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प्रतिष्ठा में प्राण (कहानी)

प्रतिष्ठा में प्राण (कहानी)

           जीवन क्षणभंगुर है।जीवन का कोई भरोसा नहीं है।कब है और कब समाप्त।प्राण हमेशा इस शरीर का परित्याग करना चाहता है पर यह जो शरीर है वह उसे छोडना नहीं चाहता है।मोह के जाल में आवृत यह संसार बस इसी उढेडबुन में कट जाता है।शरीर को छोडकर प्राण महाप्रयाण कर जाता।
                   मानव की इच्छा होती है प्रतिष्ठा प्राप्त करना।प्रतिष्ठित बनना और उसे बचाये रखना हर कोई चाहता है।इसके लिए वह नाना प्रकार के प्रपंचों का सृजन करता है और उसका सहारा  भी लेता है।और हम उस प्रपंच के जाल में उलझ जातेहै।प्राण को शरीर चाहता तो है लेकिन प्राण शरीर को छोडना चाहता है।शरीर को छोडने का भह हमेशा बहाना चाहता है।जब बहाना मिल जाता है तब वह बिना देर किये चल देता है।
         वैसे आप अपने जीवन में रोज किसी न किसी प्राणी का प्राणांत होते देखते हैं सुनते हैं।आपको कुछ भी बुरा नहीं लगता है।बुरा इसलिए भी नहीं लगता है कि यह एक स्वभाविक क्रिया है।जन्म और मृत्यु को मैं स्वभाविक क्रिया मानता हुँ।आप चाहे तो कुछ और भी समझ लें तो मैं कुछ कह नहीं सकता हुँ,कारण की वह आपका अधिकार है।
                प्राणांत के विविध रूपों से आपका परिचय रोज होता है।घटना-दुर्घटना से तो प्राण जाता हीं हैं।यह को बडी बात नहीं है।पर मैं जो आपको बता रहा हुँ वह बडी बात है।और ओ बडी बात है...प्रतिष्ठा में प्राण गँवाना।प्रतिष्ठा में भी प्राण जाता है?शायद आपको सुनकर अचरज हो रहा होगा पर है बिल्कुल सत्य।आप कहेंगें भला यह भी होता है?नहीं ऐसा नहीं होता है।ऐसा हीं होता है।यदि ऐसा नहीं होता तो हमारे विचारकों ने क्यों कहा...'प्रतिष्ठेप्राणघातकः'।प्रतिष्ठा में प्राण चला जाता है।वह प्राण प्रतिष्ठा में कैसे जाता है।यह मैं आपको बताता हुँ।
             एक बार कुछ बुद्धिजीवी साथ बैठे।उन लोंगों के पास बुद्धि तो थी लेकिन जीविका का अभाव था।सोचे जीविका के लिए कुछ करना होगा।ऐसा करना होगा की वह हमेशा चलते रहे।कभी बंद न हो।और वे चार जने ईस निष्कर्ष पर पहुँचे की समाज सेवा से बेहतर कुछ नहीं है।और समाज सेवा के नाम पर चिंतन शुरू हुआ।कुछ विचार और उसके क्रियान्वयन की रूप रेखा तय की गई।उन चारों ने अपने-अपने चार-चार सहयोगी को और जोडा संख्या हुई बीस।बस अब खेल हुआ शुरू।
                 समाज में फैले विद्वेष, पिछडेपन,अर्थाभाव और शोषण पर लोकलुभावन लेख और भाषण तैयार किया गया।भाषण और लेख को आज के प्रचलित  संचार माध्यम से ईधर-उधर फैलाया गया।कारण कि ये जो बीस संख्या में साथी जुडे हुए थे सब के सब बुद्धिजीवी थे।अपने परिवार,समाज को अपनी बात इस स्तर से समझा दिया की क्या कहना जो सुने सब हाँ में हाँ मिलाए।एक अच्छा प्रयास बताया।होना चाहिए एक ने तो जोर देकर कहा।
