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प्रेमपुरुष श्रीकृष्ण

प्रेमपुरुष श्रीकृष्ण

मार्कण्डेय शारदेय
व्यक्तित्व का विकास किसी एक प्रभाव से नहीं होता।जैसे मधुमक्खी कई फूलों से रस ग्रहण कर आस्वाद्य मधु का निर्माण करती है, वैसे ही व्यक्ति प्रकृति की गोद में पले-बढ़े कितने ही जड़-चेतन के गुणों को आत्मसात् कर आत्मनिर्माण करता है।दत्तात्रेय को लिया जाए तो उन्होंने अपने चौबीस गुरुओं को बताया है।वे गुरु किसी गुरुकुल के न तो आचार्य थे और न उपाध्याय ही। उनके गुरु पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, कबूतर, अजगर, समुद्र, पतंग, भौंरा या मधुमक्खी, हाथी, शहद निकालनेवाला, हरिण, मछली, पिंगला वेश्या, कुरर पक्षी, बालक, कुमारी कन्या, बाण बनानेवाला, सर्प, मकड़ी और भृंगी कीट रहे।वाकई; सीखने के लिए पूरा विश्व भरा पड़ा है, पर ज्ञानार्थी चाहिए।नहीं तो कम जानकार होकर अधिक डींग मारनेवाले को ब्रहमा भी नहीं सुधार- सिखा सकते- ‘ब्रह्मापि तं नरं न रंजयति’।
यह सच है कि हर आदमी की खासियत होती, जिससे वह आम से खास होता जाता है।यह विशेषता संचित और अर्जित दोनों होती है।यहाँ संचित से मतलब पूर्वजन्म के कृत कर्मों से है तो अर्जित से इहजन्म के माता-पिता, घर-परिवार, परिस्थिति- परिवेश, शिक्षा-दीक्षा जन्य है।इससे हम कभी परे नहीं हैं।श्रीराम हों या श्रीकृष्ण भी परिस्थियों से बचे नहीं।परन्तु; जैसे समझदार अपना रास्ता निकाल लेता है, वैसा ही इनका व्यक्तित्व व चरित्र सर्वयुगीन मानकता का सुगम्य मार्ग बना।
हम श्रीकृष्ण की बात करें तो उनका जन्म कंस के आतंक, अनाचार के बीच हुआ।जनमते माता-पिता के वात्सल्य से दूर रहना पड़ा।माँ के दूध का स्वाद भी नहीं मयस्यर हुआ।परन्तु; ईश्वर किसी को सब कुछ नहीं देता और न सब छीन ही लेता है।कहीं-न-कहीं डंडी मार लेता है तो कहीं-न-कहीं से भरपाई भी कर देता है।जन्मदाता जननी-जनक का प्यार न मिला तो नन्द-यशोदा के रूप में माँ-बाप को खड़ा कर दिया।खूब लाड़-प्यार मिला।कोई कमी नहीं रही।राजमहल का सुख न मिला तो अकृत्रिम ग्राम्य सुख ने रिक्ति को शुद्ध रस से सिक्त कर दिया, लबालब भर दिया।ऐसे में श्रीकृष्ण की जीवनयात्रा मार्ग में पड़े माधुर्य का चयन-संयोजन करती गई।काँटों के बीच खिलखिलाते फूल से सीख लेती गई।
‘गीता’ के ‘विभूतियोग’ में वह आदित्यों में विष्णु से लेकर ज्ञानियों के ज्ञान तक की बात करते हैं।मेरी समझ में हर विकसित व्यक्तित्व के साथ न्यूनाधिक ऐसी ही विभूतियों का योग होता है, तभी वैशिष्ट्य व स्वाभाविकता आती है।जब हम भगवान मानकर इन विभूतियों को देखते हैं तो स्पष्ट होता है कि नियन्ता के ये अंग हैं, परन्तु जब इंसान मानकर देखते हैं तो पता चलता है कि उनके गुणों में इन सबके वैशिष्ट्यों का संयोजन है, गुणग्राहिता है- ‘मधुकर सरिस सन्त गुनग्राही’।सचमुच, दिव्य रसायन सर्वरसों के आनुपातिक संयोग ही तो है! नहीं तो शहद इतना हृद्य क्यों होता! श्रीकृष्ण-चरित इतना हृदयावर्जक क्यों होता!
