
गुरुवार है
गुरुमहाराज जी का दिन
पंडित
श्रीकृष्ण दत्त शर्मा,
अवकाश प्राप्त अध्यापक
सी 5/10 यमुनाविहार दिल्ली
*बंदऊँ गुरु
पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ
मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥
भावार्थ:-मैं
गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध तथा अनुराग रूपी रस
से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो
सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है॥
इस
शरीर को त्याग कर इस जगत में दूसरा शरीर धारण करना भी सुव्यवस्थित है, मनुष्य तभी मरता है जब यह निश्चित हो जाता है कि अगले जीवन में उसे किस
प्रकार का शरीर प्राप्त होगा, इसका निर्णय उच्च अधिकारी करते
हैं, स्वयं जीव नहीं करता इस जीवन में अपने कर्मो के अनुसार
हम उन्नति या अवनति करते हैं, यह जीवन अगले जीवन की तैयारी
है।
अतएव
यदि हम इस जीवन में भगवद्धाम पहुँचने की तैयारी कर लेते हैं तो इस शरीर को त्यागने
के बाद हम भगवान् के ही सदृश आध्यात्मिक शरीर प्राप्त करते हैं, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, अध्यात्मवादियों के कई
प्रकार है- ब्रह्मवादी, परमात्मावादी तथा भक्त, और जैसा कि उल्लेख हो चुका है, ब्रह्मज्योति
(आध्यात्मिक आकाश) में असंख्य आध्यात्मिक लोक है, इन लोकों
की संख्या भौतिक जगत के लोकों की संख्या से कहीं अधिक बड़ी है, यह भौतिक जगत अखिल सृष्टि का केवल चतुर्थाश है "एकांशेष स्थितो
जगतः"
इस
भौतिक खण्ड में लाखों करोडों ब्रह्माण्ड है, जिनमें
अरबों लोक और तारें है, किन्तु यह सारी भौतिक सृष्टि
सम्पूर्ण सृष्टि का एक खण्ड मात्र है, अधिकांश सृष्टि तो
आध्यात्मिक आकाश में है, जो व्यक्ति परब्रह्म से तदाकार होना
चाहता है वह तुरन्त ही परमेश्वर की ब्रह्मज्योति में भेज दिया जाता है, और इस तरह वह आध्यात्मिक आकाश को प्राप्त होता है, जो
भक्त भगवान् के सान्निध्य का भोग करना चाहता है वह वैकुण्ठ लोको में प्रवेश करता
है, जिनकी संख्या अनन्त है।
जहाँ
पर परमेश्वर अपने पूर्ण अंशो, चतुर्भुज नारायण के
रूप में तथा प्रधुम्न, अनिरुद्ध तथा गोविन्द जैसे विभिन्न
नामों से भक्तों के साथ-साथ रहते हैं, अतएव जीवन के अन्त में
अध्यात्मवादी ब्रह्मज्योति, परमात्मा या भगवान् श्रीकृष्ण का
चिन्तन करते हैं, प्रत्येक दशा में वे आध्यात्मिक आकाश में
प्रविष्ट होते हैं, लेकिन केवल भक्त या परमेश्वर से सम्बन्धित
रहने वाला ही वैकुण्ठलोक में या गोलोक वृन्दावन में प्रवेश करता है।
इसमें
कोई सन्देह नहीं है,
इस पर दृढ़ विश्वास करना चाहियें, हमें चाहिये
कि जो हमारी कल्पना से मेल नहीं खाता उसका बहिष्कार न करें, हमारी
मनोवृत्ति अर्जुन की सी होनी चाहिये, आपने जो कुछ कहा उस पर
मैं विश्वास करता हूँ, अतएव जब भगवान् यह कहते हैं कि मृत्यु
के समय जो भी ब्रह्म, परमात्मा या भगवान् के रूप में उनका
चिन्तन करता है वह निश्चित रूप से आध्यात्मिक आकाश में प्रवेश करता है, तो इसमें कोई सन्देह नहीं है, इस पर अविश्वास करने
का प्रश्न ही नहीं उठता?
