अग्निपथी
सूर्यदेव अपनी आज की परिक्रमा कर विश्राम हेतु अस्ताचल की ओ
र बढ़ चुके थे।
महाभारत युद्ध के १७ वें दिन की समाप्ति का शंखनाद हो चुका था। दूर युद्ध क्षेत्र में महाबली भीम ने भयंकर सिंहनाद किया जिससे पूरा आकाश कांप गया। नगर मे पांडवों की जय के जयघोषों से आसमान गुंजायमान हो उठा। इसी के साथ अधिरथ भार्या राधा के हृदय का स्पंदन धीमा होता जा रहा था। क्या सचनुच वो हो गया जिसकी उसे हमेशा आशंका थी। उसका प्रिय पुत्र, उसके जीवन का साध्य उसे हमेशा के लिए छोड़कर वीरगति को प्राप्त हो गया। नहीं नहीं ऐसा नहीं हो सकता। वो प्रचंड धनुर्धारी है, स्वयं राधा ने कई बार देखा था, उसकी धनुर्विद्या का सानी न था। कुरुवंश के कुमारों के लिए आयोजित क्रीड़ांगन में जब उसने अपने पराक्रम की छटा दिखाई थी तो गुरु द्रोण भी सन्न रह गए थे। उस अवसर की साक्षी थी वह। वृषा कहलाता था वो। वृषा- वह जो सदा सत्य बोलने वाला हो, तपस्या में रत हो, जिसकी प्रतिज्ञा उसकी परिचायक हो, जो शत्रुओं के प्रति भी दयाभाव रखता हो, उस देवपुत्र – हाँ देवताओं ने हिओ तो उसकी झोली मे डाला था, का वध हो जायेगा। मां का मन मानता न था। राधा ने अपने आस पास देखा। समीप ही अधिरथ की आंखों से अश्रुओं की अविरल धारा बह रही थी। काल की यह कैसी क्रूर नियति थी कि अपने नौ पुत्रों में से आठ की आहुति महाभारत में दे चुकने के बाद आज राधेय भी अपनी बलि चढ़ा बैठा था। अपने पुत्रों तक की मृत्यु पर विलाप न करने वाली माताएं आज आने स्वामी के अंत पर खुद को रोक न पाई थी। रुषाली और सुप्रिया जो महावीर अंगराज कर्ण की पत्नियां थी, उनकी चीत्कारों से पूरा महल दहल रहा था।
सन्नाटा तो राजभवन के उस प्रकोष्ठ में भी तैर गया जब दूतों ने हर्षपूर्वक महारानी कुंती को पांडव विजय का समाचार दिया। जननी की पीड़ा मर्मान्तक थी आज उसके एक पुत्र ने अपने ज्येष्ठ भ्राता का वध कर दिया था। पांडवों की इस विराट विजय का वो हर्ष मनाए या अपने शिशु की मृत्यु का शोक कुंती समझ न पा रही थी। वो शिशु जिसे वो कभी अपने अंक भी न लगा सकी, वो जिसे लोकलाज के भय से उसे त्यागना पड़ा। युद्ध के पूर्व अनिष्ट रोकने के अंतिम प्रयास के तौर पर उसने कर्ण को उसके जन्म का रहस्य भी बता दिया था पर वो तो कुछ ऐसा रूठ गया था कि दुर्योधन को दिया अपना वचन तोड़ने को तैयार न हुआ, हाँ कुंती को आश्वासन अवश्य दे गया कि उसके पांच पुत्र सदैव रहेंगे पर कर्ण या अर्जुन में से एक ही रहेगा। विवशता की उन आंखों में ज्यादा झांकने का साहस कुंती न कर सकी थी।