‘मधुराधिपतेः अखिलं मधुरम्’, अर्थात् माधुर्य के अधिपति के सब कुछ मधुर ही हैं।
यह उक्ति श्रीकृष्ण के समग्र व्यक्तित्व एवं कृतित्व को स्पष्ट कर देती है।वह स्वयं मधुरोपासक हैं।कोई माधुर्य का उपास्य तभी बन सकता है, जब वह तन-मन से स्वस्थ हो, स्थिरबुद्धि हो, रसिक हो।विषम परिस्थितियों में भी अनुकूलता खोज लेता हो।सूखे में भी रस निकाल लेता हो। उनके होठों पर तिरती मुस्कान, उनकी सौम्यता ही इसकी वास्तविक पहचान है।शायद उनके और उनसे जुड़े लोगों के लिए भी सौ रोगों की एक दवा रही।यह भी सच है कि जीवन में एक ही रस नहीं रहता, पर अंगी तो होता ही है।
वास्तव में, सदा प्रसन्न रहना ही जीवनकला है और यह तभी सम्भव है, जब सुख-दुःख, लाभालाभ, जयाजय को सम कर चला जाए (सुख-दुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ-गीता-2.38)।जिसके पास ऐसा गुण है, उसके पास सबकुछ है।हताश-निराश व्यक्ति मन मारे ही रहेगा, जबकि रसिक एकाकी निर्जन वन में भी वन्य जीवों, वृक्ष-लताओं, नदी-निर्झरों, पर्वत-गुफाओं से मैत्री कर उनसे वार्तालाप करने लगेगा।उनकी मुस्कान, उनका वंशीवादन, हास-परिहास, उनकी लीला, उनका भ्रमण, गोपालन, प्रकृतिप्रेम; जहाँ-जहाँ दृष्टि जाए, वहाँ-वहाँ मिठास की बरसात ही तो है! गोपियों और ग्वाल-बालों को लेकर बहुतों ने बहुत बातें की हैं।रीतिकाल ने तो बहाने से ही पूरा कामशास्त्र ही परोस दिया।परन्तु; उसके अतिरिक्त भी अवलोकन आवश्यक है।
‘गीता’ में वह स्वयं को वसन्त ऋतु के रूप में देखते हैं- ‘ऋतूनां कुसुमाकरः’ (10.35)।इसके पूर्व वह अपने को वेदों में सामवेद के रूप में पाते हैं- ‘वेदानां सामवेदोsस्मि’ (10.22)।अब हम पहले यह विचारें कि स्वयं को वसन्त क्यों कहा? तो इस ऋतु की गुणवत्ता पर ध्यान जाएगा ही।छह ऋतुओं में जिसे ऋतुराज कहा गया है, कुछ तो है तभी न! अवश्य है; और वह यह है कि जब यह आता है, फूलों की भरमार कर देता है।प्रकृति के अंग-अंग का सिंगार कर देता है।जहाँ देखो, वहीं पेड़-पौधे हँसते-मुस्काते नजर आते हैं।सबमें यौवन का मद भरा रहता है।वातावरण सम-शीतोष्ण हो जाता है।सबमें स्फूर्ति ही स्फूर्ति दीखती है।ऐसी स्थिति किसी और मौसम में नहीं आती है।यही कारण है कि वसन्त राजा है।समत्व नहीं तो राजा कैसा?
