बाल का खाल!
संजय कुमार मिश्र"अणु"
समय के साथ,हम समझ रहे है-
तुम्हारी हरेक चाल!!
तुम अपने स्वार्थ में-
बिल्कुल अंधे होकर|
प्रताड़ित कर रहे हो-
मुझे मार ठोकर|
बेबजह खींच-खींच-
बाल का खाल!!
कबतक करते रहोगे-
ये प्रदर्शित दिखावा|
जब टुटेगा विश्वास-
दिखेगा रूप छलावा|
तब सोचोगे बैठ तुम-
हाय!ये क्या कर डाला!!
ये तेरी मन मोहिनी हंसी-
नहीं छुपा पायेगी कुटिलता|
डूबा कर तुम्हे मार डालेगी-
उसकी सरल निश्छलता|
और तेरा कुचक्र हीं होगा-
तेरे लिए काल!!
आखिर कबतक दे सकते हो-
लोगों को धोखा पर धोखा|
सरेआम हो हीं जाना है-
ये तेरा रूप-रंग चोखा|
फिर तो बचेगा भी नहीं-
बजाने के लिए छाल!!
ये आदत ठीक नहीं है-
पूर्वजों ने समझाया था|
अपने जीते जी हमेशा इसे-
जीवित हीं दफनाया था|
और तुमने अपना लिया-
समझकर ढाल!!
तुम चाहे खुद को जो समझो,
पर अतिनिद्य है ये व्यवहार|
ये बाते"मिश्रअणु" नहीं कहता-
बल्कि बतलाता रहा है संसार|
प्रकृति उसको सहयोग देती है-
और संसाधन हर काल!!
बुरे लोगों का बुरा होता है,
ये तो पूर्ण साश्वत है नियम|
कोई पक्षपात नहीं होता है-
चाहे आप हो या फिर हम|
उसकी अपनी परंपरा है-
और उसका है अपना जाल!!
---:भारतका एक ब्राह्मण.
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