            बात बढने लगी।समाज के वैसे लोगों से संपर्क किया जाने लगा जो कुछ काम के लायक नहीं रहे।यानि नव धनाड्य सेवामुक्त लोग।जो शुरू से अध्ययनरत रहे फिर कार्यरत रहे और अभी सेवा मुक्त हैं।घर में न कोई कामधंधा न बात विचार।क्या करें न करें।तो उन्हे  समाज की चिंता सताने लगी।मन बहलाव और कुछ ठहराव तथा मान-सम्मान की लिप्सा में वे भी अपना राग उन्हीं के राग में मिलाने लगे।सहयोग का भी आश्वासन दिया।मन गदगद।सब तैयारी में लगे।तय हुआ सभी साथी यथा संभव सहयोग करेंगें।मौखिक हिसाब खर्च से ज्यादा निकला।दो स्थानीय लोग जो महत्वाकांक्षी थे साथ हीं पुछप्रिय उन्हे संयोजक बनाया गया।स्थान और दिनांक तय किया गया।कुछ लोगों को जानकारी दी गई।
                एक संयोजक ने स्थान ठीक किया।स्थान का किराया भी बहुत ज्यादा था।दुसरे संयोजक को इसकी जानकारी दी गई।वह इसे ठीक कहा समय और स्थान के हिसाब से।साथ हीं साथ कहा की कुछ नामचीन बडी हस्तियां आयेगी।तो चाय पानी का भी इंतजाम कर दिजीये।बाद में हिसाब हो जायेगा।बेचारा पहला संयोजक वह भी तय कर लिया।
                    तय समय से कार्यक्रम का उद्घाटन हुआ।दुसरा संयोजक सब कर्ताधर्ता बना।पहला बेचारा बेचैन।इधर-उधर के फेर में।बडे तामझाम से कार्यक्रम हुआ।बीस साथियों में से चार साथियों के साथ परिस्थिति दगा दे गई।वे सप्ताह भर पूर्व न आने को बोल दिये साथ हीं कार्यक्रम की शुभकामना दी।बाकि बचे सोलह।चार जनें की परीक्षा आन पडी।वे भी चले गये परीक्षा में।अगली बार मिलने की बात कह।चार जने को गाडी हीं नहीं मिली आने के लिए।वे अफसोस पूर्वक क्षमा माँग लिए।बाकि चार जने आधे कार्यक्रम में पहुँचे बेतहशे रूप से मानों बडी परेशानी में पड के आयें हों किसी तरह से।खैर आ तो गये।यह क्या कम है?चार जने को देखकर हीं संयोजक को बडी खुशी हुई।कारण की वेसब अपने हीं थे।
      कार्यक्रम में अप्रत्याशित उपस्थिति रही।आयोजक संयोजक तो गदगद हो गये।बडी चर्चा चली।सब तरह की चर्चा।गहमागहमी से लेकर मातम'गमी तक।सुधार से सिकायत और सुझाव तक।सब हो गया।सभा समापन पर आया।धन्यवाद ज्ञापन हुआ।लोग भागमभाग में लगे।संयोजक आयोजक सभी को विदा करने लगे।आगंतुक चार साथियों में से एक ने सात सौ और एक ने दो सौ रूपये पकडाए और कार्यक्रम की सफलता के लिए बधाई बोलकर चलते बने।सभी धीरे-धीरे चले गये।दुसरा संयोजक पहले वाले से बोला जरा इधर देखिएगा तब तक हम इनसब को छोड देते हैं।और चलते गये।बेचारा आयोजक परेशान।पर किसी से कुछ कह नहीं रहा है।उसके पास उतना जुगाड़ नहीं है जीतने की जरूरत है।हिसाब देखा तो धरती घुम गई।
        जेब में दो हजर और खर्च सात हजार।क्या होगा?दुसरा आकर बोला..'क्या करना है?देना तो हम दोनों को हीं है।'आप आधा दे दीजिए।आधा हम देते हैं।बात को खत्म किजिए।
       एक साथी अचानक वहां आया।देखकर बोला कोई बात है क्या?आयोजक ने अपनी बिवसता बताई और दो हजार का कर्ज लिया।पैसा चुकता कर बुझे मन से वह भी चलते बना।
         'डूब कर के कर्ज में,
          ओ मर गया बेमर्ज में।
          क्या करोगे जानकर-
          दुनिया बडी खुदगर्ज में।।
कमीं कहाँसे आ गई,
ढुँढो तो अपनी निष्ठा में।
चल गया है प्राण अब तो-
प्राण की प्रतिष्ठा में।।
       © संजय कुमार मिश्र "अणु"
           वलिदाद अरवल (बिहार)
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