श्रीकृष्ण को सभी प्रिय हैं, इसलिए वह सबके प्रिय हैं।वह साफ जानते हैं, दोस्ती का हाथ बिना नफा-नुकसान देखे पहले बढ़ाना होता है।वह सबसे समान प्रेम करते हैं, इसलिए वसन्तमय हैं। उनके प्रकृतिप्रेम से प्रकृति निहाल है तो पशु-पक्षियों से लगाव के कारण वे भी।उनका अनुराग जड़-चेतन को रसवान बना देता है।इसीलिए वह सबके और सब उनके हो जाते हैं।वह ‘गते शोको न कर्तव्यो भविष्यं नाति चिन्तयेत्’; यानी भविष्य की चिन्ता मोह पैदा करती है और अतीत की चिन्ता शोक।वर्तमान में जीनेवाला ही जीवन्त होता है।वह सदा वर्तमान के दोनों पंखों (भूत एवं भविष्य) को उड़ान के काम लानेवाले हैं।इसीलिए जब गोकुल छोड़ जाते हैं और मथुरा, द्वारका, हस्तिनापुर तक जाते हैं तो गोकुल तथा वृन्दावन की रसात्मक अनुभूतियों को बाँधे नहीं चलते। वह तत्कालीन कर्तव्य और नए सम्बन्धों में माधुर्य घोलते नजर आते हैं।
श्रीमद्भागवत (पूर्वार्द्ध, अध्याय-15) पर दृष्टि डालें तो उनकी लीलाएँ मधुरालय ही दीखती हैं। प्रकृति-पूजक श्रीकृष्ण ग्रामीणों से मैत्री रखते ही हैं, गायों से भी आत्मीयता रखते हैं।यों तो गाँवों में प्राकृतिक प्रभाव प्रथमतः दृश्य होता है, पर वन तो प्रकृति का रंगमंच ही होता है।जब वह पौगण्ड (छह से दस वर्ष की अवस्था) हो जाते हैं तो वृन्दावन में अपने मित्रों के साथ अभिभावक-स्वीकृत गोचारण में संलग्न हो जाते हैं।वह वसन्तकाल रहता है।ऋतुराज अपने वैभव से गोपाल नन्दनन्दन को आनन्द से विभोर कर देता है।श्रीकृष्ण बड़े भाई बलराम से ऋतुवैभव का गान करने लगते हैं।शुकदेव जी के शब्दों में-
‘एवं वृन्दावने श्रीमत् कृष्णः प्रीतमनाः पशून्।
रेमे संचारयन् अद्रेः सरिद्रोधस्सु सानुगः।।
क्वचिद् गायति गायत्सु मदान्धालिष्वनु-व्रतैः।
उपगीयमान- चरितः स्रग्वी संकर्षमान्वितः।।
क्वचिद् कलहंसानाम् अनुकूजति कूजितम्’।
अभिनृत्यति नृत्यन्तं बर्हिणं हासयन् क्वचित्।।
आशय यह कि वह वसन्त से सुशोभित वृन्दावन को देखकर अपने भइया बलराम तथा अन्य सहचरों के साथ अति प्रसन्न हुए।वह यमुनातट एवं गोवर्धन की तराइयों में विरहते-विरहते वसन्तानन्द में इतने विभोर होने लगे कि वन्य जीवों की ध्वनियों का नकल उतारने लगे, उन्हें रिझाते नाचने लगे।
भागवत के दशम स्कन्ध में (अध्याय-20) वर्षा एवं शरद ऋतु का भी मनोरम वर्णन आया है, जिसमें दोनों भाई उसमें भी आनन्द लेते नजर आते हैं।प्रकृतिप्रेमी प्रकृति के प्रत्येक रूप में अपना अंश निकाल ही लेता है न!