युद्ध क्षेत्र में स्त्रियों का प्रवेश वर्जित था पर राधा और कुंती दोनों के लिए अपने पुत्र का अंतिम दर्शन करना आवश्यक था। कर्ण के सबसे छोटे पुत्र वृषकेतु की उंगलियां पकड़े राधा युद्ध क्षेत्र की ओर चल दी। साथ में अधिरथ भी थे। राधा का मन बार बार उस पलों में चल जाता था जब श्रेष्ठ होने के उपरांत भी कर्ण को सम्मान न मिल सका। दुर्योधन ने उसे राजा अवश्य बना दिया पर सामाजिक लांछनों का वो क्या करता जो समाज की उपालंभ भरी निगाहें में थीं पर भले ही जिह्वा पर न आती थीं। अपनी प्रतिष्ठा के लिए उसने भरसक प्रयास किये थे। जप तप दान आदि में उसका नाम सर्वोपरि था। पर ये सब मिलकर भी उसे वो न दे सके जो वो अपना जन्मगत अधिकार मानता था। महारथी महाभट कहलाने का सुख। राधा से कुछ छुपा न था । पुत्र के अंतर मे चल रही मानसिक झंझावातों को माँ के अतिरिक्त कौन समझ सकता है। विराट के युद्ध के पश्चात उसने राधा से पूछा भी था - माँ बताओं कौन सा योद्धा नहीं है जिसने कोई रण न हारा हो। सभी तो थे वहां गुरु द्रोण, कृपाचार्य, पितामह भीष्म, दुर्योधन आदि पर उस हार का कारक मुझे ही क्यों माना गया। राधा के पास कोई उत्तर न था। वो बस कर्ण के बालों में उंगलियां फिराती रही ताकि उसके आहत मन को थोड़ा आराम मिल सके। शरीर के घावों की पीड़ा तो भर जाती है पर मानस पर लगे चोटों का इलाज तो सुरवैद्य अश्विनि के पास भी न था। कुछ ऐसा ही तब भी हुआ था जब द्रौपदी ने भरी सभा में उससे विवाह करने से मना कर दिया था। उस दिन भी वो बहुत आहत था। राधा ने तब भी उसे समझने के बजाय उसको अपनी ममता का सहारा देकर उस कष्ट से उबारा था। राधा के लिए उसके पुत्र का सुख मानों उसके शैशव समाप्त होते ही समाप्त हो गया था। चाहे विद्यार्जन हो या सामर्थ्य प्रदर्शन उसे हमेशा रोका गया था। उसकी क्षमताओं के आगे उसका कुल दीवार बनकर खड़ा हो जाता था। फिर भी राधा ने अपने पुत्र को हमेशा ढाढ़स बंधाया। उसे वीरोचित और धर्म-सन्नद्ध कार्य करने को प्रोत्साहित किया। आज उस जीवन का अंत हो गया था।
सामने युद्ध भूमि में अंगराज कर्ण का बलिष्ठ शरीर बिना सर के पड़ा था। कटा हुआ सर अलग से युद्ध भूमि से एकत्र कर लाया गया। पांडव और कृष्ण वहां थे। जहां पांडवों की खुशी का ठिकाना न था वहीं कृष्ण के मुख पर मलिनता थी, कातरता थी और दोषी होने का भाव भी। पांडव समझ न पाते थे कि वासुदेव आज प्रसन्न क्यों नहीं हैं। अर्जुन ने उनकी सिखाई नीति से ही तो कर्ण का वध किया था। सामने अब सिर्फ दुर्योधन था, कौरव सेना में अब कोई महारथी शेष न था। मद्र नरेश शल्य अवश्य थे पर उनकी आयु को देखते हुए वे कोई बड़ी चुनौती देने में समर्थ न थे। महाभारत का युद्ध पांडव करीब करीब जीत चुके थे फिर माधव के मुख पर ये भाव क्यूँ।
तभी माता कुंती और राधा वहां पहुंचीं। पांडवों के हाथ स्वतः ही प्रणाम की मुद्रा में आ गए। युधिष्ठिर माता के मुख पर आए भावों से असमंजस में थे। वहां गहन पीड़ा थी।
