"तस्वीरों के समय में उपस्थित मनुष्य"
पंकज शर्मामौजूदगी—
यह सबसे सस्ता शब्द हो गया है
इतना सस्ता
कि उसे गिनती में नहीं रखा जाता।
जो सामने खड़ा है, साँस लेता हुआ,
उसकी धड़कनें
किसी अदृश्य खातों में दर्ज नहीं होतीं।
लोग गुजर जाते हैं
एक-दूसरे के पास से
जैसे शहर के नीचे बहती
किसी गुप्त नाली की तरह—
आवाज़ है, गंध है,
पर देखने की फुर्सत नहीं।
फिर एक दिन
कोई तस्वीर दीवार पर टँगी मिलती है—
फ्रेम में क़ैद मुस्कान,
स्थिर आँखें,
और तभी
संवेदनाएँ जागती हैं
जैसे अपराध-बोध की नींद टूट गई हो।
तस्वीर पूछती नहीं
कठिन प्रश्न,
वह चुप रहती है
और यही उसकी सुविधा है।
जीवित मनुष्य तो
उत्तर माँगता है,
संघर्ष चाहता है,
असहज करता है।
हमने स्मृति को
संवेदना से बड़ा बना दिया है।
मृत या अनुपस्थित होने पर ही
मनुष्य
पूज्य होता है—
जब तक जीवित है,
वह सिर्फ़ उपयोगी या अनुपयोगी है।
यह समय
वस्तुओं को सँजोता है
और मनुष्यों को
टाल देता है।
भावनाएँ
फ़ाइलों में बंद हैं,
खोली जाती हैं
केवल शोक-सूचना के साथ।
मुक्ति शायद इसी में थी
कि हम
मौजूद रहते हुए भी
अनुपस्थित न होते।
कि आँखों में आँख डालकर
कह पाते—
“तुम हो, इसलिए संसार है।”
पर अब
हम तस्वीरों के युग में हैं—
जहाँ जीवन से ज़्यादा स्पष्ट
मृत्यु की छवि है।
और हम रोते हैं,
क्योंकि रोना
अब महसूस करने का
सबसे सुरक्षित तरीका है।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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