सच्चाई की राह में

सच्चाई की राह में

मन मस्तिष्क में बैठा कलियुग ,
कैसे चलूॅं सच्चाई की राह में ।
धन की मुझे नहीं है कोई कमी ,
जीवन बीतता है वाह वाह में ।।
वाह वाह होता मिथ्या प्रशंसा ,
जीवन होता होता शहंशाह में ।
चोरी बेईमानी कर्म होता मेरा ,
करोड़ों खर्च शादी निकाह में ।।
असहायों को छिना लूटा मैंने ,
जीवन भरा दीनों के आह में ।
लाचार असहाय रोते बिलखते ,
मैं तो गिरा उन्हीं की निगाह में ।।
प्रवृत्ति मेरी ये चोरी बेईमानी ,
अत्यधिक धन की है चाह में ।
घटना दुर्घटना आती है घर में ,
हमें करने हेतु यह आगाह में ।।
मैं भी इसको समझ न पाता ,
मैं पलता अहंकार की छाॅंह में ।
मुझसे आगे बढ़ता कोई गर ,
जलता रहता केवल डाह में ।।
दबंगता से दीन क्रंदन हैं करते ,
मेरा जीवन उनकी ही हाह में ।
फिर भी मुझे समझ न आता ,
कैसे चलूॅं सच्चाई की राह में ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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