हमारे संगीतशास्त्री सात स्वरों में ही सारी अभिव्यक्तियों को बाँध लेते हैं, जिन्हें सरगम के नाम से भी जाना जाता है।इनका मूलाक्षर ष ऋ गा, म, प, धै नि है।ये क्रमशः षड्ज, ऋषभ, मध्यम, पंचम, धैवत तथा निषाद हैं- ‘निषादर्षभ-गान्धार-षड्ज-मध्यम-धैवताः(अमरकोष1.7.1)।ये सभी पशु-पक्षियों से ही गृहीत हैं, इसकी पुष्टि नारद-वचन से होती है-
‘षड्जं रौति मयूरो हि गावो नर्दन्ति चार्षभम्।
अजा विरौति गान्धारं क्रौंचो नदति मध्यमम्।
पुष्पसाधारणे काले कोकिलो रौति पंचमम्।
अश्वश्च धैवतं रौति निषादं रौति कुंजरः’।।
यानी; मोर की बोली से षड्ज, गाय (बैल, साँढ़) से ऋषभ, बकरी से गान्धार, क्रौंच से मध्यम, कोयल से पंचम, घोड़े से धैवत एवं हाथी से निषाद नामक स्वरों का ग्रहण हुआ।
कुछ आचार्य क्रौंचस्वर के बदले शृगाल-स्वर को मध्यम, चातक-स्वर को ऋषभ एवं दादुर-स्वर को धैवत मानते हैं।प्रस्तार के द्वारा संगीतज्ञ भाषा के समस्त स्वरों (ध्वनियों) व वर्णसंघटित शब्दों को विभिन्न रागों में बाँधकर अव्यक्त को व्यक्त कर देते हैं।
स्पष्ट है कि श्रीकृष्ण की गानप्रियता व वंशीवादन में प्रकृतिप्रेम का ही प्रभाव है।यदि वन्य प्राणियों की बोलियों का अनुकरण नहीं करते तो बाँसुरी की तान कितना जानदार हो पाती, कहना कठिन है।इसलिए गानविद्या के प्रसारक सामवेद से आत्मीयता ही ‘वेदानां सामवेदोsस्मि’ की उद्घोषणा है।इसके मूल में है उनका कहना गुणग्राहिता।
हमारे चारों वेदों की अपनी-अपनी महत्ता है, उनमें सामवेद की आत्मा गान है।गान की महिमा है कि पशु-पक्षी और अबोध बच्चे तक इससे रसान्वित हो जाते हैं- 'पशुः वेत्ति, फणी वेत्ति वेत्ति गानरसं शिशुः'।श्रीकृष्ण ने सहज ग्राह्य मधुवर्षिणी वंशी का ही स्वानुकूल चयन किया और वंशीधर, मुरलीधर बन अपनी स्वरसिद्धि से चराचर को संसिक्त करने लगे।रसखान को हाथ में मुरली और होठों पर मुस्कान लिये श्रीकृष्ण का रूपसौन्दर्य बहुत भाता है-‘ मुरली कर मैं अधरा मुसकानि तरंग महाछबि छाजति है’।
सुरसाधना स्वरा सरस्वती का ही ध्वन्यात्मक व रागात्मक रूप है।इस बल पर साधक का जादू सब पर चल जाता है।सब मन्त्रमुग्ध हो जाते हैं।श्रीकृष्ण का वंशीवादन भी अद्भुत है।इसीलिए सूरदास कहते हैं-
‘जब हरि मुरली अधर धरत।
थिर चर, चर थिर, पवन थकित रहैं जमुना-जल न बहत।
खग मोहैं मृग-जूथ भुलाहीं, निरखि मदन छबि छरत।
पसु मोहैं, सुरभी बिथकित, तृन दन्तनि टेकि रहत’।
इसी को कहते हैं सुध-बुध खो देना।यही है रसानन्द।इसे ही कहते हैं प्रेमपुरुष का पुरुषार्थ। इसीलिए तो कृष्ण की एक व्युत्पत्ति बताई गई है- ‘कर्षति आत्मसात् करोति आनन्दत्वेन परिणमयति मनो भक्तानाम्’ (जो आनन्द से अपने भक्तों के मन को खींचकर परिणाम की ओर ले जाता है)।(लेखक की कृति ‘सांस्कृतिक तत्त्वबोध’ से)
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