाके के मूल निवासी थे।
जयपुर घराने की कुछ विशेषताओं को इस प्रकार रेंखांकित किया जा सकता हैः-
1. जयपुर घराने से तात्पर्य कत्थक नृत्य की राजस्थनी परंपरा से
है। पिछले पचास दशकों में जयपुर घराने की खूबी उसके लयात्मक चमत्कार में रही है।
2. इसके अधिकांश नर्तक हिन्दू राजाओं के दरबारों में रहे अन्ततः
जहाँ एक ओर कथक नृत्य की बहुत-सी प्राचीन परंपराएँ इस घराने में अब भी सुरक्षित है।
वहीं इनके नृत्य में जोश, तथा तेजी तैयारी अधिक दिखाई पड़ती है।
3. जयपुर घराने के नर्तक पखावज की मुश्किल से मुश्किल ताले,
यथा धमार, चैताल, रूद्र, अष्टमंगल, ब्रह्म, लक्ष्मी, गणेश, आदि में अत्यंत सुगमता से नाच लेते है।
4. इस शैली के नर्तकों द्वारा तत्कार में कठिन लय कारियों का
प्रदर्शन अत्यंत प्रसिद्ध है।
5. जितना पैरों की सफाई पर ये लोग ध्यान देते हैंउतना हस्तकों पर
नहीं।
6. नृत्य के बोलों के अलावा कवित्त,
प्रिमलु, तबला - पखावज के बोल,
पक्षी-परन, जातिपरन आदि विभिन्न प्रकार के बोलों का प्रयोग इस घराने की
विशेषता है।
7. भाव – प्रदर्शन में सात्त्विकता रहती है और ठुमरी की
अपेक्षा भजन या पदों पर भाव दिखाये जाते हैं ।
बनारस घरानाः-
बनारस घराने के संस्थापक जानकी प्रसाद जी है। वस्तुतः
राजस्थान का श्यामलाल दास घराना जिन पाँच शाखाओं में विभक्त हो गया था उसमें जयपुर
घराना और जानकी प्रसादजी का घराना सबसे अधिक प्रसिद्धिपा सका। जानकी प्रसाद के
शिष्य एवं भाई गणेशी लाल के पुत्र सुख देव महाराज ने भी काफी ख्याति अर्जित कि,
उन्होंने सितारा देवी (पुत्री),
गोपी कृष्ण (नाती) और कृष्ण कुमार जैसे श्रेष्ठ नर्तक तैयार
किये जिनके कारण बनारस घराने का अस्तित्व आज भी कायम है। बनारस घराने के महाराज
कृष्ण कुमार कथक के अद्वितीय कलाकार थे। भाव,
लय, ताल, सौन्दर्य, नेत्र, भृकुटी, हस्तक, वक्षों और पैरों से एक से बढ़कर एक प्रयोग इनके नृत्य में रहता
था। इस घराने की विशेषताएँ निम्नलिखित हैः-
1. शुद्ध नृत्य के बोल,
सात्विक भाव और तत्कार पर ही आधारित है।
2. नृत्य के बोलों की पैरों से निकासी पर विशेष ध्यान दिया जाता
है ।
3. ‘तिग्दादिगिदिगि’ में अन्य घराने के लोग चार पैर लगाते हैं वहाँ ये छः पैर लगाते
है ।
4. इस घराने में पैर के साथ एड़ी का प्रयोग अधिक है।
5. गतों का निकास कम है।
6. तोड़े-टुकड़ों की संख्या कम है परंतु उनका सही ढंग से मुद्रा सहित
अंग तथा पैरों से निकासी कठिन है।
7. नृत्य की सही चक्करदार परनें और गतें इस घराने में दिखाई जाती
है।
8. भाव की शुद्धता पर बहुत ख्याल रखा जाता है।
9. इस घराने में अब नायिका,
नायक, रस-भाव एवं भजन - ठुमरी का प्रचलन है।
रायगढ़ घराना-
इस घराने में वर्तमान शताब्दी के आरंभिक चरण में कथक को
समृद्ध किया। राजा चक्रधर महाराज स्वयं भी नर्तक थे तथा कलाकारों कों भी उन्होंने प्रश्रय
दिया। रायगढ़ शैली में जयपुर अंग अधिक है। चक्रधरमहाराज की ठुमरियों में राधा - कृष्ण
के श्रृंगार प्रधान चित्रण ही प्रमुख है। तत्कार द्वारा क्लिष्ट लयकारियों का
प्रदर्शन भी इस शैली की विशेषता रहीहै। पं0 बर्मनलाल, फिर महाराज इत्यादि इसके प्रमुख नर्तकों में से रहे है। इस
शैली में आम दसलामी शब्दों के जगह हिन्दी और संस्कृत के शब्दों का प्रयोग किया गया।
यहाँ बोलों की शाब्दिक ध्वनि का किसी विशिष्ट भाव का चित्र मय
आभास लिये संयोजन किया गया जैसे-कड़क बिजली पटन में तड़ित तड़ तड़ या दल बादल पर नमें
नजनड़, धेतधेत, दड़डन, ताड़धाड़, आदि । इन शब्दों से
बादलो के उमड़ने घुमड़ने तथा बिजली चमकने आदि का भावलक्षित होता है।
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