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मत हिला मुझे महिला कहकर ,

मत हिला मुझे महिला कहकर ,

मैं ही तो तेरी देवी कल्याणी हूॅं ।
मैं ही तो हूॅं बेटी बहन व माता ,
मैं ही तो तेरी मुखरित वाणी हूॅं ।।
महिला शब्द से है चिढ़ मुझको
महिला कह इस्तेमाल किया ।
सहन करती रही मैं महिला बन ,
पल पल मेरा बुरा हाल किया ।।
रहने दो लक्ष्मी शारदा दुर्गा रूप ,
चंडी ज्वाला काली बन जाऊॅंगी ।
मुश्किल होगा फिर मुझे रोकना ,
ऑंधी तूफाॅं से भी टकराऊॅंगी ।।
मैं ही हूॅं नारी रूप में नारायणी ,
मैं ही तो तेरी शक्ति सुदृढ़ हूॅं ।
तुम बन जाओ नर रूप नारायण ,
तेरा सख्त शक्तिशाली रीढ़ हूॅं ।।
तुम हो मर्यादित मेरे राम यदि ,
तो मैं सीता रूपी ही नारायणी हूॅं ।
तुम हो सकल सफलता मेरी ,
मैं भी देवी रूप में कामायनी हूॅं ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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