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माटी का मोल

माटी का मोल

साधारणतया माटी कहने से हमें मिट्टी, भूमि ,धरती, भू, मृदा तथा रज का बोध होता है। लेकिन जब माटी के मोल की बात आती है तो इसके उपयोग एवं मूल्य पर कवियों तथा लेखकों द्वारा माटी के विषय में दिये गये अलंकार एवं उपमाओं से मानसपटल पर अनेक तरह की भावनायें उठने लगती हैं।
सबसे पहले तो आते हैं मानव शरीर के संरचना के विषय में कहे गए धार्मिक तथ्यों के आकलन पर । ऐसा कहा गया है कि:-
क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा।
पंच रचित यह अधम शरीरा।।
यानि हमारा शरीर भी अन्य चार वस्तुओं के साथ मिलकर माटी से ही बना हुआ है। मुल्य के हिसाब से इस मानव शरीर को बहुमूल्य निधि कहा जाता है। अतः यहाँ मिट्टी को बहुमूल्य माना गया है।
अब आते हैं एक महान कवि द्वारा रचित उनकी कविता के कुछ पंक्तियों पर, जिसमें कहा जा रहा है कि :-
एक दिन बिक जाएगा माटी के मोल।
जग में रह जाएगा, प्यारे तेरे बोल।।
इन पंक्तियों में इस शरीर को माटी के मोल में बिकने वाली वस्तु कहा गया है। यानि यहाँ माटी को बहुत ही तुच्छ कीमत वाली वस्तु के रूप में दर्शाया गया है।
एक जगह एक कवि ने भारतवर्ष की मिट्टी की गुणगान करते हुए लिखा है कि :-
आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झाकी हिन्दुस्तान की।
इस मिट्टी से तिलक करो, यह मिट्टी है बलिदान की।।
यहाँ भी भारतवर्ष की माटी को अत्यंत महत्वपूर्ण एवं अमूल्य बताया गया है, जिसकी कीमत आंकी नहीं जा सकती है। अतः इस मिट्टी को चंदन के रूप में अपने ललाट पर लगाएं। कीमती वस्तु को ही सिर पर चढ़ाया जाता है।
कहीं कहीं कुछ लेखकों द्वारा लिखित लेखों और कहानियों में ऐसा मिलता है कि लड़ाई एवं आपसी प्रतिद्वंद्विता में एक राजा ने अथवा किसी एक व्यक्ति ने दूसरे को मिट्टी में मिला देने की बात कही है। यानि उनके अनुसार वो दूसरे की आर्थिक स्थिति अथवा शारीरिक एवं सामाजिक सुदृढ़ स्थित को खत्म कर देंगे। इससे यह तथ्य सामने आता है कि मिट्टी बहुत तुच्छ वस्तु है, अर्थात इसकी कोई कीमत नहीं है।
कवियों और लेखकों द्वारा लिखित एवं आकलित माटी के मूल्य में यहाँ विरोधाभास स्पष्ट दिखाई देता है।
अब आइये हम सब माटी के व्यवहारिक तथ्य एवं इसके मुल्यांकन की तरफ ध्यान देते हैं।
हमने वर्षों पहले अपने कलकत्ता निवास के समय साठ - सतर के दशक में माटी को बिकते देखा है। वहाँ कुछ हाॅकर सुबह सुबह अपने माथे पर टोकरी में माटी लेकर बेंचते फिरते थे।पत्थरों के शहर में वहाँ तब माटी की अनेक उपयोगिताएँ होती थी। अतः अमीर गरीब सबको अपने आवश्यकता अनुसार खरीदना पड़ता था। मूल्य तब होता था दश रूपये प्रति छोटी टोकरी।
इसके बाद जब ईंट भठ्ठों का प्रचलन सतर - अस्सी के दशक के बाद जोर सोर से शुरू हुआ और मिट्टी के जगह ईंट के मकान गरीब अमीर सबके बनने लगे तब ईंट भठ्ठा के मालिकों द्वारा गाँव देहात में किसानों तथा जमीन मालिकों से उनके खेत की मिट्टी अच्छी खासी कीमत देकर ईंट बनाने के लिए खरीदी जाने लगी। इस प्रकार माटी का मोल दिनों दिन बढ़ने लगा।
जब शहरी आबादीकरण शुरू हुआ और शहरों में मकान उंच नीच सब जगह बनने लगे तब नीची जमीन को माटी एवं बालू से भर कर मकान बनाने के लिए अनेक मिट्टी की आवश्यकता होती थी। ऐसे हालात में माटी की कीमत में बड़ा लम्बा उछाल आया।
आज कल तो सरकारी स्तर पर जब सारे देश में सड़क और रेलवे का निरंतर विकास हो रहा है, ऐसी हालात में सरकार द्वारा भू अधिग्रहण किया जा रहा है और उसके लिए माटी ( जमीन) की कीमत किस हिसाब से सरकार द्वारा दी जा रही है यह पूरे देश को पता है। आज कल माटी की कीमत आसमान छू रही है।
ऐसे में आज कल माटी की कीमत के बारे में पहले की कही गई सारी बातें कोरी कल्पना लगतीं हैं। वास्तव में माटी तब भी और अब भी हर तरह से बहुमूल्य वस्तु रही है, चाहे माटी रचित मानव शरीर हो अथवा खेत खलिहान एवं जंगल पहाड़ की मिट्टी ही क्यों न हो।

जय प्रकाश कुवंर
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