यं
यं वापि स्मरन् भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति
कौन्तेय सदा तद्भावभावितः।।
भगवद्गीता
में (8/6)
उस सामान्य सिद्धान्त की भी व्याख्या है जो मृत्यु के समय ब्रह्म का
चिन्तन करने से आध्यात्मिक धाम में प्रवेश करना सुगम बनाता है, मनुष्य अपने इस शरीर को त्यागते समय जिस-जिस भाव का स्मरण करता है,
वह अगले जन्म में उस-उस भाव को निश्चित रूप से प्राप्त होता है,
सज्जनों! अब सर्वप्रथम हमें यह समझना चाहिये कि भौतिक प्रकृति
परमेश्वर की एक शक्ति का प्रदर्शन है, विष्णु पुराण में (6/7/61)
भगवान् की समग्र शक्तियों का वर्णन हुआ है।
विष्णुशक्तिः
परा प्रोक्ता क्षेत्रज्ञाख्या तथा परा।
अविधाकर्मसंज्ञान्या
तृतीया शक्तिरिष्यते।।
परमेश्वर
की शक्तियाँ विविध तथा असंख्य हैं और हमारी बुद्धि के परे है, लेकिन बड़े-बड़े विद्वान् मुनियों या मुक्तात्माओं ने इन शक्तियों का अध्ययन
करके इन्हें तीन भागों में बाँटा है, सारी शक्तियाँ
विष्णु-शक्ति है, अर्थात् वे भगवान् विष्णु की विभिन्न
शक्तियाँ है, पहली शक्ति परा या आध्यात्मिक है जीव भी परा
शक्ति है जैसा कि पहले कहा जा चुका है, अन्य अपरा शक्तियाँ
भौतिक है जो तामसी है, मृत्यु के समय हम या तो इस संसार की
अपरा शक्ति में रहते हैं या फिर आध्यात्मिक जगत की शक्ति में चले जाते हैं।
सज्जनों!
जीवन में हम या तो भौतिक या आध्यात्मिक शक्ति के विषय में सोचने के आदी है, हम अपने विचारों को भौतिक शक्ति से आध्यात्मिक शक्ति में किस प्रकार ले जा
सकते हैं? ऐसे बहुत से साहित्य है- यथा समाचार
पत्र-पत्रिकायें, उपन्यास जो हमारे विचारों को भौतिक शक्ति
से भर देते हैं, हमें ऐसे साहित्य में लगे अपने चिन्तन को
वैदिक साहित्य की ओर मोड़ना है, अतएव महर्षियों ने अनेक
वैदिक ग्रन्थ लिखे हैं, जैसे पुराण, ये
पुराण कल्पनाप्रसूत नहीं है, अपितु ऐतिहासिक लेख हैं।
मायामुग्ध
जीवेर नाहि स्वतः कृष्णज्ञान।
जीवेरे
कृपाय कैला कृष्ण वेद-पुराण।।
चैतन्य-चरितामृत
में (मध्य 20/122)
यह कथन है- भुलक्कड़ जीवों या बद्धजीवों ने परमेश्वर के साथ अपने
सम्बन्ध को भुला दिया है और वे सब भौतिक कार्यों के विषय में सोचने में मग्न रहते
हैं, इनकी चिन्तन शक्ति को आध्यात्मिक आकाश की ओर मोड़नेके
लिये ही कृष्णद्वैपायन व्यास ने प्रचुर वैदिक ग्रन्थ प्रदान किये है, सर्वप्रथम उन्होंने वेद के चार विभाग किये, फिर
उन्होंने उनकी व्याख्या पुराणोंमें की, और अल्पज्ञों के लिये
उन्होंने महाभारत की रचना की, महाभारत में ही भगवद्गीता दी
हुई है।
तत्पश्चात
वैदिक साहित्य का सार वेदान्त-सूत्र में दिया गया है और भावी पथ-प्रदर्शन के लिये
उन्होंने वेदान्त-सूत्र का सहज भाष्य भी कर दिया जो श्रीमद्भागवतम् कहलाता है, हम इन वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन में अपना चित्त लगाना चाहियें, जिस प्रकार भौतिकतावादी लोग नाना प्रकार के समाचार पत्र-पत्रिकायें तथा
अन्य संसारी साहित्य को पढ़ने में ध्यान लगाते हैं, उसी तरह
हमें भी व्यासदेव द्वारा प्रदत्त साहित्य के अध्ययन में ध्यान लगाना चाहियें,
इस प्रकार हम मृत्यु के समय परमेश्वर का स्मरण कर सकेंगे।