कैसे समझूॅं सत्ययुग आ रहा है ।

कैसे समझूॅं सत्ययुग आ रहा है ।

कैसे समझूॅं सत्ययुग आ रहा है ,
कलियुग जन जन को भा रहा है ।
क्या कहूॅं कलियुग की विशेषता ,
आदमी ही आदमी को खा रहा है ।।
अंदर बाहर में अंतर दिखा रहा है ,
आपसी रिश्ते ऊपरी निभा रहा है ।
मैं चल दिया जब रिश्ते निभाने ,
पैर से मार ये रिश्ते ठुकरा रहा है ।।
नहीं रहा अब आपसी सौहार्द ये ,
दुःख देने में खुद दुःख पा रहा है ।
जीवन का सुखमय मार्ग त्याग,
स्वयं दुखमय मार्ग अपना रहा है ।।
जन जन में आज रोष यह भरा ,
केवल वहशीपन ही दिखा रहा है ।
दूसरे को धोखा देने के चक्कर में ,
आज स्वयं ही धोखा खा रहा है ।।
जा रहा होता जब उसके समीप ,
वह और भी दूर भागा जा रहा है ।
कैसे समझूॅं कि आ रहा सत्ययुग ,
अभी कलियुग रोब जमा रहा है ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )
बिहार ।
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