राधा की निगाहें कृष्ण पर स्थिर हो गईं। युद्ध भूमि के मौन में पसरे राधा के प्रश्न कृष्ण को विचलित कर रहे थे। क्यूँ वासुदेव आप तो सर्वज्ञ हैं फिर भी आपने ये अनर्थ क्यूँ होने दिया। आपने यह अन्याय क्यों कर किया। आपके लिए तो कौरव और पांडव समान थे फिर भी कर्ण से विभेद क्यूँ। और ये कर्ण के आगे के दांत क्यों टूटे हुए हैं। उसकी मृत्यु तो शीश कटने से हुई है ना। राधा के प्रश्न तीर की भांति गिरिधर को भेद रहे थे पर उनका उत्तर कहाँ था। कैसे कहते कि मृत्यु के मुख में समाते कर्ण की भी परीक्षा से वे बाज न आये थे उससे उस समय भी उन्होंने दान मांग लिया था और अपूर्व कीर्ति का स्वामी वो कर्ण काल के गाल में सामाते समाते भी अपने अगले दोनों दांतो को पत्थर से तोड़कर उन्हें स्वर्ण दान कर गया था। कैसे कहते कि उन्होंने कर्ण को समझने का भरसक प्रयास किया था कि वो या तो युद्ध से विरत हो जाये या पांडवों के पक्ष में आ जाये। ऐसा होने मात्र से युद्ध रुक सकता था। पर विधाता की लेखनी के आगे स्वयं नारायण भी विवश थे।
राधा ने अपने अश्रुओं से कारण के मृतक शरीर को धो डाला था। कर्ण-पुत्र वृषकेतु को तो पता भी न था कि आज उसके तात समरांगण में क्यों सोए हुए हैं। राधा अपने सुत को अपलक निहारे जा रही थी।
ज्येष्ठ ने माता कुंती के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद चाहा पर कुंती आज कुछ न कह सकी। उसकी आँखों से अश्रुओं की धारा प्रस्फुटित हो उठी। कुंती अपने स्थान से उठी और कटे मस्तक का लिलार चूम लिया। पांडवों के लिए यह अकल्पित और अप्रत्याशित था। उन्हें अभिमन्यु के वीरगमन का दृश्य भी याद था तब भी माता कुंती ने अपने को संयत रखा था। फिर आज वैरी के लिए ऐसी ममता का प्रदर्शन। सभी निगाहें कृष्ण की ओर उठ गयीं। कृष्ण ने युधिष्ठिर को अपने पास बुलाया और कर्ण के जीवन का रहस्य उन्हें बता दिया। युधिष्ठिर हतप्रभ थे।
ये कैसा घोर अनर्थ हो गया। अनुजों के हाथों अग्रज की हत्या हो गयी। मुरारी आपने पहले कहा क्यों नहीं। माता ने कभी उन्हें बताया नहीं- आखिर क्यूँ? क्रोध से उनके नयन लाल हो उठे तीव्र गति से वो माता कुंती के पास पहुंचे और अपने अग्रज के साथ हुए इस अन्याय का समाधान चाहा। पर अब हो ही क्या सकता था। हमेशा धीर गंभीर और स्थितप्रज्ञ रखने वाले युधिष्ठिर के मुंह से शाप निकला - अब से स्त्रियाँ कोई भेद छिपा न सकेंगी।
वीरोचित दाह संस्कार के लिए काष्ठ मंगवाए गये। तभी वासुदेव ने कहा - नहीं युधिष्ठिर, कर्ण का संस्कार ऐसे नहीं होगा। मैंने उन्हें वचन दिया हैं कि उनका दाह संस्कार ऐसे जगह होगा जहां कोई पाप न हुआ हो और पृथ्वी पर अभी ऐसी कोई जगह नहीं है। उन्होंने अपना शरीर विस्तार किया और कहा - राधेय का दाह संस्कार मेरी हथेली पर करो। नन्हे वृषकेतु ने पिता को मुखाग्नि दी और कर्ण का स्थूल शरीर पंचतत्व में विलीन हो गया। नन्हे वृषकेतु को पांडव अपने घर ले आये और कालांतर में उसे इंद्रप्रस्थ का राज्य सौंप दिया।
- मनोज मिश्र